वो जो था एक मसीहा-मौलाना आजाद : महज एक डाक्यूमेंट्री

रेटिंगः डेढ़ स्टार

इन दिनों बौलीवुड में बायोपिक फिल्मों का दौर चल रहा है. ऐसे ही दौर में लेखक, निर्माता, अभिनेता व सहनिर्देशक डा. राजेंद्र संजय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी व देश के प्रथम शिक्षामंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद की बायोपिक फिल्म लेकर आए हैं. फिल्म में उनके बचपन से मृत्यु तक की कथा का समावेश है, मगर मनोरंजन विहीन इस फिल्म में मौलाना आजाद का व्यक्तित्व उभरकर नही आ पाता. उनके जीवन की कई घटनाओं को बहुत ही सतही अंदाज में चित्रित किया गया है.

फिल्म पूर्ण रूपेण डाक्यूड्रामा नुमा है. मौलाना आजाद का पूरा नाम अबुल कलाम मुहियुद्दीन अहमद था. फिल्म की कहानी एक शिक्षक द्वारा कुछ छात्रों के साथ मौलाना आजाद की कब्र पर पहुंचने से शुरू होती है, पर चंद मिनटों में ही वह शिक्षक (लिनेश फणसे) स्वयं मौलाना आजाद (लिनेश फणसे) के रूप में अपनी कहानी बयां करने लगते हैं. फिर पूरी फिल्म में मौलाना आजाद स्वयं अपने बचपन से मौत तक की कहानी उन्ही छात्रों को सुनाते हैं.

मौलाना आजाद का बचपन बड़े भाई यासीन, तीन बड़ी बहनों जैनब, फातिमा और हनीफा के साथ कलकत्ता (कोलकाता) में गुजरा. महज 12 साल की उम्र में उन्होंने हस्तलिखित पत्रिका ‘नैरंग ए आलम’ निकाली, जिसे अदबी दुनिया ने खूब सराहा. हिंदुस्तान से अंग्रेजों को भगाने के लिए वे मशहूर क्रांतिकारी अरबिंदो घोष के संगठन के सक्रिय सदस्य बनकर, उनके प्रिय पात्र बन गए. जब तक उनके पिता जिंदा रहे, तब तक वह अंग्रेजी नही सीख पाए, मगर पिता के देहांत के बाद उन्होंने अंग्रेजी भी सीखी. उन्होंने एक के बाद एक दो पत्रिकाओं ‘अल हिलाल’और ‘अल बलाह’का प्रकाशन किया, जिनकी लोकप्रियता से डरकर अंग्रेजी हुकूमत ने दोनों पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद करा उन्हें कलकत्ता से तड़ीपार कर रांची में नजरबंद कर दिया. चार साल बाद 1920 में नजरबंदी से रिहा होकर वह दिल्ली में पहली बार महात्मा गांधी (डा. राजेंद्र संजय) से मिले और उनके सबसे करीबी सहयोगी बन गए.

उनकी प्रतिभा और ओज से प्रभावित जवाहरलाल नेहरू (शरद शाह) उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे. पैंतीस साल की उम्र में आजाद कांग्रेस के सबसे कम उम्र वाले अध्यक्ष चुने गए. गांधीजी की लंबी जेल यात्रा के दौरान आजाद ने दो दलों में बंट चुकी कांग्रेस को फिर से एक करके अंग्रेजों के तोडू नीति को नाकाम कर दिया. उन्होंने सायमन कमीशन का विरोध किया. 1944 व 1945 के दौरान जब वह कई दूसरे नेताओ के साथ जेल में बंद थे, तभी उनकी पत्नी जुमेला का निधन हुआ. देश को आजादी मिलने के बाद केंद्रीय शिक्षामंत्री के रूप में उन्होंने विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में क्रांति पैदा करके उसे पश्चिमी देशों की पंक्ति में ला बैठाया. वह आजीवन हिंदू मुस्लिम एकता के लिए संघर्ष करते रहे.

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