आईना : बूढ़ी सोच तो विकास कैसे?

केंद्र सरकार में प्रधानमंत्री और उन का मंत्रिमंडल भी बूढ़ों से भरा हुआ है. देश और राज्यों का नेतृत्व जब इन उम्र के नेताओं के हाथों में है तो नए विचार, नया विकास कहां से आएगा?

यह वह पीढ़ी है, जो राम का नाम जपने, मंत्र पढ़ने, हवनयज्ञ कराने, ब्राह्मणों को दानदक्षिणा देने, गौसेवा करने, स्वर्गनरक में विश्वास जैसे धार्मिक पाखंडों के जरीए समस्याओं के समाधान पर भरोसा करती आई है. अफसोस यह है कि इस पीढ़ी ने नई पीढ़ी को भी उसी अंधविश्वासी ढांचे में ढाल दिया है.

देश और राज्यों की तरक्की के लिए यह नेतृत्व अपने राज्यों में तीर्थयात्राएं, हवनयज्ञ, मंदिर दर्शन, धर्मस्थलों का निर्माण, दानदक्षिणा जैसे धार्मिक कर्मकांडों में उल झा रहा है और नौजवान इस में कांवडि़यों और यात्रियों की सेवा धर्म की खातिर करने में लगे रहते हैं. कई भाजपाई राज्यों में तो धार्मिक मंत्री तक बनाए गए हैं.

भारत एक युवा समाज है. सवा अरब की आबादी में 60 फीसदी से ज्यादा युवा हैं. दूसरे देशों के बजाय भारत में इन की आबादी सब से ज्यादा है. इस लिहाज से युवा भारत होते हुए देश में एक भी युवा विधानसभा नहीं है.

राहुल गांधी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट जैसे युवा कहलाने वाले नेता भी पैतृक विरासत से राजनीति में आए हुए हैं.

राजनीति में आज ऐसे युवा नेता नहीं हैं, जो युवाओं में क्रांति का संचार कर सकें, इसलिए वोटरों को पुराने, बूढ़े और युवा नेताओं में कोई फर्क नजर नहीं आता.

मगर विचार युवा नहीं

कहने को हर राजनीतिक दल की अपनीअपनी युवा विंग हैं. भारतीय युवा कांग्रेस, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, स्टूडैंट फैडरेशन औफ इंडिया जैसी राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर युवा राजनीति की शाखाएं सक्रिय हैं.

सवाल यह है कि क्या राजनीतिक नजरिए से हमारे युवा नेताओं के विचार मौजूदा नेताओं से अलग हैं? जवाब है, नहीं. हमारे युवा नेताओं के विचार किसी भी तरह से नए, क्रांतिकारी और बदलाव के वाहक नहीं हैं. युवाओं से बदलाव क्रांति की राजनीति की उम्मीद है, पर वे उस पर खड़े उतरते दिखाई नहीं देते.

युवा राजनीति से उदासीन हैं और वे दूसरे क्षेत्रों में अपना भविष्य ज्यादा चमकीला सम झते हैं.

युवा नेता राजनीति में किसी भी लिहाज से अलग नहीं हैं. वे पुरानी पीढ़ी के नेताओं से अलग विचार नहीं रखते. वे न तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाते सुनाई पड़ते हैं, न नशाखोरी और न ही सामाजिक बुराइयों के खिलाफ.. ऐसे युवा नेता नहीं आ रहे जो खुल कर धर्म, जातिवादी राजनीति का विरोध कर सड़कों पर उतरते हों. जो युवा राजनीति में आ रहे हैं या मौजूद हैं, वे ज्यादातर पारिवारिक राजनीतिक विरासत को जारी रखने और शासन व सत्ता का सुख भोगने के लिए हैं.

यही वजह है कि देश के युवा अपने राजनीतिक नेतृत्व की कमी में पुराने विचारों से हांके जा रहे हैं.

वे मंदिर निर्माण, रथयात्राओं के पीछे, गौरक्षा की गुहार लगाते हुए हिंसा पर उतारू दिखाई दे रहे हैं. वे सड़ीगली हिंदुत्ववादी संस्कृति के पहरेदार बने हुए हैं.

धार्मिक युवाओं का महत्त्व

भारतीय राजनीति लकीर की फकीर बनी रहना चाहती है. यह यों ही नहीं है. भाजपा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नहीं चाहता कि ऐसे नए युवा आगे आएं, जो जाति, धर्म की प्राचीन व्यवस्था को नकारें और पुराणों के मिथकों की जगह विज्ञान की सचाई को वरीयता दें.

पौराणिक कथाओं को विज्ञान के आविष्कारों से जोड़ बताने वाले त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लव कुमार और महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस युवा राजनीति की संघीभाजपाई मिसाल हैं.

उधर, कांग्रेस भी इस मामले में भाजपा की ही बहन है. वह भी पार्टी में संस्कारी ब्राह्मणवादी युवाओं को ही आगे लाती है. दोनों ही पार्टियों में युवा चाहे किसी भी जाति के हों, तिलक लगाए, बातबात में धर्म, ईश्वर और अवतारों के किस्से जबान पर रखे हुए हिंदू संस्कृति, संस्कारों का जप करते हैं.

राजनीति में परिवर्तनकारी विचारों के अगुआ कन्हैया कुमार, हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी, चंद्रशेखर रावण जैसे युवा नेताओं को पीछे धकेलने में कांग्रेस और भाजपा पूरी ताकत से मिल कर जुटी नजर आती हैं.

ऐसा इसलिए है, क्योंकि युवाओं को शिक्षादीक्षा धर्म के बुजुर्ग नेता ही दे रहे हैं. यही वजह है कि राजनीति में पुराने नेताओं का दबदबा कायम है.

‘अग्निपथ’ योजना से सरकार ने उन युवाओं को भी निराश कर दिया है, जो सेना में आगे बढ़ कर कुछ करना चाहते थे. सरकारी नौकरियों में भी युवा अपना दमखम नहीं दिखा सकते हैं, क्योंकि नौकरियां हैं ही नहीं. अब तो युवा सिर्फ पकौड़े बेचेंगे.

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