विधानसभा चुनावों के दौरान राजा बाबू ने दद्दा साहब को ऐसा करारा झटका दिया कि वह राजनीति की बिसात पर एक पिटा मोहरा बन कर रह गए.
‘‘दद्दा साहब, एक बुरी खबर है,’’ भूषण ने हांफते हए जनतांत्रिक दल के प्रदेश अध्यक्ष राजनारायण उर्फ दद्दा साहब के कक्ष में प्रवेश किया.
‘‘क्या हुआ?’’ दद्दा साहब ने फाइल से सिर ऊपर उठाते हुए पूछा था.
‘‘कासिमाबाद में रामाधार बाबू की जमानत जब्त हो गई है और राजा बाबू भारी बहुमत से जीत गए हैं,’’ भूषण ने अपनी बात पूरी की थी.
‘‘तो क्या हो गया? चुनाव में हारजीत तो लगी ही रहती है. वैसे भी रामाधार को टिकट देना दल का दायित्व था तो उन का और उन के समर्थकों का दायित्व था चुनाव जीतना.’’
‘‘लेकिन दद्दा, कौशल बाबू अपने दामाद की हार का सारा दोष हम लोगों के सिर मढ़ देंगे. जबकि मैं आप को विश्वास दिलाता हूं कि जनतांत्रिक दल के कार्यकर्ताओं ने इस चुनाव के दौरान कासिमाबाद में अपनी पूरी शक्ति झोंक दी थी.’’
‘‘राजनीति में यह उठापटक तो चलती ही रहती है. यह सब भूल कर आगे की सोचो. इस बार विधानसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत मिलने की संभावना न के बराबर है. शीघ्र ही सरकार बनाने की जोड़तोड़ शुरू हो जाएगी इसलिए उधर ध्यान दो,’’ दद्दा ने भूषण के उत्साह पर शीतल जल छिड़क दिया था.
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भूषण तो चला गया पर दद्दा को आंदोलित कर गया. उन्हीं का चेला उन्हें ऐसी पटखनी देगा उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था. इसी के साथ कुछ दिन पहले की घटनाएं उन के दिमाग में किसी चलचित्र की तरह आकार ग्रहण करने लगी थीं :
भूषण और राजन के साथ टिकट बंटवारे को ले कर विचारविमर्श में दद्दा व्यस्त थे कि राजा बाबू के मुख से अपने नाम का संबोधन सुन कर वह चिहुंके थे और सिर को ऊपर उठा कर देखा था.
‘क्या है, राजा? देख नहीं सकते क्या कि मैं इस समय कितना व्यस्त हूं?’
‘दद्दा साहब, 8 घंटे हो गए, आप के कपाटों को अपलक निहारते हुए पर आप का सचिव नीनू मिलने ही नहीं दे रहा था,’ राजा बाबू ने अनुनय की थी.
‘राजा, नीनू बेचारा तो मेरे ही आदेश का पालन कर रहा है. चुनाव सिर पर हैं इसलिए व्यस्तता की चरम सीमा है. खानेपीने तक को समय नहीं मिलता. कुछ देर और प्रतीक्षा करो तुम्हारी बारी भी आएगी,’ फिर कुछ सोच कर बोले, ‘चलो जाने दो. भूषण और राजन तुम दोनों थोड़ी देर के लिए बाहर चले जाओ. पहले राजा को निबटा देता हूं. दूसरे विषयों पर
बाद में विचारविमर्श करेंगे. आ राजा. बैठ, बोल, क्या बात है?’
‘क्या बोलूं दद्दा, मेरे बोलने को बचा ही क्या है. पिछले 15 वर्षों से जनतांत्रिक दल में हूं पर खुद को इतना अपमानित कभी अनुभव नहीं किया.’
‘ऐसा क्या हो गया राजा?’ दद्दा ने अनजान बनने का नाटक किया था.
‘आप तो सब जानते हैं. मैं अपने लिए कुछ नहीं मांग रहा पर कासिमाबाद में 90 प्रतिशत से अधिक मेरे समर्थक हैं. उन्हें जब से मुझे टिकट न देने के दल के फैसले के बारे में पता चला है, वे निराश और उद्वेलित हो गए हैं. न जाने कितने घरों में कल से चूल्हा नहीं जला है. मेरे समर्थक तो खुद आप के पास धरना देने आने वाले थे पर मैं ने उन्हें समझाबुझा कर शांत किया और कहा कि मैं स्वयं आप से बात करूंगा.’
‘देख राजा, अपने अनुयायियों पर नियंत्रण रखना तेरा काम है. कासिमाबाद का टिकट रामाधार बाबू को दे दिया गया है. उस में अब कोई फेरबदल नहीं हो सकता. उस क्षेत्र में दल की जीत का भार तेरे ही कंधों पर है…’
‘रामाधार, कौशल बाबू जैसे कद्दावर नेता के दामाद हैं. कौशल बाबू का दल के लिए त्याग और समर्पण कौन नहीं जानता.’
‘दद्दा, मुझे टिकट नहीं मिला तो कासिमाबाद में दल के लिए समस्या हो सकती है.’
‘दद्दा को धमकी देता है क्या रे? आयु क्या है रे तेरी?’
‘जी, 35 वर्ष.’
‘तू 35 का है और मैं 40 सालों से राजनीति कर रहा हूं. मैं ने कभी तेरी आयु में विधायक या सांसद बनने के स्वप्न नहीं देखे पर आजकल के छोकरे दल के सदस्य बनते ही मंत्री बनना चाहते हैं. अच्छे कार्यकर्ता के नाते तुरंत रामाधार के चुनाव अभियान की तैयारी शुरू कर,’ दद्दा साहब ने आदेश दे दिया था.
पर उत्तर में राजा बाबू अपने स्थान से हिले तक नहीं थे. उन की आंखों से टपाटप आंसू झरने लगे थे. देर तक उन के हिलते कंधों और थरथराती सिसकियों के स्वर से तो दद्दा साहब भी एक क्षण को सहम गए थे, ‘यह क्या बचपना है राजा, धीरज धर धीरज. मैं हूं ना तेरे हितों की रक्षा करने को. सब्र का फल सदा मीठा होता है. अपने समय की प्रतीक्षा कर…अरे, ओ रघु,’ उन्होंने सेवक को पुकारा था.
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‘जी सरकार,’ रघु दौड़ा आया था.
‘पानी ले कर आ और फिर 2 प्याले गरम चाय ले आ.’
रघु आननफानन में पानी ले आया था. दद्दा ने बड़े प्यार से अपने हाथों से राजा को पानी पिलाया और देर तक उस की पीठ पर हाथ फेरते रहे थे.
अब तक रघु चाय रख गया था.
‘देख बेटा, राजनीति में बडे़बड़े समझौते करने पड़ते हैं. दल को जोड़े रखने के लिए कुछ अप्रिय फैसले भी लिए जाते हैं. पर दिल वाला वह है जो इन संकटों का हंसते हुए सामना करे,’ दद्दा साहब अपने उपदेशों का सिलसिला आगे बढ़ाते उस से पहले ही एक ही घूंट में चाय का कप खाली कर राजा बाबू बाहर निकल गए थे.
उधर राजा बाबू के समर्थक कुछ भी समझने को तैयार नहीं थे. उन्होंने दोटूक निर्णय सुना दिया था कि वे राजा बाबू के अलावा किसी दूसरे को अपना प्रतिनिधि नहीं चुनेंगे.
कई दिनों तक धरनोंप्रदर्शनों का सिलसिला चलता रहा, पर उच्च कमान को न पसीजना था न पसीजी. नाराज दद्दा साहब ने राजा बाबू को बुलावा भेजा था. राजा बाबू जब दद्दा से मिलने पहुंचे तो वह क्रोध की प्रतिमूर्ति बने बैठे थे.
‘क्यों रे राजा, बहुत बड़ा नेता बन गया है क्या?’ वह छूटते ही बोले थे.
‘कैसी बातें कर रहे हैं दद्दा साहब, आप की बात को टालने का साहस मैं तो क्या, दल के बड़े दिग्गज भी नहीं कर सकते.’
‘तो इन धरनों प्रदर्शनों का क्या मतलब है?’
‘वह मेरी नहीं मेरे समर्थकों की गलती है. मैं ने उन्हें लाख समझाया पर वे लोग कुछ सोचनेसमझने को तैयार ही नहीं हैं.’
‘ठीक है, तो इस बार उन्हें अच्छी तरह से समझा देना कि मुझे ऐसी अनुशासनहीनता से निबटना भली प्रकार आता है,’ दद्दा ने धमकी दी थी.
‘दद्दा, आप भी मुझे ही दोषी ठहरा रहे हैं. आप ने ही मुझे टिकट दिलवाने का आश्वासन दिया था. अब टिकट न मिलने से समर्थकों में गहरी निराशा है दद्दा.’
‘बात को समझा कर राजा, कौशल बाबू को नाराज नहीं किया जा सकता. इस बार तू ने रामाधार बाबू को चुनाव जितवा दिया तो दल तुझे सदा याद रखेगा. तुझे तेरी सेवाओं के बदले पुरस्कृत भी किया जाएगा. अब निर्णय तुझे ही लेना है.’
‘जी दद्दा,’ राजा बाबू बोले थे.
‘क्या जी जी लगा रखा है. बंद करो ये धरनेप्रदर्शन और कमर कस कर मैदान में कूद पड़ो,’ दद्दा साहब ने मानो निर्णय सुनाया था.
लेकिन दूसरे दिन जब राजा बाबू ने स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने की घोषणा की थी तो दद्दा तिलमिला कर रह गए थे. घंटों अपने कमरे के बाहर राजा को प्रतीक्षा करवाने वाले दद्दा साहब ने राजा बाबू को बारबार निमंत्रण भेजा था पर वह नहीं आए थे.
राजा बाबू की चुनौती को स्वीकार कर कौशल बाबू ने अपने दामाद रामाधार के साथ चुनाव क्षेत्र में ही डेरा डाल दिया था. दल की मशीनरी का साथ होने पर भी रामाधार की जमानत जब्त हो गई थी. राजा बाबू को पहले ही जनतांत्रिक दल से निष्कासित कर दिया गया था.
जब ढोलनगाड़ों की थाप पर राजा बाबू का विजय रथ जनतांत्रिक दल के कार्यालय के सामने से निकला था, दल के नेतागण मन मसोस कर रह गए थे.
सरकार बनाने की कोशिश शुरू होते ही स्वतंत्र विधायकों की बन आई थी. दोनों पक्षों में कांटे की टक्कर थी, अत: हर पक्ष उन्हें अधिक से अधिक प्रलोभन देना चाहता था.
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दद्दा साहब राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी थे. कब कैसे पैंतरा बदला जाए वह भली प्रकार जानते थे. दल के दिग्गजों ने जब सातों स्वतंत्र विधायकों को रात्रिभोज के लिए बुलाया तो उन सभी ने राजा बाबू को अपना नेता घोषित कर दिया था.
बातचीत का दौर प्रारंभ हुआ तो सातों को तरहतरह के प्रलोभन दिए जाने लगे.
‘‘आज्ञा हो तो मैं भी कुछ कहूं,’’ स्वतंत्र गुट की ओर से राजा बाबू बोले थे.
‘‘हां, बोलो बेटा, हमें भी तो पता चले कि आप लोग चाहते क्या हैं,’’ दद्दा साहब बोले थे.
‘‘अवश्य बताएंगे पर पहले भोजन कर लीजिए. इतना अच्छा भोजन सामने है, ऐसे में रंग में भंग डालने का हमारा कोई इरादा नहीं है,’’ स्वतंत्र विधायकों में से एक बंसी बाबू बोले थे.
हासपरिहास के बीच रात्रिभोज समाप्त हुआ था. स्वादिष्ठ आइसक्रीम के साथ सभी सोफों पर जा विराजे थे.
‘‘चलिए, अब काम की बात कर ली जाए,’’ कौशल बाबू और दद्दा समवेत स्वर में बोले थे, ‘‘क्या मांग है आप की?’’
‘‘हमारी तो एक ही मांग है. मुझे मुख्यमंत्री बनाया जाए और मेरे अन्य मित्रों को मंत्रिमंडल में स्थान मिले,’’ राजा बाबू गंभीर स्वर में बोले थे.
‘‘क्या?’’ जनतांत्रिक दल के दिग्गज नेताओं को मानो सांप सूंघ गया था.
‘‘तुम जानते हो न राजा बेटे कि तुम क्या कह रहे हो?’’ अंतत: मौन दद्दा साहब ने तोड़ा था.
‘‘जी हां, भली प्रकार से जानता हूं.’’
‘‘देखो राजा, दल में अनेक वयोवृद्ध नेताओं को छोड़ कर तुम्हें मुख्यमंत्री बनाएंगे तो दल में असंतोष फैल जाएगा. वैसे भी यह क्या कोई आयु है मुख्यमंत्री बनने की? इस गरिमापूर्ण पद पर तो कोई गरिमापूर्ण व्यक्तित्व ही शोभा देता है,’’ कौशल बाबू ने अपनी ओर से प्रयत्न किया था.
‘‘मैं ने आप को अपनी शर्तों के बारे में सूचित कर दिया है. अब गेंद आप के पाले में है. जैसे चाहें खेल को संचालित करें,’’ बंसी बाबू बोले थे.
‘‘राजा, कुछ देर के लिए मैं तुम से एकांत में विचारविमर्श करना चाहता हूं,’’ दद्दा साहब ने राजा बाबू को साथ के कक्ष में बुलाया था.
‘‘आप को जो कहना है हम सब के सामने कहिए. हम सब एक हैं. कहीं कोई दुरावछिपाव नहीं है,’’ बंसी बाबू ने राजा को रोकते हुए कहा था.
‘‘ठीक है, हम आपस में विचारविमर्श कर के आते हैं. फिर आप को सूचित करेंगे,’’ कहते हुए दद्दा साहब, कौशल बाबू और जनतांत्रिक दल के अन्य दिग्गज नेता उठ कर साथ के कमरे में चले गए थे.
‘‘समझता क्या है अपनेआप को? कल तक तो दरी बिछाने और लोगों को पानी पिलाने का काम करता था, आज मुख्यमंत्री बनने का स्वप्न देखने लगा है?’’ कौशल बाबू बहुत क्रोध में थे.
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‘‘मत भूलिए कि सत्ता की चाबी अब उन के हाथ में है,’’ दद्दा साहब ने समझाया था.
‘‘इस का अर्थ यह तो नहीं है कि सारा राज्य इन नौसिखियों के हवाले कर दें.’’
‘‘सोचसमझ कर निर्णय लीजिए. नहीं तो गणतांत्रिक दल वाले तैयार बैठे हैं इन्हें लपकने को,’’ अंबरीष बाबू बोले थे.
‘‘निर्णय लेने को अब बचा ही क्या है? या तो उन की शर्तें माननी हैं या नहीं माननी हैं,’’ कौशल बाबू झुंझला गए थे.
बहुत बेमन से सभी दिग्गज नेता एकमत हुए थे. शायद वे समझ गए थे कि सत्ता में बने रहने का यही एकमात्र तरीका था.
दूसरे दिन जब एक साझी प्रेस कानफें्रस में जनतांत्रिक दल के स्वतंत्र विधायकों से गठबंधन की घोषणा की गई और राजा बाबू के नाम की घोषणा भावी मुख्यमंत्री के रूप में हुई तो सभी आश्चर्यचकित रह गए.
राजा बाबू ने कैमरों की फ्लैश- लाइटों के बीच दद्दा साहब के पैर छू कर आशीर्वाद लिया तो दद्दा साहब ने उन्हें गले से लगा लिया. वह समझ गए थे कि परिवर्तन की आंधी को रोकना अब उन के वश में नहीं था. द्य