कल्याण सिंह हालात के हिसाब से बदलते रहें!

राजनीति‘मेरा उद्देश्य अब पिछड़ों को उन का हक दिलाना है. राष्ट्रीय जनक्रांति पार्टी इस काम को पूरा करेगी…’ साल 2002 में अपनी अलग पार्टी का गठन करते समय कल्याण सिंह ने ऐसा कहा था.

‘भाजपा में वापस जाना मेरी भूल थी. राम मंदिर पर अपनी भूमिका को ले कर भी मुझे खेद है. इस बार मैं ने हमेशाहमेशा के लिए भाजपा से संबंध खत्म कर लिए हैं,’ 21 जनवरी, 2009 को कल्याण सिंह ने भाजपा से अलग होने के बाद कहा था.

कल्याण सिंह अपनी बात पर कायम होने वाले नेता नहीं बन सके. वे जबजब भाजपा से अलग हुए, तबतब पार्टी को बुरी तरह से कोसा. इस के बाद वापस भाजपा में गए.

वैसे तो कल्याण सिंह साल 1967 में पहली बार विधायक चुने गए थे, लेकिन भाजपा में उन का उपयोग उस समय किया गया, जब तब के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ी जातियों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए मंडल कमीशन की सिफारिशों को पूरे देश में लागू किया था.

हर दल में पिछड़ी जाति के नेताओं को अहमियत दी जाने लगी थी और उस दौर में भाजपा ने भी कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे पिछड़े तबके के नेताओं को आगे कर के सत्ता हासिल की थी.

जनता पार्टी में जनसंघ का विलय होने के बाद जब जनता पार्टी टूटी, तब जनसंघ से आए नेताओं ने भारतीय जनता पार्टी नाम से नया दल बनाया था. इस के पीछे संघ का पूरा हाथ था.

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भाजपा के संस्थापकों में अगड़ी जातियों के नेता प्रमुख थे. इन में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी व विजयाराजे सिधिंया जैसे नेता प्रमुख थे.

भाजपा के बनने के बाद संघ ने तय किया कि राम मंदिर आंदोलन को तेज किया जाएगा. इसी दौर में मंडल कमीशन को ले कर पिछड़ों की राजनीति भी शुरू हो रही थी.

भाजपा को उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जाति के किसी ऐसे नेता की तलाश थी, जो मुलायम सिंह यादव का मुकाबला कर सके, वह जमीन से जुड़ा हो और उस में हिंदुत्व की भी धार हो.

कल्याण सिंह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की उसी बैल्ट से आते थे, जिस से मुलायम सिंह यादव आते थे. अलीगढ़ के रहने वाले कल्याण सिंह साल 1967 में पहली बार विधायक बने थे. इसी साल मुलायम सिंह यादव भी चुनाव जीते थे.

मुलायम सिंह यादव भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इटावा से आते थे. वे साल 1977 में जनता पार्टी की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री थे. ऐसे में भाजपा ने कल्याण सिंह को उत्तर प्रदेश की बागडोर सौंपने का फैसला लिया.

कल्याण सिंह की खूबी थी कि वे पिछड़ी लोधी जाति से आते थे. वे हिंदुत्व की राजनीति कर सकते थे. वे अक्खड़ और रूखे स्वभाव के नेता थे. उन की छवि साफ थी. साल 1984 में कल्याण सिंह को भाजपा ने प्रदेश अध्यक्ष बना कर उन का इस्तेमाल शुरू किया था.

आमनेसामने 2 ओबीसी नेता

साल 1986 में राम मंदिर आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम किया गया, तो कल्याण सिंह सब से उपयोगी नेता साबित हुए. भाजपा ने कल्याण सिंह के कंधे पर बंदूक रख कर चलाना शुरू किया. उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्ग के लोग एकजुट न रह सके, जिस से मंडल कमीशन का फायदा पिछड़ी जातियों को मिल सके.

इस राजनीति ने कल्याण सिंह और मुलायम सिंह यादव को आमनेसामने खड़ा कर दिया. मुलायम सिंह यादव संघ की हिंदुत्व वाली राजनीति के खिलाफ थे. कल्याण सिंह ने राम मंदिर आंदोलन की कमान खुद संभाल रखी थी. उन दोनों के बीच राजनीतिक मुठभेड़ शुरू  हो गई.

भाजपा में ऊंची जातियों के नेता दूर से इस लड़ाई को देख रहे थे. साल 1989 में जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब कल्याण सिंह भाजपा विधानमंडल दल के नेता थे.  इस दौरान राम मंदिर आंदोलन शिखर पर था.

साल 1990 में राम मंदिर बनाने के लिए कारसेवा की घोषणा हुई. उस समय मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. उन्होंने कहा था कि अयोध्या में कोई भी कारसेवक घुसने नहीं पाएगा. वहां परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा. दूसरी तरफ कल्याण सिंह इस बात पर अडिग थे कि कारसेवक अयोध्या पहुंचेंगे. 30 अक्तूबर और 6 नवंबर को हिंसक झड़पें हुईं.

कारसेवकों को रोकने के लिए मुलायम सिंह यादव को गोलियां चलवानी पड़ीं. इस के बाद उत्तर प्रदेश में हिंदुत्व की लहर उठी. कल्याण सिंह इस के प्रतीक बने. मंडल कमीशन और पिछड़ों की राजनीति का नुकसान हुआ. मुलायम सिंह की सरकार गिर गई.

साल 1991 में उत्तर प्रदेश में दोबारा चुनाव हुए और तब पहली बार कल्याण सिंह की अगुआई में भाजपा की सरकार बनी. 221 सीटों वाली भाजपा ने कल्याण सिंह को अपना मुख्यमंत्री बनाया. कल्याण सिंह ने अपनी सरकार का कामकाज रामलला के दर्शन करने के बाद शुरू किया.

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हिंदुत्व की लहर पर सवार कल्याण सिंह भले ही मुख्यमंत्री बने पर पिछड़ी जातियों के सामाजिक न्याय के साथ धोखा हो गया. कल्याण सिंह केवल पिछड़ी जातियों के न्याय और मंडल कमीशन लागू होने की राह में रोड़ा ही नहीं बने, बल्कि मुख्यमंत्री की कुरसी पर बैठ कर कानून और व्यवस्था के प्रति न्याय नहीं कर सके. अदालत में शपथपत्र देने के बाद भी वे अयोध्या के विवादित ढांचे की हिफाजत नहीं कर सके.

जब गिर गया विवादित ढांचा

कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद राम मंदिर की राजनीति करने वाली विश्व हिंदू परिषद ने दबाव बनाना शुरू किया कि राम मंदिर मसला जल्दी हल किया जाए.

कल्याण सिंह राम मंदिर बनाने का रास्ता मजबूत करना चाहते थे, पर उन के पास कोई हल नहीं था. मसला कोर्ट में था. बिना कोर्ट के फैसले के कुछ हो नहीं सकता था. वे इस मामले में थोड़ा वक्त चाहते थे.

राम मंदिर आंदोलन से जुड़े ऊंची जातियों के नेता इस के लिए वक्त देने को तैयार नहीं थे. ऐसे में 6 दिसंबर, 1992 को कारसेवा की घोषणा कर दी गई. कल्याण सिंह ने केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार और सुप्रीम कोर्ट दोनों को वचन दिया कि कारसेवा के दौरान अयोध्या में कोई गड़बड़ नहीं होने  दी जाएगी.

6 दिसंबर के पहले से ही देशभर में माहौल गरम था. कारसेवा करने वालों के हौसले बुलंद थे, क्योंकि इस बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह थे, जो रामभक्त थे. उन से यह उम्मीद नहीं की जा रही थी कि वे कारसेवकों पर गोली चलवाएंगे. कारसेवक, जो काम साल 1990 में नहीं कर पाए थे, वह 2 साल बाद साल 1992 में करना चाहते थे.  कल्याण सिंह ने अयोध्या की सुरक्षा के ऐसे इंतजाम किए थे, जिस में केंद्र सरकार की फोर्स पीछे थी. उत्तर प्रदेश पुलिस के हाथों में अयोध्या की मुख्य कमान थी. घटना के दिन उत्तर प्रदेश पुलिस पीछे हट चुकी थी. उसे यह आदेश थे कि किसी भी कीमत पर कारसेवकों पर गोली नहीं चलाई जाएगी.

कारसेवक गुंबदों पर चढ़ कर उन्हें तोड़ने लगे. इस बात की जानकारी देश के तब के प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव को मिली. वे मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से फोन पर संपर्क करने की कोशिश करने लगे.

कल्याण सिंह अपने सरकारी आवास में थे. इस के बाद भी फोन पर बात नहीं की. वे भाजपा के नेताओं के संपर्क में थे. जैसा निर्देश मिल रहा था, वैसा काम कर रहे थे. पुलिस ने गोली नहीं चलाई और अयोध्या में कारसेवकों का  कब्जा हो गया. 1-1 कर के तीनों गुंबद गिरते गए.

केंद्र सरकार ने कैबिनेट मीटिंग शुरू की. उस में यह फैसला लिया जाना था कि उत्तर प्रदेश की कल्याण सरकार को बरखास्त कर दिया जाए.

यह सूचना मिलते ही जैसे ही साढ़े 5 बजे तीनों गुंबद गिर गए, कल्याण सिंह 30 मिनट बाद राजभवन गए और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.

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जब तक गुंबद पूरी तरह से गिर नहीं गए और वहां पर अस्थायी राम मंदिर नहीं बन गया, कल्याण सिंह ने कुरसी नहीं छोड़ी.

कल्याण सिंह ने इस के बाद पूरे देश में ‘जनादेश यात्रा’ निकाली. उन को ‘हिंदू हृदय सम्राट’ और ‘अयोध्या का नायक’ कहा गया.

‘चरित्र हनन’ की राजनीति

साल 1997 में बहुजन समाज पार्टी और भाजपा के बीच 6-6 महीने की सरकार चलाने का समझौता हुआ. कल्याण सिंह 21 अक्तूबर को मुख्यमंत्री बने. कल्याण सिंह को यह लगा कि वे अब भाजपा के बड़े नेता हो चुके हैं. इस सोच के बाद ही उन का टकराव उस समय के नेता अटल बिहारी वाजपेयी से हो गया.

अगड़ी जाति के नेताओं को यह लग चुका था कि कल्याण सिंह को अब जमीन पर लाना है. इस के बाद कल्याण सिंह के साथ राजाजीपुरम क्षेत्र की सभासद कुसुम राय के संबंधों को ले कर ‘चरित्र हनन’ की राजनीति शुरू हुई. ऊंची जातियों के समर्थक मीडिया में रोज नई खबरें गढ़ी जाने लगीं. लोग राजाजीपुरम के नाम को मजाक में ‘रानीजीपुरम’ कहने लगे.

अहम की इस लड़ाई में अयोध्या के नायक कल्याण सिंह की हार हुई. उन को भाजपा से बाहर कर दिया गया.

साल 2002 में कल्याण सिंह ने राष्ट्रीय जनक्रांति पार्टी का गठन किया, पर इस में वे कामयाब नहीं हुए. साल 2004 में वे वापस भाजपा में आए. 2009 के लोकसभा चुनाव के दौरान कल्याण भाजपा से बाहर हो गए.  उस समय उन्होंने कहा कि अब वे वापस भाजपा में नहीं जाएंगे. यह दौर वह था, जब भाजपा में पिछड़ी  जातियों की जगह अगड़ी जातियों का कब्जा था.

साल 2013 में जब भाजपा में पिछड़ी जातियों को अहमियत दी जाने लगी, तो कल्याण सिंह को वापस भाजपा में लाया गया. साल 2014 में राजस्थान और साल 2015 में हिमाचल प्रदेश के प्रभारी राज्यपाल बने.

साल 2017 में कल्याण सिंह के पोते संदीप को उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में मंत्री बनाया गया. साल 2019 में कल्याण सिंह वापस भाजपा कार्यकर्ता के रूप में काम करने लगे.

साल 2021 के अगस्त महीने में कल्याण  सिंह की मौत हो गई, जिस के बाद भाजपा ने पूरे सम्मान के साथ उन का अंतिम संस्कार किया.

Photo Credit- Social Media

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