रेटिंग: दो स्टार
निर्माताः जंगली पिक्चर्स
निर्देषकः अनुभूति कष्यप
कलाकारः आयुष्मान खुराना, रकूल प्रीत सिंह,षेफाली छाया, शीबा चड्ढा व अन्य
अवधिः दो घंटे चार मिनट
आयुष्मान खुराना हमेशा लीक से हटकर व समाज में टैबू समझे जाने वाले विषयों पर आधारित फिल्मों में अभिनय करने के लिए जाने जाते हैं.एक बार फिर आयुश्मान ख्ुाराना ने इसी तरह की एक अलहदा विषय वाली फिल्म ‘‘डाक्टर जी’’ में अभिनय किया है, जिसका निर्देशन अनुभूति कश्यप ने किया है.फिल्म ‘डाक्टर जी’ एक ऐसे पुरुष की है,जो स्त्री रोग विशेषज्ञ की पढ़ाई नही करना चाहता.उसका मानना है कि यह क्षेत्र तो लड़कियों के लिए है.इसी के साथ इसमें ‘लिंग भेद’ का मुद्दा भी उठाया गया है.मगर यह फिल्म और इस फिल्म में आयुश्मान खुराना निराष करती है.भारतीय समाज में ‘लिंग भेद’ आम बात नही है.इस पर सैकड़ांे फिल्में अलग अलग अंदाज मंे बन चुकी हैं.इसी तरह फिल्म की निर्देशक अनुभूति कश्यप को शायद पता नही कि एक पुरुष का ‘स्त्रीरोग विशेषज्ञ डाक्टर बनना ‘टैबू’ नही रहा.अब लड़कियां भी इंजीनियर बन रही हैं.तो वहीं कई स्त्री रोगविशेषज्ञ डाक्टर पुरूष हैं.शायद निर्देशक को पता ही नही है कि दक्षिण मंुबई में पिछल तीस वर्षों से भी अधिक समय से डाॅं पुरंदरे स्त्री रोग विशेषज्ञ के रूप में बहुत बड़ी हस्ती रहे हैं.इतना ही नही सिर्फ गांवदेवी,मंुबई में ही बीस से अधिक स्त्री रोग विशेषज्ञ डाक्टर पुरूष हैं.
कहानीः
फिल्म की कहानी के केंद्र में भोपाल के डाक्टर उदय गुप्ता (आयुश्मान खुराना) हैं. जिन्हे एमबीबीएस करने के बाद आर्थोपेडीशियन बनना है,मगर रैंकिंग कम होने के चलते उन्हे आर्थोपैडिक कालेज में प्रवेष नहीं मिल रहा है.वह भोपाल में अपनी मां लक्ष्मी देवी गुप्ता (शीबा चड्ढा)के साथ रहते हैं.उनके घर में एक लड़का किराएदार है,जो कि आईएएस की तैयारी कर रहा है.इस लड़के के शरीर पर बनियान या षर्ट कभी नजर नही आती.उदय की मंा ने अकेले अपने दम पर उदय को पाला है.अब उम्र के दूसरे पड़ाव पर पहुॅचने के बाद उनके मन में भी पुरूष के साथ की इच्छा बलवती होती है.वह यूट्यूब पर रेसिपी का चैनल चलाने का प्रयास करती नजर आती हैं.डा.उदय का एक विवाहित भाई डाक्टर अषोक है,जो कि आर्थोपैडिक सर्जन है और उसका अपना क्लीनिक,पत्नी व दो बच्चे हैं.लेकिन डाक्टर अशोक बारहवीं में पढ़ रही और पीएमटी की तैयारी कर रही काव्या संग अफेयर है.डा. उदय का अफेयर डाॅं. रिचा से है,जो कि अब टूट चुका है.
डा.अशोक की सलाह पर डाॅ. उदय बेमन से एक साल बर्बाद होने से बचाने के लिए भोपाल के मेडिकल कालेज में गायनकोलाजिस्ट / स्त्री रोग विभाग में प्रवेश ले लेता है.जहंा मेडिकल इथिक्स का सख्ती से पालन करने वाली डाॅ.नंदिनी श्रीवास्तव (शेफाली शाह ) हैं.डाॅं.उदय को ‘स्त्री रोग विशेषज्ञ नही बनना है,इसलिए कुछ सीखने या किसी काम को सही ढंग से करने में उनकी कोई रूचि नही है.पर उन्हे अपनी सहकर्मी डाॅ. फातिमा सिद्दिकी (रकूल प्रीत सिंह ) से प्यार हो जाता है.डाॅ. फातिमा के उकसाने पर डाॅ. उदय ‘स्त्री रोग ’ विशेेषज्ञ के रूप में कई अच्छे आपरेशन कर लेते हैं.उधर डाॅ. अशोक चाहते हैं कि उनसे गभर््ावती हुई काव्या शर्मा का गर्भपात चोरी छिपे डाॅं. उदय कर दें,जो कि अंततः डाॅ. उदय करते हैं.पर काव्या के नाबालिग होने के चलते पुलिस केस बन जाता है.कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं.
लेखन व निर्देशनः
‘गैंग्स आफ वासेपुर’,‘देव डी’ सहित कई फिल्मों के निर्देशक अनुराग कश्यप की बहन और उनके साथ सहायक निर्देशक के रूप में काम करती आ रही अनुभूति कश्यप पहली बार ‘डाक्टर जी’ से स्वतंत्र निर्देशक बनी हैं.और अपनी पहली फिल्म में उन्होने काफी निराश किया है.फिल्म देखकर इस बात का अहसास होता है कि अनुभूति कश्यप ने स्वतंत्र निर्देशक के रूप में एक ऐसा विषय उठाया है,जिस पर उनका अपना ज्ञान काफी कम है.इंटरवल से पहले फिल्म कछुए की चाल चलते हुए नीरस दृश्यों की वजह से इस कदर बोर करती है कि दर्शक सोचने लगता है कि अब इसे न देखा जाए.हकीकत में पूरी फिल्म बिखरी हुई है.निर्देशक यही तय नही कर पायी है कि उन्हे फिल्म में किस मुद्दे पर बात करनी है.निर्देशिका ने एक लड़के का ‘स्त्रीरोग विभाग’ में काम करने का संघर्ष , अधेड़ उम्र में सिंगल मां की अपनी ख्वाहिशें,‘लिंग भेद’,कालेज में होने वाली रैगिंग,मेल टच सहित कई मुद्दों को उठाया है.‘औरत का जो काम है, उसे मर्द नहीं कर सकते. मर्द का जो काम है,वह औरत नहीं कर सकती.’इसे भी वह ठीक से चित्रित नही कर पायीं.
निर्देशिका ने पुरूष व स्त्री को लेकर सामाजिक पूर्वाग्रहों को महज कुछ संवाद डालकर इतिश्री समझ ली.मसलन- आयुष्मान ख्ुाराना का एक संवाद है-‘हमारे मोहल्ले में लड़के क्रिकेट खेलते हैं और लड़कियां बैडमिंटन‘.अफसोस फिल्म के ज्यादातर संवाद स्तरहीन हैं.बेवजह ‘हे राम’ और ‘अल्लाह’ शब्द भी पिरो दिए गए हैं.मुस्लिम लड़की के मुॅह से ‘हे राम’ और हिंदू लड़के के मंुॅह से ‘अल्लाह’ षब्द बुलवाकर निर्देषिका क्या संदेश देना चाहती हैं,यह तो वही जाने.
आईएएस करने वाले लड़के की कहानी का ट्ैक जबरन ठॅॅंूसा हुआ लगता है.इसी तरह डाॅ. अशोक व काव्या शर्मा की कहानी का ट्ैक भी जबरन ठॅूंसा हुआ है.पूरी फिल्म में यह स्पष्ट नही है कि डाॅ.उदय, डां. अशोक को अपना बड़ा भाई क्यों कहते हैं? किसी भी किरदार को ठीक से रेखंाकित ही नही किया गया.शायद फिल्म की सह लेखक व निर्देशक अनुभूति कश्यप को ख्ुाद नहीं पता है कि वह इस फिल्म के माध्यम से कहना क्या चाहती हैं.वह पूरी तरह से इस कदर दिग्भ्रमित हैं कि उन्होने एक अति बोर करने वाली फिल्म दर्शकों को परोस दी.फिल्म में अश्लील व द्विअर्थी संवाद भी अखरते हैं.फिल्म का क्लायमेक्स भी काफी गड़बड़ है.
लेकिन फिल्म दो मुख्य मुद्दें जरुर समझाने में सफल रही है कि पुरूष डाक्टर को एक महिला,फिर चाहे वह नर्स ही क्यों न हो,की मौजूदगी मंे ही औरत का परीक्षण करना चाहिए.इसके अलावा नाबालिग लड़की का गर्भपात करते समय सभी प्रोटोकाॅल का पालन किया जाना चाहिए.मगर फिल्म यहीं पर चूक जाती है कि नाबालिग लड़की की सहमति से बने सेक्स संबंध में लड़की के गर्भवती हो जाने व गर्भपात कराने की नौबत आने पर किसे दोषी माना जाए? इसके अलावा इसका एक नाबालिग लड़की के दिमाग पर क्या असर पड़ता है? इस पर उभी यह फिल्म मौन रहती है.
फिल्म के कुछ दृश्य काफी आपत्तिजनक हैं.जिसमें से एक प्रसव पीड़िता महिला का अस्पताल के बरामदे में ही खुले आम सैकड़े पुरूषों व महिलाओं की मौजूदगी में डॅंा. उदय द्वारा प्रसव करवाना और नर्स का बच्चे को निकालना..क्या उस वक्त एक परदा नही लगना चाहिए था? सेंसर बोर्ड का इन दृश्यों की अनदेखी समझ से परे है.
फिल्म खत्म होने के बाद एक गाना ‘‘दिल धक धक करता..’’आता है,जिसमें आयुष्मान ख्ुाराना के साथ कम वस्त्रों में अपनी छाती को फुलाते हुए नृत्य करते हुए फिल्म में कहीं गयी सारी बातों को गलत साबित कर देता है…अब इसे क्या कहा जाए..