दलित समाज: एक पिछड़ा वर्ग

कांवड़ ढोने, मंदिरों में लंगरोंके बाद फैली पत्रलों को बटोरने वाले, मंदिरों और मठों के बाहर की सफाई करने वाली दलित धर्म और मंदिरों के लिए जरूरी हैं पर अगर जो जोशीमठ धंस रहा है और उस में उन की बल्लियां भी धंस रही हैं तो यह उन के पिछले जन्मों के कर्मों का फल है, सरकारी, प्रशासन, तिलकधारी उन को न सहायता देंगे, न फिर बसाएंगे.

उत्तराखंड के जोशीमठ शहर में चल रहे राहत के काम में वहां की गांधी के कालोनी के लोगों को न रजिस्टर किया जा रहा और न पूरी सहायता दी जा रही है क्योंकि वे शड्यूल कास्ट हैं, रामचरित मानस ने जिस अब फिर चर्चा में आए ढोर, गंवार, शूद्र, पशु अब नारी दोहन उस हर जने की ताकत का स्रोत है जो किसी ओहदे पर बैठा है.

असल में ङ्क्षहदूमुसलिम झगड़ा इसीलिए खड़ा किया जाता है कि शूद्र यानी पिछड़े ओबीसी अपना हक मांगते हुए तुलसीदास के कानून को याद रखें. उन्हें पीटना चाहिए. दिया नहीं जाने चाहिए. तुलसीदास ने तो उन दलितों की तो बात भी नहीं की जो जोशीमठ की गांधी कालोनी में रहते हैं. दलितों की बात तो पूरे पौराणिक साहित्य में न के बराबर की गई है.

पिछड़े और दलित उलझे रहें और पिछड़े लठैत एससी दलितों को दबा कर रखते रहें इसलिए उन्हें भगवा टुपट्टे दे दिए है और नारे मुसलमानों के खिलाफ दिए हैं. इस शोर में कि दलितों का रोल किसे सुनाई देगा. संविधान ने इन के लिए खास जगह अंबेडकर गांधी के पूना पैक्ट के हिसाब से बनाई पर वह जमीन पर लागू नहीं हो पाती. दलितों की बस्तियां हर शहर में कूढ़े के ढेरों की तरह दिखती हैं. उन के मायावती और प्रकाश अंबेडकर जैसे नेता भी अपने सुखों की खातिर में खुद को कभी इस पार्टी को तो कभी उस पार्टी को भेंट करते रहते हैं. जोशीमठ में उन के साथ क्या हो रहा है. इस पर किसी के आंसू नहीं बह रहे जबकि वहां के धंसने से परेशान ऊंचे लोगों का पैसा, जमीन, चिकित्सा सब दिया जा रहा है.

ये वे दलित है जिन्हें उत्तराखंड के मंदिरों में आज भी घुसने नहीं दिया जाता. यह बात दूसरी है कि वे अगर घुस भी जाएं तो अपनी जेब ढीली करके आएंगे क्योंकि मूॢतयां तो भोगती हैं, देती नहीं. ये मूॢतयों के नाम पर कुछ को सजा मिलती है, कुछ के व्यापार चमकते हैं, कुछ जमीनें हड़पते हैं, कुछ अंधभक्तों को लूटने का लाइसेंस पाते हैं. दलितों को मूॢतयों से क्या मिलेगा जब मूॢतयों के नाम ही उन्हें ढोर, गंवार, शूद्र और पशु भी मानने को तैयार नहीं हैं.

लैक्ट कहे जाने वाले ऊंची जातियों के युवाओं को जो लोग हर समय गालियां देते हैं क्योंकि वे अंधभक्ति को नकारते हैं और हिमालय को बनाना चाहते हैं, वे भला उन दलितों की क्या सुनेंगे जो हजारों सालों से बात करने लायक भी नहीं समझे गए. बाहरी आक्रमण करने वालों ने उन को बराबर का दर्जा दिया, काम दिया, मौका दिया पर जब फिर ऊंची जातियों की सरकारें या ऊंचे राजा रजवाड़ों का युग आया, उस से सब कुछ छीन लिया गया.

देश भर में जो बुल्डोजर झुग्गियों पर चलते हैं उन में आमतौर पर यही लोग रहते हैं और अगर ङ्क्षजदा रहते हैं तो इसलिए कि वे ऊंचों की सेवा कर सकें. जोशीमठ के घंसने के समय उन की सेवा ऊंचे करेंगे, यह उम्मीद करना ही बेवकूफी है.

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