जब गांव की लड़की को हुई पहली माहवारी, फिर हुआ ये

पहली माहवारी हर लड़की के लिए बड़ी उलझन और मुश्किल भरी होती है. किसी के लिए दर्द बरदाश्त से बाहर होता है तो कोई इस से पूरी तरह से अनजान इस बात से डरी होती है कि कहीं उसे किसी तरह की चोट या बीमारी तो नहीं हो गई जो उस के साथ यह सब हो रहा है.

यह वह सोच है, जो माहवारी से जुड़ी हुई है और जो अकसर स्कूल की किताबों में बच्चे कैसे पैदा होते हैं वाले पाठ में लिखी मिलती है. गैरसरकारी संस्था वाले जब कोई जानकारी देने आते हैं, तो वे कुछ इसी तरह से बच्चों को माहवारी के बारे में समझाते हैं.

लेकिन, माहवारी की यह परिभाषा असल में जगह और संसाधनों या कहें सुखसुविधाओं की तर्ज पर दी जाए तो बेहतर रहेगा. पर क्यों? क्योंकि जिन लड़कियों को सैनेटरी पैड या एक साफ कपड़ा भी नहीं मिल पाता, उन के लिए महीने के वे 5 दिन किसी बुरे सपने से कम नहीं होते.

लेकिन अगर सुविधाएं हों और तब भी बहुत सी लड़कियों का मुंह बंद रख कर परेशानियों को झेलते रहना भी यह सोचने पर मजबूर करता है.

84 फीसदी लड़कियों को पहली माहवारी होती है तो पता नहीं होता कि क्या हो रहा है. 15 फीसदी लड़कियां ही सैनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं.

माहवारी को धर्म से भी जोड़ा जा चुका है. कहा जाता है कि जब इंद्र देवता ने ब्राह्मणों को मारा था और इंद्र का पाप औरतों ने अपने सिर ले लिया जो हर महीने आता है.

इस बेसिरपैर की कहानी की वजह से औरतों को माहवारी के दिनों में अछूत मान लिया जाता है.

पंडेपुजारी यह भी बता देते हैं कि गलत सोच के चलते हर महीने खून की शक्ल में निकलती है. इस तरह की बातें सुनसुन कर लड़कियां अपनेआप को पापिन समझती हैं.

माहवारी, जिसे अकसर लोग पीरियड्स, महीना या डेट कह कर पुकारते हैं, असल में वह मुद्दा है, जिस पर बात तो की जाने लगी है, लेकिन बात असल में किस तरह की और क्या बात होनी चाहिए, इस पर शायद ही कोई ध्यान देता है.

गांव और कसबों की लड़कियां शहरी लड़कियों से इस मामले में बहुत अलग हैं. हर लड़की ही इस मामले में बहुत अलग है, यह कहना ज्यादा बेहतर रहेगा. पहली माहवारी का दर्द, घबराहट, चिंता जैसी परेशानियां भी सब की एकजैसी नहीं होती हैं.

नाम दिया ‘लीच’ अलीगढ़ की रहने वाली खुशबू

16 साल की है. उस से यह सवाल पूछने पर कि जब उसे पहली बार माहवारी आई थी, तो उस ने क्या किया था, तो वह हंसते हुए कहती है, ‘‘इस में बताने वाला क्या है. सब के साथ एकजैसा ही होता है.’’

खुशबू पर थोड़ा जोर डाल कर पूछने पर उस ने आगे बताया, ‘‘दीदी, मुझे तो स्कूल में बता दिया गया था कि कैसे क्या होता है, तो मुझे तो सब पता था. मम्मी ने भी कहा था कि यह दिक्कत होती है लड़कियों को.

‘‘दिक्कत…?’’ मैं ने पूछा.

खुशबू फिर जोर से हंस कर कहने लगी और बोली, ‘‘हां, मतलब वही.

‘‘तुम पीरियड्स को क्या कहती हो?’’

‘‘दीदी, मैं अपनी सहेली को बुलाती हूं. वह आप को बता देगी अच्छे से,’’ कह कर खुशबू बगल के घर से अपनी सहेली रोली को बुला लाई.

‘‘हां, क्या बताना है?’’ रोली ने खुशबू की ही तरह हंसते हुए पूछा.

‘‘पहली माहवारी आई थी, तो क्या हुआ था?’’

यह सुनते ही रोली खिलखिला कर हंसने लगी, ‘‘मुझे तो मेरी चाची ने बताया था कि यह हो तो क्या होता है.’’

‘‘यह मतलब?’’ मैं ने एक बार फिर सवाल किया.

‘‘हां, मतलब यही,’’ कह कर वह हंस पड़ी.

‘‘तुम माहवारी को क्या कहती हो?’’

‘‘कहते तो हम लीच यानी जोंक हैं,’’ रोली ने कहा और यह बताए बिना कि असल में पहली बार माहवारी आई थी तो क्या हुआ था, खुशबू को देख हंसने दी.

इस के बाद वे सिर्फ हंस रही थीं और माहवारी के बारे में बात करने से कतरा रही थीं. यह कतराना, हंसना, मजाक बनाना वह समस्या है, जिस पर बात करने की जरूरत है. क्यों? क्योंकि इस हंसी के पीछे माहवारी लड़कियों के लिए माहमारी बन जाती है और इसी हंसी के पीछे दब कर रह जाती है.

चुप रहना पड़ा महंगा 8 महीने पहले इसी गांव की रहने वाली सुनीता को अनियमित माहवारी की समस्या हुई थी. उसे 2 महीने तक 13 दिन माहवारी हुई. उस ने अपनी मां को बताया तो उन्होंने समझाया कि शुरूशुरू में ऐसा होता है. पर कोई दिक्कत नहीं.

13 दिन पीरियड्स होने पर सुनीता ने सैनेटरी पैड का इस्तेमाल किया था, लेकिन बारबार ले कर कौन आता, इस उलझन में वह एक ही पैड पूरा दिन इस्तेमाल करती. इस वजह से उस की जांघों पर दाने निकल आए. उस ने मां से दानों का जिक्र किया तो उन्होंने उसे क्रीम लगा लेने के लिए कहा.

माहवारी तो नियमित हो गई, लेकिन दाने बढ़ते गए. एक जांघ से शुरू हुए दाने अब दोनों पर फैलने लगे. सुनीता और उस की मां दोनों को ही समझ नहीं आया कि जांघें दिखा कर तो दवा ले नहीं सकते और बोलने में भी उन्हें शर्म आ रही थी, तो सुनीता की मां ने अपने पति से कह कर फैल रहे दानों की दवा मंगाई. जांघ पर हुए ये दाने अब बड़ेबड़े निशान बनने लगे और सुनीता की जांघों की चमड़ी ढीली पड़ने लगी.

अगले महीने जब पीरियड आया, तो पैड या कपड़ा कुछ भी लगाने पर वह जांघों पर बुरी तरह चुभने लगा. इस के चलते ढीली पड़ी जांघ की चमड़ी पर गहरा कट लग गया. अब न सुनीता उठ पा रही थी, न चल पा रही थी. आखिरकार सुनीता ने भाई से फोन मांग कर जांघों का फोटो खींचा और डाक्टर के पास गई.

डाक्टर ने देखते ही बताया कि सुनीता की जांघों पर दाद हुआ है और जांघों की ढीली हुई चमड़ी जिस पर खिंचाव के निशान आ गए हैं, अब कभी ठीक नहीं होगी, ये निशान कभी नहीं जाएंगे.

जाहिर तौर पर दाद की वजह से सुनीता का माहवारी के समय सफाई न रखने पर इंफैक्शन की चपेट में आना था, जिस ने बाद में दाद का रूप ले लिया.

साफतौर पर लड़कियों के लिए बहुत जरूरी है कि वे इस बात को समझें कि पहली माहवारी के बारे में सीख लेना या जान लेना ही काफी नहीं है, बल्कि तीसरी, चौथी, 5वीं और हर एक माहवारी में यह ध्यान रखना जरूरी है कि साफसफाई जरूरी है.

पैड हो या कपड़ा समय पर बदलना जरूरी है. जिस तरह से खीखी और हंसीठिठोली में इस बारे में बात होती है, उसी तरह माहवारी से हो रही तमाम बीमारियों के बारे में खुल कर बोलना भी जरूरी है.

पीरियड्स के समय मुझे पैरों में दर्द की समस्या है, क्या यह चिंता की बात है ?

सवाल
मेरी उम्र 24 साल है. पीरियड्स के दिनों में पैरों में दर्द होता है, क्या यह चिंता की बात है?

जवाब
नहीं, यह कोई बड़ी समस्या नहीं है. पीरियड्स के दौरान पैरों और शरीर के निचले हिस्से में दर्द आम बात है. पेट के निचले हिस्से में होने वाला दर्द शरीर के  अन्य हिस्सों तक फैलता है. कई औरतों को यह समस्या होती है. पैरों में दर्द की एक वजह गर्भाशय में सिकुड़न भी है.

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पीरियड्स में अब नो टैंशन

अधिकतर महिलाओं के लिए पीरियड्स एक छोटी सी असुविधा होती है, लेकिन कुछ महिलाओं के लिए यह बड़ी समस्या बन जाती है. पीरियड्स का अंतराल 21 दिन से 35 दिन का हो सकता है. पीरियड्स की शुरुआत 11 से 14 वर्ष के बीच होती है. फीमेल सैक्स हारमोन ऐस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरौन पीरियड्स को नियंत्रित करते हैं. कुछ टिप्स अपना कर आप इन दिनों भी टैंशन फ्री रह सकती हैं:

बेटी को पहले से कैसे समझाएं

मासिकचक्र के साथ कई प्रकार की चिंताएं और डर होते हैं. कई बच्चियां घबरा जाती हैं कि यह उन के साथ क्या हो रहा है. मासिकचक्र शुरू होने से पहले ही आप को अपनी किशोर बेटी को मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक रूप से इस के लिए तैयार करना पड़ेगा. हालांकि आमतौर पर पीरियड्स 12 वर्ष की आयु में शुरू होते हैं, लेकिन कई लड़कियों में इस से बहुत पहले ही यह प्रक्रिया शुरू हो जाती है. मासिकचक्र शुरू होने से पहले शरीर में कई बदलाव होने शुरू हो जाते हैं. ये बदलाव शारीरिक ही नहीं होते, मनोवैज्ञानिक भी होते हैं. अपनी बेटी से 10 साल की उम्र के आसपास ही इस के बारे में चर्चा करें. उसे समझाएं कि यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिस से हर औरत को गुजरना पड़ता है. बचपन से किशोर उम्र में कदम रखने पर शरीर किन बदलावों से गुजरता है, यह भी उसे बताएं.

कब करें डाक्टर से संपर्क

– आप के पीरियड्स अचानक 90 दिन से अधिक समय के लिए बंद हो जाएं और आप गर्भवती न हों.

-7 दिनों से अधिक समय तक ब्लीडिंग हो.

-अत्यधिक ब्लीडिंग हो.

-पीरियड्स के बीच में ब्लीडिंग और दर्द हो.

-पीरियड्स का अंतराल 21 दिन से कम या 35 दिन से अधिक हो.

अत्यधिक पीरियड्स से आयरन की कमी हो जाती है. इस से ऐनीमिया, थकान, त्वचा का पीला पड़ जाना, ऊर्जा की कमी, सांस फूलना जैसी समस्याएं हो सकती हैं.

प्रीमैंस्ट्रुअल सिंड्रोम (पीएमएस)

इसे प्रीमैंस्ट्रुअल टैंशन (पीएमटी) भी कहते हैं. कई महिलाओं में पीरियड्स के दौरान पीएमएस के लक्षण दिखाई देते हैं. इस समय वक्षस्थल में सूजन आ जाना, सिरदर्द, कमर दर्द, पेट फूलना या अधिक भूख लगना जैसी समस्याएं हो सकती हैं. इस में मुंहासे, उत्तेजना, थकान, अनिद्रा, ऊर्जा की कमी, अवसाद और मूड बदल जाना के लक्षण भी दिखाई दे सकते हैं. तीव्र लक्षणों में आक्रामक बरताव या आत्महत्या का खयाल आना. ये लक्षण हर महीने गंभीर हो सकते हैं. तनाव इन लक्षणों को और गंभीर बना सकता है.

पीएमएस के लक्षणों से बचाव

-संतुलित भोजन का सेवन.

– खूब पानी पीना.

– धूम्रपान और एल्कोहल का सेवन न करना.

– पूरी नींद लें.

– तनाव न पालें.

– कुनकुने पानी से स्नान.

मासिकचक्र के दौरान जरूरी सावधानियां

आप पीरियड्स की चिंता न करें. उन दिनों आप अपना ध्यान रखेंगी तो आप का समय आसानी से गुजर जाएगा.

– साफसफाई का विशेष ध्यान रखें. एक ही पैड पूरा दिन न रखें, बदलती रहें.

– अगर ब्लीडिंग अधिक हो रही हो तो रात में भी एक बार पैड बदल लें.

– अगर आप को अपने दांतों का इलाज कराना है या किसी और स्वास्थ्य समस्या के लिए डाक्टर के पास जाना चाहती हैं तो न जाएं, क्योंकि इस दौरान शरीर में ऐस्ट्रोजन हारमोन का स्तर कम होता है, इसलिए दर्द अधिक होता है.

– मासिकचक्र के दौरान वैक्सिंग न कराएं.

– ठंडी चीजों जैसे दही, चावल, आइसक्रीम, कोल्ड ड्रिंक्स आदि के सेवन से रक्त का प्रवाह धीमा हो जाता है, जिस से गर्भाशय की अंदरूनी भित्ती निकलने में समस्या आती है.

– कैफीन का सेवन कम मात्रा में करें, क्योंकि इस से रक्तनलिकाएं संकुचित हो जाती हैं, जिस से ब्लीडिंग रुक जाती है. इस से पेट दर्द अधिक होता है.

– अपने योनि क्षेत्र को साफ करने के लिए वर्जाइना वाश का इस्तेमाल न करें. इस की जगह गुनगुने पानी का इस्तेमाल करें. योनि का अपना सैल्फ क्लिंजिंग मैकेनिज्म होता है, जो अपनेआप संक्रमण फैलाने वाले बैक्टीरिया को साफ कर देता है, अगर आप वैजाइना वाश का इस्तेमाल करेंगी, तो इस से नैचुरल प्रोटैक्टिव फ्लोरा मर जाएंगे.

– हमेशा ऊपर से नीचे की ओर वाश करें ताकि गुदा मार्ग से संक्रमण फैलने का डर न हो.

कई महिलाओं को जांघों या योनि क्षेत्र के आसपास रैशेज हो जाते हैं. इस से बचने के लिए साफसफाई का विशेष ध्यान रखें. समय पर पैड बदलें. इस क्षेत्र को सूखा और साफ रखें. अगर आप को फिर भी समस्या होती है, तो किसी स्त्रीरोग विशेषज्ञा को दिखाएं.

माहवारी- मर्ज पर भारी

तकरीबन 15 साल की सुमन डाक्टर के सामने बैठी थी. डाक्टर ने उस से पूछा, ‘‘क्या तुम शादीशुदा हो?’’

सुमन ने सवालिया नजरों से अपनी मां की तरफ देखा. तबीयत खराब होने से भला शादी का क्या कनैक्शन? उस ने ‘नहीं’ में सिर हिलाया.

डाक्टर ने सुमन को बाहर भेज कर मां से धीमी आवाज में कुछ पूछा. इस से आसपास बैठे दूसरे मरीजों में खुसुरफुसुर होने लगी.

दरअसल, पिछले 2 महीने से सुमन की माहवारी मिस हो रही थी. उस ने यह बात अपनी मां को बताई और घबराई मां उसे ले कर डाक्टर के पास आ पहुंची.

छोटे से कसबे की रहने वाली सुमन इस बात से बिलकुल बेखबर थी कि वहां मौजूद बाकी लोग उसे कैसी नजरों से देख रहे थे. उस के जेहन में बारबार यही सवाल उठ रहा था कि डाक्टर ने ऐसा क्यों पूछा कि शादी हुई है या नहीं?

लड़कियों से ऐसे सवाल सिर्फ गांवों या छोटे शहरों में ही नहीं पूछे जाते हैं, बल्कि बड़े शहरों का भी यही हाल है.

‘‘मैं एक सिंगल लड़की हूं. पिछले दिनों मेरे पीरियड्स मिस हो गए और मैं डाक्टर के पास गई. मैं यह उम्मीद ले कर गई थी कि डाक्टर मेरी परेशानी का हल बताएंगी, मु झे दवाएं देंगी, मेरी मदद करेंगी, लेकिन हुआ उलटा.

‘‘उन्होंने मुझ से अजीब से सवाल किए. जैसे कि क्या मेरी शादी हो गई है? क्या मेरा बौयफ्रैंड है? क्या मैं सैक्स करती हूं? क्या मेरे मातापिता को इस बारे में मालूम है? मैं डाक्टर के इस रवैए से हैरान थी.’’

यह वाकिआ सीमा के साथ हुआ. वह इस से बेहद खफा है और चाहती है कि डाक्टर कुंआरी या सिंगल लड़कियों से ऐसे सवाल न पूछें और न ही उन्हें ‘नैतिकता’ का पाठ पढ़ाएं.

सैक्सुअल हैल्थ से जुड़ी परेशानी  पर डाक्टर अकसर ही शादी से जुड़े  सवाल करती हैं. कायदे से यह पूछा जाना चाहिए कि क्या आप सैक्सुअली ऐक्टिव हैं?

गाइनोकोलौजिस्ट डाक्टर विमला जयपुर के वात्सल्य हैल्थ सैंटर में मरीजों को देखती हैं. उन के यहां शहरी के साथसाथ जयपुर के गांवदेहात के इलाकों से भी मरीज आते हैं.

डाक्टर विमला का मानना है कि डाक्टरों के लिए मरीज की सैक्स लाइफ और सैक्सुअल ऐक्टिविटी के बारे में जानना जरूरी होता है.

वे यह भी मानती हैं कि मरीज शादीशुदा है या नहीं, वह सैक्सुअली कितनी ऐक्टिव है, ऐसी बातों से डाक्टर का बहुत ज्यादा मतलब नहीं होना चाहिए.

उन्होंने आगे बताया, ‘‘मैं अपने यहां आने वाली लड़कियों को सेफ सैक्स की सलाह देती हूं. एक बालिग लड़की ‘सही’ और ‘गलत’ का फैसला खुद ले सकती है. लड़कियों की माहवारी मिस हो जाना ही सैक्सुअल हैल्थ से जुड़ा मसला नहीं है. इस के अलावा भी कई दिक्कतें हो सकती हैं, जैसे अंग के इंफैक्शन से फैलने वाली बीमारियां.’’

डाक्टरों का ऐसा बरताव निजी क्लिनिकों और छोटे अस्पतालों तक सिमटा हुआ नहीं है, बल्कि बड़े अस्पतालों में भी लड़कियों को इस तरह के सवालों का सामना करना पड़ता है.

23 साल की सोनम बताती है कि डाक्टर यह मान कर चलते हैं कि कोई सैक्स तभी करता है, जब उस की शादी हो जाती है.

जयपुर में रहने वाली 25 साल की सोनम अपने अनुभव सा झा करते हुए कहती है, ‘‘वेजाइनल इंफैक्शन होने पर मैं एक गाइनोकोलौजिस्ट के पास गई. मैं ने उन से पूछा कि कहीं यह एसटीडी तो नहीं है?’’

उस की बात सुन कर डाक्टर ने कहा, ‘‘अगर तुम शादीशुदा नहीं हो, तो एसटीडी का सवाल ही नहीं उठता.’’

सोनम कहती है कि डाक्टर यह मान कर चलते हैं कि कोई सैक्स तभी करता है, जब उस की शादी हो जाती है. मु झे उन के बरताव पर बहुत गुस्सा आया और मैं ने इस बारे में अपना गुस्सा जाहिर करते हुए सोशल मीडिया पर एक पोस्ट भी लिख डाली.

जयपुर के कांवटिया हौस्पिटल में तैनात डाक्टर आरके चिरानियां ने काफी समय तक ऐसे मामलों को हैंडल किया है. वे कहते हैं, ‘‘गाइडलाइंस की बात करें तो छोटीमोटी दिक्कतों के लिए हमें मरीज के अलावा किसी और से बात करने की जरूरत नहीं होती. लेकिन बात अगर बच्चा ठहरने तक पहुंच जाए, तो लड़की के पार्टनर या किसी करीबी को बताना जरूरी हो जाता है.

‘‘कई बार गांवों की ऐसी लड़कियां मेरे पास आती थीं, जिन्हें पता ही नहीं होता था कि वे पेट से हैं. उन्हें बस इतना पता होता था कि उन के पेट में दर्द हो रहा है. ऐसे में उन के मातापिता से बात करना मजबूरी हो जाती थी.’’

डाक्टर आरके चिरानियां इस के पीछे तर्क देते हैं कि किसी को बिना बताए बच्चा गिराना खतरनाक होता है. इस में मौत का डर भी होता है.

‘मर्दाना कमजोरी का शर्तिया इलाज’, ‘सैक्स रोगी मिलें’, ‘जवानी में भूल की है तो न पछताएं’ जैसे इश्तिहार गांवकसबों और बड़े शहरों में जगहजगह दीवारों पर देखने को मिल जाते हैं. लेकिन जहां बात लड़कियों  की आती है, तो हर तरफ चुप्पी छा जाती है या फिर इशारों में बातें होने लगती हैं.

हमारे डाक्टर भी उसी समाज से आते हैं, जहां से हम. मैडिकल साइंस और विज्ञान उन्हें इस काबिल तो बनाता है कि वे बीमारी पहचान सकें, इलाज कर सकें, लेकिन शायद वे यह सम झने में नाकाम होते हैं कि उन का काम यहीं तक है, फैसले सुनाने या मोरल साइंस पर लैक्चर देने का नहीं.

अब यह सवाल उठता है कि क्या हम ऐसे समाज की कल्पना कर सकते हैं, जहां लड़कियां बेझिझक हो कर अपनी सैक्स से जुड़ी तकलीफों के बारे में बात कर पाएं? कम से कम वे डाक्टरों से अपनी तकलीफ खुल कर बता पाएं?

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