बौलीवुड की कार्यशैली बहुत अलग है. यहां लोग बनने कुछ आते हैं और बन कुछ और ही जाते हैं. ऐसा ही फिल्मकार अमित रवींद्रनाथ शर्मा के साथ हुआ. दिल्ली में नाटकों में अभिनय करते करते सोलह वर्ष की उम्र में उन्हें प्रदीप सरकार के निर्देशन में एक विज्ञापन फिल्म में अभिनय करने का मौका मिला. उन्होंने अपनी मां से कहा था कि वह फिल्मों में हीरो बनेंगे. मगर उनकी पहचान निर्देशक के रूप में होती है. लगभग 1800 एड फिल्में निर्देशित कर चुके अमित शर्मा ने तीन वर्ष पहले असफल फिल्म ‘‘तेवर’’ का निर्देशन किया था और अब ‘‘बधाई हो’’ का निर्देशन किया है.

आप तो अभिनेता बनना चाहते थे. तो फिर निर्देशक कैसे बन गए?

आपने सही कहा. मेरे मन में अभिनेता बनने की ललक मेरी मां के एक फोन की वजह से पैदा हुई थी. मैं दिल्ली में ही रह रहा था. मैं रेखा जैन के ग्रुप ‘उमंग’ के साथ जुड़ा हुआ था. उसके बाद ‘संगम’ और ‘नवरंग’ ग्रुप के साथ जुड़कर भी थिएटर किया. एक दिन फिल्मकार प्रदीप सरकार से मुलाकात हुई. मनाली में एक विज्ञापन फिल्म की शूटिंग थी, उसमें उन्होंने मुझसे अभिनय करवाया. पर उसी दिन मैंने उनके साथ सहायक निर्देशक के रूप में काम करने की बात सोची. स्कूल की पढ़ाई पूरी करते ही मैंने प्रदीप सरकार के साथ काम करना शुरू कर दिया. पूरे छह साल उनके साथ काम किया.

इस दौरान प्रदीप सरकार के निर्देशन में 17 विज्ञापन फिल्मों में अभिनय किया. फिर लगा कि अब अपना काम शुरू किया जाना चाहिए. मैंने अपनी कंपनी ‘क्रोम पिक्चर्स’ शुरू की. हमारी कंपनी में मेरे अलावा हेमंत भंडारी और आलिया सेन शर्मा पार्टनर हैं. अब तक स्वतंत्र रूप से करीबन अठ्ठारह सौ से अधिक विज्ञापन फिल्में बना चुका हूं. मैं हर किसी से कहना चाहूंगा कि ‘आन द जौब ट्रेनिंग’ ही बेहतर ट्रेनिंग होती है. बीस साल की उम्र मे मैंने साढ़े चार मिनट की एक लघु फिल्म ‘फ्री फालोइंग’ बना डाली थी.

फिर मुझे विज्ञापन फिल्में बनाने का काम मिलने लगा. अब तक वही काम करता आ रहा हूं. तीन वर्ष पहले मुझे बोनी कपूर ने फिल्म ‘‘तेवर’’ निर्देशित करने का अवसर दिया था. इसे सफलता नही मिली थी. अब करियर की दूसरी फिल्म ‘‘बधाई हो’’ का निर्देशन किया है.

तो फिर आपके हीरो बनने के सपने का क्या हुआ?

अभी भी यह सपना ही है. मगर सेट पर अपना फ्रस्टे्शन अपने कलाकारों पर निकालता रहता हूं. उन्हें अभिनय करके बताता रहता हूं कि कलाकार को किस तरह से अभिनय करना है. कई बार कलाकार भी मुझसे कह देता है कि आप ही कर लीजिए, आप तो मुझसे बेहतर कर लेते हैं. मैं तो फिल्म ‘बधाई हो’ के सेट पर नीना गुप्ता को भी अभिनय करके बताता था, कि अब मुझे क्या चाहिए. क्योंकि मैं उन्हें बताता था कि मेरी मम्मी इस स्थिति में क्या करती. पर एक न एक दिन हीरो के रूप में कोई फिल्म जरुर करूंगा. मैंने अपनी मां से वादा किया था कि मैं फिल्म का हीरो बनूंगा. लेकिन जब मैं फिल्म निर्देशक बना, मेरी मां भी बहुत खुश थी.

बतौर निर्देशक पहली फिल्म ‘‘तेवर’’ मिलने में छह साल का समय लगा. अब दूसरी फिल्म ‘‘बधाई हो’’ आने में तीन साल लग गए?

देखिए, फिल्म लिखने में समय जाता है. ‘बधाई हो’ को लिखने में दो साल लग गए. फिर उसे बनाने में एक साल लगा. अब 19 अक्टूबर को रिलीज हो रही है.

तो आप मानते हैं कि ‘‘तेवर’’ की असफलता का आप पर असर नहीं पड़ा?

बिलकुल नहीं पड़ा. क्योंकि मेरे साथ तो कुछ बहुत ही अलग हुआ. ‘तेवर’ को बाक्स आफिस पर सफलता नहीं मिली. पर फिल्म इंडस्ट्री के लोगों को मेरा काम बहुत पसंद आया. कई निर्माताओं और कौरपोरेट के लोगों ने बुला बुलाकर कहा कि मेरी फिल्म उन्हें बहुत पसंद आयी. लेकिन ‘तेवर’ जिस जौनर की फिल्म है. वह ‘जौनर’ अभी नहीं चल रहा है. यानीकि मेरी फिल्म ‘तेवर’ गलत समय पर आयी थी. उसी वक्त कई बड़े फिल्म निर्माताओं व कौरपोरेट कंपनियों ने वादा किया था कि मैं जब भी कोई फिल्म बनाना चाहूंगा, वह मेरे साथ होंगे. उसके बाद मेरे पास कई फिल्मों के निर्देशन के औफर आए थे, पर मैंने मना कर दिया था.

मैंने लोगों से साफ साफ कहा कि मैं सही कहानी के मिलने का इंतजार कर रहा हूं. देखिए, मैं संघर्षरत निर्देशक उस वक्त भी नहीं था, आज भी नही हूं कि जो भी फिल्म मिल जाए, लपक लूं. मैं घर पर खाली नहीं बैठा हुआ था. मुझे घर का किराया देने या किचन कैसे चलेगा, इसकी चिंता नही थी. हम तीन लोगों की प्रोडक्शन कंपनी है. हम लगातार एड फिल्में निर्देशित कर रहे हैं. इसलिए दूसरी फिल्म को निर्देशित करने की मुझे कोई जल्दबाजी नहीं थी. तीन साल के बाद अब मेरी फिल्म ‘‘बधाई हो’’ आ रही है, उस बात को लेकर मैं बहुत खुश हूं. मुझे पूरी उम्मीद है कि यह फिल्म चलेगी. दर्शकों को जरूर पसंद आएगी. इस फिल्म की कहानी ऐसी है, जिससे हर उम्र के लोग रिलेट करेंगे.

फिल्म ‘‘बधाई हो’’ दर्शकों को क्यों पसंद आएगी?

मैं स्पष्ट कर दूं कि ‘‘बधाई हो’’ वल्गर फिल्म नहीं है. यह एक पारिवारिक फिल्म है. यह एक ऐसी कहानी है, जिसके साथ सभी रिलेट करेंगें. कहानी में नयापन भी है. इन दिनों नयी तरह की कहानियां दर्शक खूब पसंद कर रहे हैं. इसलिए मुझे पूरी उम्मीद है कि दर्शक मेरी फिल्म को पसंद करेंगे. मुझे खुशी है कि अब भारतीय दर्शक बदल चुका है. अब दर्शक को नयी चीजें सुननी हैं.

नयी कहानी देखनी है. अब वह सिर्फ मारधाड़ या पेड़ के आगे पीछे नाच गाना नहीं देखना चाहता. यदि यही दौर चलता रहा, तो हम भी कुछ बेहतरीन कहानियां दर्शकों को परोस सकेंगें. सिनेमा की गुणवत्ता में सुधार आएगा. यह सब दर्शकों की वजह से ही संभव होगा. अच्छे फिल्मकार, अच्छे कलाकार आदि तो पहले भी थे, आज भी हैं और हमेशा रहेंगें.

कुछ लोगों का मानना है कि कारपोरेट के आने के बाद सिनेमा में बदलाव आया. आप क्या मानते हैं?

सर, मैं अपने आपको फिल्मी दुनिया से बाहर का इंसान मानता हूं. इसलिए मैं इस बात की जानकारी नहीं रखता कि कौरपोरेट के आने के बाद दर्शक बदला या अपने आप बदला. पर मेरी जानकारी के अनुसार कौरपोरेट के आने के बाद भी कमर्शियल फिल्मों का दौर चल रहा था. कौरपोरेट को आकर पंद्रह वर्ष हो गए. जबकि दर्शकों की रूचि पिछले दो वर्ष के दौरान बदली है. ‘शुभ मंगल सावधान’, ‘बरेली की बर्फी’, ‘न्यूटन’, ‘निल बटे सन्नाटा’ यह सभी अलग तरह की फिल्में पिछले एक वर्ष में आयी हैं. मैं एक ही बात कहना चाहूंगा कि दर्शकों में आया यह बदलाव सिनेमा के लिए बहुत अच्छा है. यह बदलाव हम सब के लिए बहुत अच्छा है.

फिल्म ‘‘बधाई हो’’ के संबंध में क्या कहेंगे?

अधेड़ उम्र में एक औरत के पुनः मां बनने के बाद परिवार के हर सदस्य को जिस तरह की शर्मींदगी झेलनी पड़ती है, उस पर हमारी फिल्म ‘‘बधाई हो’’ है..फिल्म की कहानी यह है कि यदि किसी के घर में वास्तव में ऐसा हो जाए यानी कि अधेड़ उम्र की मां फिर से प्रिगनेंट हो जाए, तो क्या होगा? अगर उसका बेटा 25 साल का और दूसरा बेटा 12 वी कक्षा में पढ़ रहा है, तो उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी?

फिल्म ‘बधाई हो’ में मिस्टर और मिसेस कौशिक के रिश्ते में मैंने अपने माता पिता को देखा. हम अपनी फिल्म में यह कह रहे हैं कि पचास साल की उम्र में भी पत्नी से प्यार करना अच्छी बात है, कोई बुराई नहीं है. यही वजह है कि ट्रेलर बाजार में आने के बाद तमाम लोगों ने कहा कि यह तो उनकी अपनी कहानी है.

इसके लेखन में दो वर्ष का समय क्यों लगा?

अब इसको लिखने में दो वर्ष लग गए. क्योंकि यह ऐसा विषय था कि जरा सी असावधानी होने पर फिल्म वल्गर हो सकती थी. तो हमें नापतोल कर इसे लिखना पड़ा. वह लिखकर मेरे सामने पेश करते थे, मैं उसमें से कुछ चीजें रख लेता था, कुछ वापस कर देता था. वह फिर से लिखकर लाते थे. तो लेखन की यह यात्रा दो वर्ष की रही. इस बीच अक्षत व शांतनु के साथ मेरी बहुत ही जबरदस्त ट्यूनिंग रही. दोनों ने बहुत अच्छा लिखा है.

महानगरों में युवा पीढ़ी को यह बात क्यों पसंद नहीं आती. रिसर्च के दौरान आपको इसकी वजह समझ में आयी?

मैंने पहले ही कहा कि यह मार्डनाइजेशन का परिणाम है. यदि मैं अपनी फिल्म ‘बधाई हो’ का नकुल कौशिक हूं, मैं शादी लायक हूं और मेरी गर्लफ्रेंड है. मुझे पता चले कि मेरी मां प्रैगनेंट हैं, तो मेरा रिएक्शन यही होगा कि यह क्या मजाक बना रखा है? फिल्म में नकुल का छोटा भाई 12 कक्षा में पढ़ता है. कालेज में उसके दोस्त उसको छेड़ते हैं. तो यह समस्या टैबू बन चुकी है. जबकि इस तरह की घटना हो रही है. पर हम सुनते नहीं हैं. इसलिए हम इसे और ज्यादा टैबू बना देते हैं. इसी के चलते महानगरों में जब किसी के घर में यह घटना घटती है, तो दोस्त ताना मारते हैं. हमारी फिल्म में नकुल की गर्लफ्रेंड स्वाती शर्मा एकदम उल्टा है. उसे इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता.

क्या आपको लगता हैं कि मार्डनाइजेशन के इस युग में हर रिश्ते को सेक्स से जोड़कर देखा जाता है?

हमारे हिंदुस्तान में सेक्स एक टेबू है. इस पर लोग खुलकर बात नही करते हैं. पता नहीं क्यों हम हर रिश्ते में लोगों को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं. अब किसी की गर्लफ्रेंड है, तो उनके बीच सेक्स संबंध या शारीरिक रिश्ते हो सकते हैं. इसमें लोगों के पेट में क्यों दर्द होता है? जिस दिन हमारे देश में सेक्स पर खुलकर बात होगी, स्कूलों में विधिवत इसकी शिक्षा दी जाएगी. तो लोगों को सच का एहसास होगा और लोग किसी भी रिश्ते को बदनाम करने की कोशिश नही करेंगे. पर हमारी फिल्म इस पर बात नही करती है. हमारी फिल्म तो माता पिता के प्यार में होने की कहानी है.

आप फिल्म ‘‘बधाई हो’’ के माध्यम से क्या कहना चाहते हैं?

हम इस फिल्म के माध्यम से लोगों से कहना चाहते हैं कि आप बड़े हो गए हैं, इसके मायने यह नही है कि आपके माता पिता में प्यार खत्म हो गया. आपके युवा हो जाने से आपके माता पिता के बीच सेक्स संबंध नहीं हो सकते हैं, यह सोच गलत है. क्या उनकी जिंदगी खत्म हो गयी? आखिर वह भी इंसान हैं. उनकी भी अपनी शारीरिक जरुरतें हैं. इसी बात को हमने बहुत ही हल्के फुल्के हास्य के साथ परोसा है.

लोग कहते हैं कि आपको एड फिल्म बनाने और ट्रेलर बनाने में महारत हासिल है?

यह लोगों का बड़प्पन है. हम कम से कम 2000 एड फिल्में बना चुके हैं. यहां अनुभव बहुत मायने रखता है. देखिए, विज्ञापन फिल्म हो या फीचर फिल्म, पटकथा में दम होगा, तो फिल्म अच्छी बनेगी. जब फिल्म अच्छी बनती है, तो तारीफ होती हैं. एक एड फिल्म सफल होती है, तो नाम हो जाता है. इसी तरह एक फीचर फिल्म चल जाती है, तो निर्देशक का नाम हो जाता है, नहीं चलती तो निर्देशक का नाम खराब हो जाता हैं.

सोशल मीडिया पर फिल्म का प्रमोशन बाक्स आफिस पर कितना असर डालता है?

यह सवाल तो मार्केटिंग वालों से करना चाहिए. इस फिल्म में मार्केटिंग में मेरा जुड़ाव थोड़ा बहुत रहा है. पर सोशल मीडिया काफी ताकतवर हो गया है. इससे हम अपनी फिल्म को लेकर अवेयरनेस पैदा कर सकते हैं. अब हर इंसान के हाथ में मोबाइल है. वह सोशल मीडिया पर कुछ न कुछ करता रहता है. लोग टीवी की बजाय मोबाइल फोन पर लगे रहते हैं. हम अपनी फिल्म को लेकर अवेयरनेस पैदा करने के लिए हर माध्यम का उपयोग कर रहे हैं. लोग फिल्म के पोस्टर सबसे पहले सोशल मीडिया पर डालते हैं. लोग यूट्यूब पर ट्रेलर देख लेते हैं.

आप सोशल मीडिया पर क्या लिखते हैं?

सच कहूं तो मैं इस मामले में बहुत पिछड़ा हुआ हूं. मेरे आफिस के लोग मुझे सिखा रहे हैं कि सोशल मीडिया पर कैसे बिजी रहना चाहिए. मेरी कंपनी के दो भागीदार हैं हेमंत और आलिया, इन्होंने मुझे जबरन सोशल मीडिया पर डाला है. अभी इंस्टाग्राम पर नया नया आया हूं. फिलहाल मुझे तो यही समझ में आया कि अपनी फिल्म का प्रचार करने के लिए सोशल मीडिया अच्छा माध्यम है. अब यह बाक्स आफिस पर क्या करता है, मुझे नही पता. देखिए, फिल्म ‘‘स्त्री’’ ने 125 करोड़ कमा लिए, अब इसका श्रेय माउथ पब्लिसिटी के साथ साथ सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया को जाता है. तो मिली जुली सरकार का मामला है. पर सिर्फ सोशल मीडिया के सहारे कोई फिल्म नही चल सकती. अब इसी के साथ फिल्म का कंटेंट भी बहुत मायने रखता है.

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