आम औरतों के लिए घर की चारदीवारी बनी रहे, यह सब से बड़ी नियामत होती है और इसीलिए करोड़ों औरतें अपने शराबी, पीटने वाले, निकम्मे, गंदे, बदबूदार मर्द को झेलती ही नहीं हैं, उसे कुछ होने लगे तो बचाने के लिए जीजान लगा देती हैं. औरतों में मांग में सिंदूर की इतनी ज्यादा इच्छा रहती है कि वे घर छोड़ कर चले गए और दूसरी औरत के पास रहने वाले पति को भी अपना मर्द मानती हैं.
इस की वजह साधारण है. यह कोई त्याग का मामला नहीं है और न ही पति से प्यार का है. हर औरत को बचपन से सिखा दिया जाता है कि मर्द नाम की हस्ती ही उस को दुनिया से बचा सकती है और यह बात उस के मन में इस कदर बैठ जाती है कि चाहे मर्द के दूसरी औरतों के साथ संबंध बनें या खुद औरत के दूसरे मर्दों से संबंध बने हों, वे शादी का ठप्पा नहीं छोड़ पातीं. इस का कहीं कोई फायदा होता है, ऐसा नहीं लगता. यह शादी का बिल्ला, ये हाथ की चूडि़यां, यह मांग का सिंदूर असल में औरतों की गुलामी की निशानी बन जाता है जिस का मर्द, उस का परिवार और दूसरे लोग खूब जम कर फायदा उठाते हैं.
अगर औरत चार पैसे कमा रही है तो उस के पास एक पैसा नहीं छोड़ा जाता. अगर वह अकेले रह रही है तो साजिश के तौर पर दूसरे मर्द उस से अश्लील मजाक करने लगते हैं ताकि वह जैसे भी उसी मर्द की छांव में चली जाए. हर कानून में लिखा गया है कि मर्द का नाम बीवी के साथ लिखा जाएगा जबकि मर्द की पहचान उस के पिता से होती है. समाज ने इस तरह के फंदे बना रखे हैं कि पति को छोड़ चुकी अकेली औरत को, चाहे किसी उम्र की हो, मकान किराए पर नहीं मिलता, रेलवे का टिकट नहीं बनता, राशनकार्ड नहीं बनता, बच्चे हैं तो स्कूल में उन्हें तब तक दाखिला नहीं मिलता, जब तक मर्द का नाम न हो.
मर्द को औरत की चाबी पकड़ाने में धर्मों ने बहुत बड़ा काम किया है. हिंदू धर्म में मर्द परमेश्वर है, इसलाम में वह जब चाहे तलाक दे दे, जब चाहे सौतन ले आए. ईसाई धर्म में ईश्वरी जोड़ा बना डाला. तीनों धर्मों ने शादी अपनी निगरानी में करवानी शुरू कर दी पर औरतों के हकों पर तीनों बड़े धर्मों ने भेदभाव खुल कर रखा.
दुनियाभर में शहरों में ही नहीं गांवों तक में वेश्याएं हैं. यह दोतरफा वार है औरतों पर. एक तो जिन्हें वेश्या बनाया जाता है, उन्हें मशीन की तरह पैसा कमाने का साधन रखा जाता है. ये गरीब घरों की ही होती हैं, जिन्हें लीपपोत कर सजाया जाता है. जैसे ही जवानी घटती है, बीमारी होती है, मरने के लिए छोड़ दिया जाता है. दूसरी तरफ मर्दों को इनाम दिया गया है कि वे अपनी बीवियों के होते हुए इन वेश्याओं के पास जा सकते हैं. किसी धर्म ने इस वेश्या बाजार को बंद नहीं किया.
जो औरत वेश्या बनती है वह सताई जाती है. जिस का मर्द वेश्या के पास जाता है वह भी लुटती है. कहीं भी मर्दों के बाजार क्यों नहीं हैं? अगर औरत मर्द की कोई जरूरत पूरी करती है तो औरतों की भी तो जरूरतें हो सकती हैं. उन्हें ऐसा करते ही मार डाला जाता है.
औरतों को आज भी किसी भी लोकतंत्र में बराबरी के हक नहीं मिल रहे. उन के सारे फैसले मर्द करते हैं या उन के खाविंद हों, समाज के नेता, धर्म के दुकानदार हों या सरकार चलाने वाले नेता, अफसर, जज, पुलिस के डंडे. इन में कहीं भी औरतों का कोई जोर नहीं, कोई दम नहीं, कोई जगह नहीं. जाहिर है, औरत को छिपने के लिए एक ही जगह छोड़ी गई है, उस का अपना शादीशुदा मर्द, वह भी एकलौता.
लोकतंत्र में या उसे वोटतंत्र कहें, औरतों के पास बराबर के हक हैं पर मजाल है कि कोई बीवी अपने मर्द की इजाजत के बिना किसी को वोट दे दे. जब वह घर से बाहर कदम नहीं रख सकती तो भला अपना नेता खुद कैसे चुन सकती है, अपना धर्म दुकानदार खुद कैसे चुन सकती है, अपना घर खुद कैसे बना सकती है. दुनियाभर के लोकतंत्र भी धर्म की आड़ में चल रहे हैं. यहां तो बहुतकुछ धर्म के नाम पर ही हो रहा है. धर्म कायम है तो औरतों की गुलामी कायम है, रही थी और रहेगी.