राहुल तिवारी: वेटर से फिल्म एडिटर…

राइटर- सुनील शर्मा

जब भी फिल्मों की बात होती है, तब आम लोगों का ध्यान स्टार हीरो हीरोइन समेत दूसरे बड़े कलाकारों पर ही रहता है, पर जब कभी किसी फिल्म की समीक्षा की जाती है, तब यह भी देखा जाता है कि अमुक फिल्म के एडिटर ने कैसी काटछांट की है और उस पर फिल्म को उम्दा बनाने का सब से ज्यादा बोझ रहता है, क्योंकि जब कोई फिल्म बनती है तब उस की लंबाई बहुत ज्यादा होती है, पर उसे रोचक कैसे रखना है और किस सीन पर पब्लिक सीटी बजाएगी और किस सीन पर सिर पीट लेगी, इस की पूरी समझ एडिटर को होनी चाहिए.

आज हम आप की मुलाकात एक ऐसे ही फिल्म एडिटर राहुल तिवारी से कराते हैं, जिन की जिंदगी का सफर भी फिल्मी रहा है. एक समय मुंबई में गुजरबसर करने के लिए उन्होंने फिल्म कलाकारों को वेटर के रूप में खाना भी खिलाया है. आज उन्हीं के बीच वे फिल्म की एडिटिंग करते हैं, अपनी अदाकारी का हुनर दिखाते हैं और डायरैक्टर की सीट पर भी बैठते हैं. वे उन लोगों को चुप करा देते हैं, जिन्होंने बचपन में उन्हें ‘नचनिया’ कहा था.

‘नचनिया’ क्यों कहा

राहुल तिवारी का जन्म 2 दिसंबर, 1982 को इलाहाबाद के एक आम परिवार में हुआ था. उन के पिता की एक साधारण सी नौकरी थी. उन की प्राइमरी तक की पढ़ाई सरस्वती शिशु मंदिर से हुई थी और आगे 12वीं तक की पढ़ाई केंद्रीय विद्यालय से की थी. उन्होंने ग्रेजुएशन पूर्वांचल यूनिवर्सिटी से की थी, पर उन का रझान बचपन से ऐक्टिंग की तरफ रहा था, तभी तो उन्होंने ‘इलाहाबाद उत्तरमध्य सांस्कृतिक केंद्र’ से थिएटर किया था. इस के बाद वे इलाहाबाद आकाशवाणी से जुड़े, जहां वे कवि गोष्ठी, नाटक वगैरह करते थे. राहुल तिवारी ने बताया, ‘‘जब से मैं खुद को जानता हूं, तब से मेरे भीतर सिनेमा को ले कर लगाव है. मुझे फिल्म डायरैक्टर बनना था और अच्छा डायरैक्टर बनने के लिए फिल्म एडिटिंग भी आनी चाहिए. ‘‘मैं ने बचपन में स्कूल का कोई नाटक नहीं छोड़ा. मेरा नाम पहले से ही लिस्ट में शामिल होता था. 26 जनवरी, 15 अगस्त पर मैं भाषण देता था. मैं ने तब परेड को लीड किया. मैं बिगुल और ड्रम अच्छा बजाता था. कहीं न कहीं मेरे भीतर एक कलाकार था. ‘‘पर, उन्हीं दिनों मेरे आसपास के बहुत से लोग मुझे ‘छिछोरा’ और ‘नचनिया’ समझते थे, क्योंकि मैं नाटकों में ऐक्टिंग करता था. मु झे ‘भड़वा’ तक कहा गया. नुक्कड़ नाटकों में रोड पर नाचगाना होता था और अगर कोई मेरा परिचित देख लेता था, तो घर जा कर बता देता था कि आप का लड़का तो ‘भड़वागीरी’ करता है. ऐसी चीजें मुझे दर्द देती थीं. ‘‘पता नहीं क्यों लोगों की नजरों में मैं ‘आवारा’ था. जब मैं ने मुंबई आने की बात की, तब और जब मेरी शादी होने वाली थी, तब भी लोग मुझे ‘आवारा’ ही बोलते थे, जबकि स्कूल में मैं अच्छा छात्र था.’’

मुंबई में वेटरगीरी अपने स्ट्रगल के दिनों को याद करते हुए राहुल तिवारी ने बताया, ‘‘मैं मुंबई आ तो गया था, पर यहां रहना इतना आसान नहीं है. अगर कोई जुगाड़ नहीं है तो बहुत तकलीफ होती है. शुरूशुरू में मैं भूखा रहा, कम खा कर रहा.’’ उन्होंने आगे बताया, ‘‘पहले एक साल तक (साल 2000 में) मैं ने जुहू में एक मिलिटरी क्लब में बतौर वेटर का काम किया. अगर आप को फिल्म इंडस्ट्री में कुछ पाना है, तो साइड वर्क करना पड़ेगा. इसी दौड़ में मैं ने फिल्म एडिटिंग को सीखा. कोई एडिटिंग स्टूडियो वाला पूरे दिन का 10 रुपए दे देता था, कोई सिर्फ खाना खिला देता था और रातभर मैं उस का सीरियल, फिल्म लाइनअप करता था, औडियो मिलाता था, एडिट करता था. ‘‘6-7 साल तक जब तक मैं असिस्टैंट रहा, तब तक बहुत तकलीफ झेली. लोग मुझे पैसे नहीं देते थे, मैं मुंबई के झोंपड़े में रहा, पर हर पल मुझे कुछ पाने की तमन्ना थी, जिसे मैं ने कभी मरने नहीं दिया.’’ धीरेधीरे मिला काम राहुल तिवारी ने अपने अब तक के सफर में बताया, ‘‘मैं ने फिल्म ‘सरकार’ का ट्रेलर एडिट किया था. मैं रामगोपाल वर्मा की फिल्म ‘कंपनी’ का क्रिएटिव डायरैक्टर रहा. मैं ने हीरोइन ऋषिता भट्ट की फिल्म ‘ऐक्स जोन’ एडिट की थी. मैं फिल्म ‘जीनियस’ में एसोसिएट था. मैं ने ‘द लास्ट सेल्समैन’ का ट्रेलर एडिट किया है. ‘रेस 2’ का मैं ने ट्रेलर एडिट किया. ‘जेम्स’, ‘बनारस’ और ‘आमो आखा एक से’ फिल्में की थीं. ‘‘ऐक्टर नवाजुद्दीन सिद्दीकी की निर्माण की हुई फिल्म ‘मियां कल आना’ को मैं ने एडिट किया था, जिस के डायरैक्टर शमास नवाब सिद्दीकी थे, जिसे ‘कांस फिल्म फैस्टिवल’ में तारीफ मिली थी. मशहूर ईरानी डायरैक्टर माजिद मजीदी ने यह फिल्म देख कर कहा था कि यह तो एडिटर की ही फिल्म है. ‘‘सीरियल ‘भाग्य विधाता’ में मैं ने बतौर विलेन काम किया था. वैब सीरीज ‘ह्यूमन’ में मैं हीरोइन कीर्ति कुल्हारी का पिता बना हूं. अभी अजय देवगन की आने वाली एक फिल्म ‘मैदान’ में मुझे छोटा सा किरदार भी मिला है.’’ एडिटिंग की अहमियत राहुल तिवारी के मुताबिक, ‘‘अच्छा एडिटर जानता है कि उसे कैसे कहानी को, कैसे संवाद को, कैसे सीन को, कैसे कलाकार के काम को तराश कर एडिट करना है, उसे सीन वाइज सजाना है. एडिटर को इन सारी बातों का ध्यान रखना पड़ता है. इस काम को करने में उसे पूरी छूट मिलनी चाहिए. ‘‘जहां तक मेरी बात है, तो मैं डायरैक्टर के सामने अपना पक्ष रखता हूं. किस सीन को हटाना है, किस संवाद को रखना है, फिल्म की लंबाई कितनी रहनी चाहिए, इस का ध्यान बहुत ज्यादा रखना पड़ता है. ‘‘अनिल शर्मा की फिल्म ‘जीनियस’ की एडिटिंग में मेरी उन से काफी बहस भी हुई थी कि फिल्म की लंबाई इतनी ज्यादा न हो जाए कि दर्शक बोर फील करें.

अच्छा एडिटर फिल्म को शानदार बना देता है और बुरा एडिटर फिल्म को कूड़ा कर सकता है.’’ कोरोना काल और मुसीबतें राहुल तिवारी ने कोरोना काल का अपना अनुभव साझा करते हुए बताया, ‘‘इस बुरे दौर में यह जरूर समझ में आया कि आप का परिवार और चंद लोग ही अपने होते हैं, जो मुश्किल समय में आप के साथ खड़े होते हैं. सोशल मीडिया पर ‘वैरी गुड’ या ‘नाइस’ का कमैंट कह देने से कोई आप का हमदर्द नहीं हो जाता है. सुखदुख में तो घूमफिर कर 20-25 लोग ही जीवन में आप के साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़े होते हैं. कोरोना काल में ऐसे ही लोग एकदूसरे का हौसला बढ़ाते दिखे. ‘‘इतना ही नहीं, लोग कोरोना काल में कुदरत से जुड़े और उस की अहमियत को समझ . जब सबकुछ बंद हो गया था, तब पर्यावरण एकदम साफ हो गया था. जहां मैं रहता हूं, वहां पहले चिडि़या के चहचहाने की आवाज नहीं आती थी, लौकडाउन में मैं ने वह सब सुना. ‘‘कोरोना काल में मैं ने सोशल मीडिया के जरीए जरूरतमंद लोगों को बताया कि अगर किसी को भी खानेपीने की कोई दिक्कत हो, तो उसे खाना उपलब्ध करा दिया जाएगा. अपने दोस्तों से भी कहा कि जितना आप से हो सकता है, लोगों की मदद करें. ‘‘दिक्कत यह भी है कि फिल्म इंडस्ट्री वालों को सरकार की तरफ से कोई सुविधा नहीं मिलती है. घर, मैडिकल आदि की बेसिक सुविधा तक नहीं है. जो हमारा तथाकथित बौलीवुड है न, यह चंद स्टारों से नहीं बना है. इस में हजारोंलाखों टैक्नीशियन भी हैं. ‘‘चंद बड़े सितारों को कोरोना से कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि उन के पास तो इतना पैसा है कि अगले 50-100 साल भी खत्म न हो. ‘‘उन की कई पीढि़यां जी सकती हैं, लेकिन बाकी जो छोटे कलाकार, लेखक, एडिटर, डायरैक्टर, म्यूजिशियन, आर्ट डायरैक्टर, स्पौटबौय, मेकअपमैन वगैरह बहुत सीमित पैसों में जीवनभर रहते हैं, रोजाना खातेकमाते हैं, जबकि हमारी सरकार उन्हें कोई छोटी सी भी सुविधा नहीं देती है. ‘‘अपने ही एक उदाहरण से बताता हूं कि हाल ही में मैं ने एक वैब सीरीज ‘ह्यूमन’ में अभिनय किया था, जिस के विपुल अमृतलाल शाह डायरैक्टर थे. इस की शूटिंग के लिए मैं मुंबई लोकल ट्रेन से जा रहा था. चूंकि कोरोना में तकरीबन सब बंद था, तो मैं ने अपनी फिल्म एसोसिएशन का कार्ड टिकट कलक्टर को दिखाया और टिकट मांगा तो उस ने टिकट देने से मना कर दिया और मुझ पर हंसा भी कि यह सब क्या है. उस कार्ड की उस ने कोई वैल्यू नहीं समझ‘‘दरअसल, जो हमारी एसोसिएशन है न, वह बहुत ही कमजोर है और हमारी सरकार को इसे इंडस्ट्री का दर्जा देना चाहिए. बौलीवुड समाज को मनोरंजन देता है, लाखों लोगों को रोजगार देता है, अगर समाज से फिल्में छीन ली जाएं, संगीत बंद कर दिया जाए, तो समाज कहीं न कहीं बेरंग हो जाएगा. हम उस में रंग भरते हैं. लिहाजा, हिंदी फिल्मों से जुड़े लोगों को बेसिक सुविधाएं तो सरकार को देनी ही चाहिए.’’ कुछ यादगार पल अपने फिल्मी सफर के कुछ यादगार पलों को याद करते हुए राहुल तिवारी बताते हैं, ‘‘मैं ने फिल्म डायरैक्टर अशोक गायकवाड़ के साथ काम की शुरुआत की थी. उन्होंने ‘दूध का कर्ज’, ‘राजा की आएगी बरात’, ‘इज्जत’ व ‘गैर’ जैसी फिल्मों का डायरैक्शन किया है. वे मेरे गुरु हैं. उन के साथ मेरा बहुत अच्छा समय बीता. ‘‘इस के अलावा फिल्म डायरैक्टर शाहरुख मिर्जा साहब, जिन्होंने ‘सलामी’ फिल्म बनाई थी, से मेरा दोस्ताना संपर्क रहा है. वे मेरे लिए खरीदारी तक करते थे. कपड़े लाते थे. मेरे पैर का नंबर पूछ कर जूता खरीद कर लाते थे. वे अपने बेटे की तरह मुझे चाहते थे. ‘‘वे एक फिल्म कर रहे थे, जिस में महेश भट्ट साहब प्रोड्यूसर थे. एक बार हमें उन के साथ मीटिंग करनी थी. इस के बाद शूटिंग करने के लिए कनाडा जाना था. ‘‘जब महेश भट्ट साहब आए, तो शाहरुख मिर्जा साहब ने मेरा नाम ले कर कमरे में बुलाना चाहा, तो भट्ट साहब ने कहा कि यहां पर हम दोनों के अलावा कोई तीसरा नहीं बैठेगा. उन्हें एकांत चाहिए था. उन्हें खास लोगों के बीच ही बैठना पसंद था. पर शाहरुख मिर्जा साहब ने कहा कि यह मेरा एडिटर है और यह भी बैठेगा और आप को अच्छा लगेगा. ‘‘जब मैं उन के बीच गया, तो भट्ट साहब ने एक बार तो मुझे देखा ही नहीं, फिर धीरेधीरे सीन पर बातें होने लगीं. हालांकि वह फिल्म बन नहीं पाई, क्योंकि शाहरुख मिर्जा साहब का अचानक निधन हो गया था, पर भट्ट साहब से हुई मेरी वह मुलाकात यादगार रही थी. ‘‘ऐसे ही जब मैं जुहू मिलिटरी क्लब में वेटर था, तब मैं ने नाना पाटेकर, आमिर खान और उन के पिता ताहिर हुसैन, शिल्पा शेट्टी, आयशा जुल्का, मिथुन चक्रवर्ती, रमेश सिप्पी, जीपी सिप्पी, जैकी श्रौफ, अनिल कपूर, प्रियंका चोपड़ा, ऐश्वर्या राय के अलावा और भी न जाने कितने कलाकारों को खाना खिलाया था, डांट भी खाई थी. ‘‘फिर उन्हीं लोगों के बीच मैं बतौर एडिटर भी बैठा. वे हैरान हो जाते थे कि एक वेटर अब फिल्म एडिटिंग भी कर रहा है. पर मुझे तो फिल्म इंडस्ट्री में किसी तरह बने रहना था. घर से पैसे नहीं आते थे, क्योंकि मेरे पिताजी उत्तर प्रदेश जल निगम में छोटी सी नौकरी में थे. ‘‘पर, मैं इतना जरूर कहूंगा कि अगर आप को अपना मुकाम हासिल करना है, तो किसी भी काम को करने में हिचक महसूस न करें. मैं शाम को 6 बजे से ले कर रात के साढ़े 12 बजे तक वेटर का काम करता था और दिन में फिल्म इंडस्ट्री में काम मांगता था. ‘‘सच कहूं, तो मेरी यही स्ट्रगल आज मुझे इस मुकाम तक लाई है. अभी तो मुझे बड़ीबड़ी फिल्में बनानी हैं. मैं अपनी फिल्म ‘यूपी’ और ‘अमेरिका कहां है’ को बनाना चाहता हूं. जल्द ही मेरी एक शौर्ट फिल्म ‘राजवीर’ भी रिलीज होने वाली है, जिस में मैं ने क्रिएटिव डायरैक्शन व एडिटिंग तो की ही है, लीड रोल भी मेरा ही है.’’

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