तबीयत कैसी है मां?’’ दयनीय दृष्टि से देखती भाग्यश्री ने पूछा.

मां ने सिर हिला कर इशारा किया, ‘‘ठीक है.’’ कुछ पल मां जमीन की ओर देखती रही. अनायास आंखों से आंसू की  झड़ी  झड़ने लगी. सुस्त हाथों को धीरेधीरे ऊपर उठा कर अपने सिकुड़े कपोलों तक ले गई. आंसू पोंछ कर बोली, ‘‘प्रकृति की मरजी है बेटा.’’

परिवार के प्रति आक्रोश दबाती हुई भाग्यश्री ने कहा, ‘‘प्रकृति की मरजी कोई नहीं जानता, किंतु तुम्हारे लापरवाह बेटे को सभी जानते हैं और… और पिताजी की तानाशाही. दोनों के प्रति तुम्हारे समर्पित भाव का प्रतिदान तुम्हें यह मिला कि तुम दोनों की मानसिक चोट से आहत हो कर यहां तक  पहुंच गईं? जिंदगी जकड़ कर रखना चाहती है, लेकिन मौत तुम्हें अपनी ओर खींच रही है.’’

मां ने आहत स्वर में कहा, ‘‘क्या किया जाए, सब समय की बात है.’’

भाग्यश्री ने अपनी आर्द्र आंखों को पोंछ कर कहा, ‘‘दवा तो ठीक से ले रही हो न, कोई कमी तो नहीं है न?’’

पलभर मां चुप रही, फिर बोली, ‘‘नहीं, दवा तो लाता ही है.’’

‘‘कौन? बाबू?’’ भाग्यश्री ने पूछा.

‘‘और नहीं तो कौन, तुम्हारे पिताजी लाएंगे क्या, गोबर भी काम में आ जाता है, गोथठे के रूप में. लेकिन वे? इस से भी गएगुजरे हैं. वही ठीक रहते तो किस बात का रोना था?’’ कुछ आक्रोश में मां ने कहा.

भाग्यश्री सिर  झुका कर बातें सुनती रही.

‘‘और एक बेटा है, वह अपनेआप में लीन रहता है, कमरे में  झांक कर भी नहीं देखता. आने में देरी हो जाए, तो मन घबराता है. देरी का कारण पूछती हूं, तो बरस पड़ता है. घर में नहीं रहने पर इधर बाप की चिल्लाहट सुनो और आने पर कुछ पूछो, तो बेटे की  िझड़की सुनो. बस, ऐसे ही दिन काट रही हूं,’’ आंसू पोंछती हुई मां ने कहा, ‘‘हां, लेकिन सेवा तुम्हारे पिताजी करते हैं मूड ठीक रहा तो, ठीक नहीं तो चार बातें सुना कर ही सही, मगर करते हैं.’’

भाग्यश्री ने कई बार सोचा कि मां की सेवा के लिए एक आया रख दे, मगर इस में भी समस्याएं थीं. एक तो यह कि इस माहौल में आया रहेगी नहीं, हरवक्त तनाव की स्थिति, बापबेटे के बीच वाकयुद्ध, अशांति ही अशांति. स्वयं कुछ भी खा लें, मगर आया को तो ढंग से खिलाना पड़ेगा न. दूसरा यह कि भाग्यश्री की सहायता घरवाले स्वीकार करेंगे? इन सब कारणों से वह लाचार थी. वह मां के पास बैठी थी, तभी उस के पिताजी आए. औपचारिकतावश भाग्यश्री ने प्रणाम किया. फिर चुपचाप बैठी रही.

भाग्यश्री ने अपने पिताजी की ओर देखा. उन के चेहरे पर क्रोध का भाव था. निसंदेह वह भाग्यश्री के प्रति था.

पिछले 10 वर्षों में वह बहुत कम यहां आईर् थी. जब उस ने अपनी मरजी से शादी की, पिताजी ने उसे त्याग दिया. मां भी पिताजी का समर्थन करती, किंतु मां तो मां होती है. मां अपना मोह त्याग नहीं पाई थी. शादी भी एक संयोग था. स्नेहदीप के बिना जीवन अंधकारमय रहता है. प्रकाश की खोज करना हर व्यक्ति की प्रवृत्ति है.

व्यक्ति को यदि अपने परिवेश में स्नेह न मिले तो बूंदभर स्नेह की लालसा लिए उस की दृष्टि आकाश को निहारती है, शायद स्वाति बूंद उस पर गिर पड़े. जहां आशा बंधती है, वहां वह स्वयं भी बंध जाता है. भाग्यश्री के साथ भी ऐसी ही बात थी. नाम के विपरीत विधाता का लिखा. दोष किस का है- इस सर्वेक्षण का अब समय नहीं रहा, लेकिन एक ओर जहां भाग्यश्री का खूबसूरत न होना उस के बुरे समय का कारण बना, वहीं, दूसरी ओर पिता का गुस्सैल स्वभाव भी. कभी भी उन्होंने घर की परिस्थिति को देखा ही नहीं, बस, जो चाहिए, मिलना चाहिए अन्यथा घर सिर पर उठा लेते.

घर की विषम परिस्थितियों ने ही भाग्यश्री को सम झदार बना दिया. न कोई इच्छा, न शौक. बस, उदासीनता की चादर ओढ़ कर वह वर्तमान में जीती गई. परिश्रमी तो वह बचपन से ही थी. छोटे बच्चों को पढ़ा कर उस ने अपनी पढ़ाई पूरी की. उस का एक छोटा भाई था. बहुत मन्नत के बाद उस का जन्म हुआ था. इसलिए उसे पा कर मातापिता का दर्प आसमान छूने लगा था. पुत्र के प्रति आसक्ति और भाग्यश्री के प्रति विरक्ति यह इस घर की पहचान थी.

लेकिन, उसे अपने एकांत जीवन से कभी ऊब नहीं हुई, बल्कि अपने एकाकीपन को उस ने जीवन का पर्याय बना लिया था. कालांतर में हरदेव के आत्मीय संसर्ग के कारण उस के जीवन की दिशा ही नहीं बल्कि परिभाषा भी बदल गई. बहुत ही साधारण युवक था वह, लेकिन विचारउदात्त था. सादगी में विचित्र आकर्षण था.

भाग्यश्री न तो खूबसूरत थी, न पिता के पास रुपए थे और न ही वह सभ्य माहौल में पलीबढ़ी थी. किंतु पता नहीं, हरदेव ने उस के हृदय में कौन सा अमृतरस का स्रोत देखा, जिस के आजीवन पान के लिए वह परिणयसूत्र में बंध गया. हरदेव के मातापिता ने इस रिश्ते को सहर्ष स्वीकार किया. भाग्यश्री के मातापिता ने उस के सामने कोई आपत्ति जाहिर नहीं की, मगर पीठपीछे बहुत कोसा. यहां तक कि वे लोग न इस से मिलने आए, न ही उन्होंने इसे घर बुलाया. खुश रह कर भी भाग्यश्री मायके के संभावित दुखद माहौल से दुखी हो जाती. उपेक्षा के बाद भी वह अपने मायके के प्रति लगाव को जब्त नहीं कर पाती और यदाकदा मांपिताजी, भाई से मिलने आती, किंतु लौटती तो अपमान के आंसू ले कर.

कुछ माह बाद ही भाग्यश्री को मालूम हुआ कि उस की मां लकवे का शिकार हो गई है. घबरा कर वह मायके आई. अपाहिज मां उसे देख कर रोने लगी, मानो बेटी के प्रति जितना भी दुर्भाव था, वह बह रहा हो. किंतु, पिताजी की मुद्रा कठोर थी. मां अपनी व्यथा सुनाती रही, लेकिन पिताजी मौन थे. आर्थिक तंगी तो घर में पहले से ही थी, अब तो कंगाली में आटा भी गीला हो गया था. मां के पास वह कुछ देर बैठी रही, फिर बहुत साहस जोड़ कर, मां को रुपए दे कर कहने लगी, ‘इलाज में कमी न करना मां. मैं तुम्हारा इलाज कराऊंगी, तुम चिंता न करना.’

उस की बातों को सुनते ही पिताजी का मौन भंग हुआ. बहुत ही उपेक्षित ढंग से उन्होंने कहा, ‘हम लोग यहां जैसे भी हैं, ठीक हैं. तुम्हें परेशान होने की जरूरत नहीं है. मिट्टी में इज्जत मिला कर आई है जान बचाने.’ विकृत भाव चेहरे पर आच्छादित था. कुछ पल चुप रहे, फिर उन्होंने कहा, ‘तुम्हारे आने पर यह रोएगी ही, इसलिए न आओ तो अच्छा रहेगा.’

घर में उस की उपेक्षा नई बात नहीं थी. आंसूभरी आंखों से मां को देखती हुई उदासी के साथ वह लौट गई. मातापिता ने उसे त्याग दिया. मगर वह त्याग नहीं पाई थी. इस बार 5वीं बार वह सहमीसहमी मां के घर आई थी. इस बार न उसे उपेक्षा की चिंता थी, न पिताजी के क्रोध का भय था. और न आने पर संकोच. मां के दुख के आगे सभी मौन थे.

उसे याद आई. छोटे भाई के प्रति मातापिता का लगाव देख कर वह यही सम झ बैठी थी कि यह घर उस का नहीं. खिलौने आए तो उस भाई के लिए ही. उसे याद नहीं कि उस ने कभी खिलौने से खेला भी था. खीर बनी, तो पहले भाई ने ही खाई. उस के खाने के बाद ही उसे मिली. मां से पूछती, ‘हर बार उसी की सुनी जाती, मेरी बात क्यों नहीं? गलती अगर बाबू करे तो दोषी मैं ही हूं, क्यों?’

लापरवाही के साथ बड़े गर्व से मां कहती, ‘उस की बराबरी करोगी? वह बेटा है. मरने पर पिंडदान करेगा.’ मां के इस दुर्भाव को वह नहीं भूली. पति के घर में हर सुख होने के बाद भी वह अतीत से निकल नहीं पाई. बारबार उसे चुभन का एहसास होता रहा. लेकिन अब? मां की विवशता, लाचारी और कष्ट के सामने उस का अपना दुख तुच्छ था.

कुछ पल वह मां के पास बैठी रही. फिर बोली, ‘‘बाबू कहां है?’’ बचपन से ही, वह भाई को बाबू बोलती आई थी. यही उसे सिखाया गया था.

‘‘होगा अपने कमरे में,’’ विरक्तभाव से मां ने कहा.

भाग्यश्री कमरे में जा कर बाबू के पास बैठ गई. पत्थर पर फूल की क्यारी लगाने की लालसा में उसे कुछ पल अपलक देखती रही. फिर साहस समेट कर बोली, ‘‘आज तक इस घर ने मु झे कुछ नहीं दिया है. बहनबेटी को देना बड़ा पुण्य का काम होता है.’’

बाबू आश्चर्य से उसे देखने लगा, क्योंकि किसी से कुछ मांगना उस का स्वभाव नहीं था.

‘‘क्या कहती हो दीदी? क्या दूं,’’ बाबू ने पूछा.

‘‘मन का चैन,’’ याचक बन कर उस ने कहा.

बाबू चुप रहा. बाबू के चेहरे का भाव पढ़ कर उस ने आगे कहा, ‘‘देखो बाबू, हम दोनों यहीं पलेबढ़े. लेकिन, तुम्हें याद है? मांपिताजी का सारा ध्यान तुम्हीं पर रहता था. तुम्हीं उन के लिए सबकुछ हो. उन के विश्वास का मान रख लो. मु झे मेरे मन का चैन मिल जाएगा.’’ बोलतेबोलते उस का गला भर आया. कुछ रुक कर फिर बोली, ‘‘याद है न? मां तुम्हें छिप कर पैसा देती थीं जलेबियां खाने के लिए. मैं मांगती, तो कहतीं ‘इस की बराबरी करोगी? यह बेटा है, आजीवन मु झे देखेगा.’  और मैं चुप हो जाती. मां के इस प्रेम का मान रख लो बाबू. पहले उस के दुर्भाव पर दुख होता था और अब उस की विवशता पर. दुख मेरे समय में ही रहा.’’

‘‘तुम क्या कह रही हो, मैं सम झ नहीं पा रहा हूं,’’ कुछ खी झ कर बाबू ने कहा, ‘‘क्या कमी करता हूं? दवा, उचित खानापीना, सभी तो हो रहा है. क्या कमी है?’’

‘‘आत्मीयता की कमी है,’’ भाग्यश्री का संक्षिप्त उत्तर था. ‘चोर बोले जोर से’ यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है. खी झ कर बाबू बोला, ‘‘हांहां, मैं गलत हूं. मगर तुम ने कौन सी आत्मीयता दिखाई? आज भी कोई पूछता है कि भाग्यश्री कैसी है, तो लगता है कि व्यंग्य से पूछ रहा है.’’

बाबू की यह बात उसे चुभ गई. आंखें नम हो गईं. मगर धीरे से कहने लगी, ‘‘हां, मैं ने गलत काम किया है. तुम लोगों के सताने पर भी मैं ने आत्माहत्या नहीं की, बल्कि जिंदगी को तलाशा है, यही गलती हुई है न?’’

बाबू चुप रहा.

‘‘देखो बाबू,’’ भरे हुए कंठ से उस ने कहा, ‘‘बहस नहीं करो. मैं इतना ही जानती हूं कि मांपिताजी, मांपिताजी होते हैं. मैं ने इतना अन्याय सह कर भी मन मैला न किया. फिर तुम्हें क्या शिकायत है कि इन के दुखसुख में हाल भी न पूछो? दवा से ज्यादा सद्भाव का असर होता है.’’

‘‘कौन कहता है?’’ बात का रुख बदलते हुए बाबू ने कहा, ‘‘कौन शिकायत करता है? क्या नहीं करता? तुम्हें पता है सारी बातें? कौन सा ऐसा दिन है, जब पिताजी मु झे नहीं कोसते? एक सरकारी नौकरी न मिली कि नालायक, निकम्मा विशेषणों से अलंकृत करते रहते हैं. बीती बातों को उखाड़उखाड़ कर घर में कुहराम मचाए रहते हैं. घर की शांति भंग हो गई है.’’ वह अपने आंसू पोंछने लगा.

बात जब पिताजी पर आई, तो कमरे में आ कर चीखते हुए भाग्यश्री को बोलने लगे, ‘‘हमारे घर के मामले में तुम कौन हो बोलने वाली? कौन तुम्हें यहां की बातें बताता है? यह मेरा बेटा है, मैं इसे कुछ बोलूं तो तुम्हें क्या? यह हमें लात मारे, तुम्हें क्या मतलब?’’

बात कहां से कहां पहुंच गई. भाग्यश्री को भी क्रोध आ गया. वह कुछ बोली नहीं, बस, आक्रोश से अपने पिताजी को देखती रही. पिताजी का चीखना जारी था, ‘‘तुम अपने घर में खुश रहो. हमारे घर के मामले में तुम्हें बोलने का अधिकार नहीं है.’’

‘हमारा घर?

‘पिताजी का घर?

‘बाबू का घर? मेरा नहीं? हां, पहले भी तो नहीं था. और अब? शादी के बाद?’ भाग्यश्री मन में सोच रही थी.

पिताजी को बोलते देख, मां ने आवाज लगाई. भाग्यश्री मां के पास चली गई. मां ने रोते हुए कहा, ‘‘समय तो किसी का कोई बदल नहीं सकता न बेटा? मेरे समय में ही दुख लिखा है, इसलिए तो बापबेटे की मत मारी गई. आपस में भिड़ कर एकदूसरे का सिर फोड़ते रहते हैं. तुम बेकार मेरी चिंता करती हो. तुम्हें यहां कोई नहीं सराहता, फिर क्यों आती हो.’’ यह कहती हुई वह फूटफूट कर रो पड़ी.

पिताजी के प्रति उत्पन्न आक्रोश ममता में घुल गया. कुछ देर तक भाग्यश्री सिर नीचे किए बैठी रही. आंखों से आंसू बहते रहे. अचानक उठी और बाबू से बोली, ‘‘मां, मेरी भी है. इस की हालत में सुधार यदि नहीं हुआ, तो बलपूर्वक मैं अपने साथ ले जाऊंगी,’’ कहती हुई वह चली गई.

महल्ले में ही उस का मुंहबोला एक भाई था, कुंदन. वह बाबू का दोस्त भी था. उदास हो कर लौटती भाग्यश्री को देख कर वह उस के पीछे दौड़ा, ‘‘दीदी, ओ दीदी.’’

भाग्यश्री ने पीछे मुड़ कर देखा. बनावटी मुसकान अधरों पर बिखेर कर हालचाल पूछने लगी. उसे मालूम हुआ कि फिजियोथेरैपी द्वारा वह इलाज करने लगा है. उस की उदास आंखें चमक उठीं. याचनाभरी आवाज में कहा, ‘‘भाई, मेरी मां को भी देख लो.’’

‘‘चाचीजी को? हां, स्थिति ठीक नहीं है, यह सुना, लेकिन किसी ने मु झ से कहा ही नहीं,’’ कुंदन ने कहा.

‘‘मैं कह रही हूं न,’’ व्यग्र होते हुए भाग्यश्री ने कहा.

दो पल दोनों चुप रहे. कुछ सोच कर भाग्यश्री ने फिर कहा, ‘‘लेकिन भाई, यह बताना नहीं कि मैं ने तुम्हें भेजा है. नहीं तो मां का इलाज करवाने नहीं देंगे सब.’’

‘‘लेकिन, लेकिन क्या कहूंगा?’’

‘‘यही कि, बाबू के मित्र हो, इसलिए इंसानियतवश. और हां,’’ भाग्यश्री ने अपने बटुए में से एक हजार रुपया निकाल कर देते हुए कहा, ‘‘तुम मेरा पता लिख लो, मेरे घर आ कर ही अपना मेहनताना ले लेना.’’

कुंदन उसे देखता रहा. भाग्यश्री की आंखों में कृतज्ञता छाई थी, बोली, ‘‘भाई, तुम्हारा एहसान मैं याद रखूंगी. बस, मेरी मां को ठीक कर दो.’’

कुंदन सिर हिला कर कह रहा था, ‘‘ठीक है.’’

दो माह बाद वह फिर से मायके आई. हालांकि कुंदन से उसे मालूम हो गया था कि मां की स्थिति में बहुत सुधार है, फिर भी वह देखना चाहती थी. भाग्यश्री के मन में एक अज्ञात भय था. जैसे कोई किसी दूसरे के घर में प्रवेश कर रहा हो वह भी चोरीचोरी. जैसेजैसे घर निकट आ रहा था, उस के कदम की गति धीमी होती जा रही थी और हृदय की धड़कन बढ़ती जा रही थी.

वहां पहुंच कर उस ने बरामदे में  झांका. मां, पिताजी और बाबू तीनों बैठ कर चाय पी रहे थे. सभी प्रसन्न थे. आपस में बातें करते हुए हंस रहे थे. भाग्यश्री ने शायद ही कभी ऐसा दृश्य देखा होगा. भाग्यश्री वहीं ठहर गई. उस ने अपने भाई से ‘मन का चैन’ मांगा था, भाई ने उसे दे दिया. मायके से प्राप्त उपेक्षा, तो उस का दुख था ही, लेकिन यह ‘मन का चैन’ उस का सुख था.

‘ठीक ही है,’ उस ने सोचा, मैं तो इस घर के लिए कभी थी ही नहीं. फिर अपना स्थान क्यों ढूढ़ूं? आज मन का चैन मिला, इस से बड़ा मायके का उपहार क्या होगा. मन का चैन ले कर वह वहीं से लौट आई, बिन बुलाए कभी न जाने के लिए.

बाहर निकल कर नम आंखों से अपने मायके का घर देख रही थी. अनायास उस के अधरों पर वेदना के साथ एक मुसकान दौड़ आई. उंगली से इशारा करती हुई, भरे हुए कंठ से वह बुदबुदाई, ‘मु झे पता है पिताजी, एक दिन आप मु झे बुलाएंगे जरूर. मन का चैन पा कर वह प्रसन्न थी, किंतु मायके के विद्रोह से उस का अंतर्मन बिलख रहा था. उस ने मन से पूछा, ‘लेकिन कहां बुलाएंगे?’ मन ने उत्तर भी दे दिया, ‘जल्द ही बुलाएंगे.’

अपनी आंखों को पोंछती हुई वह एकाएक मुड़ी और अपने घर की ओर चल दी. मन में विश्वास था कि एक दिन बुलावा आएगा, हां, बुलावा आएगा जरूर.

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