‘राहुल गांधी कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते क्योंकि वे अपने पिता राजीव गांधी से ज्यादा विदेशी मूल की अपनी मां सोनिया गांधी की तरह दिखते हैं.’

यह बयान इस दफा किसी भाजपाई ने नहीं, बल्कि बहुजन समाज पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जयप्रकाश सिंह ने दिया था. यह बयान हैरान कर देने वाला इस लिहाज से था कि नैशनल लैवल पर कांग्रेस और बसपा महागठबंधन और सीटों के तालमेल की बात कर रही हैं और बसपा के एक जिम्मेदार नेता राहुल गांधी और सोनिया गांधी के खिलाफ भाजपाइयों सरीखी बयानबाजी कर रहे हैं.

इस से पहले कि जयप्रकाश सिंह का बयान कोई सियासी गुल खिला पाता, बसपा सुप्रीमो मायावती ने उन्हें तुरंत ही पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा कर यह साफ कर दिया कि कांग्रेस और सोनिया व राहुल गांधी के खिलाफ ऐसी कोई बयानबाजी बरदाश्त नहीं की जाएगी, जिस से इस गठबंधन पर फर्क पड़े.

मायावती की नजरें सिर्फ 2019 के लोकसभा चुनाव पर ही नहीं हैं, बल्कि इस साल के आखिरी में होने जा रहे 3 अहम राज्यों के विधानसभा चुनावों पर भी हैं, जहां भाजपा का सफाया करने में वे कांग्रेस से हाथ मिलाने का इशारा कर चुकी हैं. इस बाबत दोनों दलों में 2 दौर की बातचीत भी हो चुकी है.

मध्य प्रदेश पर ज्यादा जोर

उत्तर प्रदेश से बाहर अगर किसी राज्य में बसपा की जड़ें आज भी गहरे तक जमी हैं, तो वह मध्य प्रदेश है जहां साल 2013 के विधानसभा चुनाव में बसपा 4 सीटें ले गई थी और 11 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी. इस के अलावा तकरीबन 30 सीटों पर उस ने 10 फीसदी के आसपास वोट हासिल कर भाजपा की जीत आसान कर दी थी.

जैसे ही कर्नाटक के नतीजों के बाद सोनिया गांधी और मायावती बेंगलुरु में बिछड़ी बहनों की तरह गले मिली थीं उस से साफ हो गया था कि अब वे दोनों मिल कर चुनाव लड़ेंगी.

यह बात उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, फूलपुर और बाद में कैराना लोकसभा के चुनावी नतीजों से जाहिर भी हो गई थी कि अगर विपक्ष एकजुट हो कर लड़े तभी भाजपा की मुश्कें कसी जा सकती हैं, नहीं तो उसे वोटों के बंटवारे का खमियाजा भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए.

मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बसपा खासा वोट और सीटें ले जाती रही है. मध्य प्रदेश के चंबल और विंध्य इलाके उस के मजबूत गढ़ हैं. इन इलाकों की दलित बहुल सीटों पर थोक में हाथी के निशान पर वोट पड़ते हैं.

2013 के विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश में कांग्रेस को 36.38 और बसपा को 6.29 फीसदी वोट मिले थे जबकि भाजपा ने 44.87 फीसदी वोट हथियाए थे. अब हालात बदले हैं. राज्य में सत्ता विरोधी लहर है और खुद दलित समुदाय चाहता है कि बसपा और कांग्रेस मिल कर चुनाव लड़ें. इस के लिए चाहे वे गठबंधन करें या फिर कुछ सीटों पर तालमेल करें.

यह ऊंची जाति वालों के कहर और दबदबे से हैरानपरेशान दलितों का ही दबाव है कि मायावती को कांग्रेस और कांग्रेस को मायावती की तरफ बढ़ने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है.

इस जुगलबंदी से बौखलाई भाजपा को अभी समझ नहीं आ रहा है कि वह इस दूध में कैसे नीबू निचोड़े जिस से दोनों के बीच खटास पैदा हो. गाय के इस दूध का दही जमाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी लगातार सोचविचार हो रहा है और भाजपा आलाकमान भी कांग्रेस और बसपा की मेलमुलाकातों पर नजर रखे हुए है.

मध्य प्रदेश में बात सीटों पर अटकी हुई है. बसपा चाहती है कि उस के हिस्से में वे सभी 40 सीटें आएं जिन पर वह अब तक अलगअलग चुनावों में ही सही जीती है. यह आंकड़ा कांग्रेस को ज्यादा लग रहा है. वजह, इन में से कई सीटों पर बसपा अपना असर खो चुकी है. मौजूदा 4 विधायकों वाली सीटों और साल 2013 में 11 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही बसपा को 15 सीटें देने में उसे कोई नुकसान नहीं दिख रहा लेकिन बाकी 25 सीटों पर दावेदारी उस से छोड़ी नहीं जा रही है.

हर कोई यह मान कर चल रहा है कि चूंकि बसपा और कांग्रेस हाथ मिलाने का मन बना चुकी हैं इसलिए बसपा 25 से ले कर 30 सीटों पर राजी हो जाएगी.

कांग्रेस की मंशा यह है कि सब से बड़ा विपक्षी दल होने के नाते वह 230 विधानसभा सीटों वाले मध्य प्रदेश में 200 से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़े और अपने दम पर बहुमत की 115 सीटों पर जीत हासिल करे. इतनी सीटें अगर नहीं मिलती हैं तो वह बसपा के जीते उम्मीदवारों की मदद से सरकार बना सकती है.

बसपा भी यही सोच रही है कि अगर 25-30 सीटों पर दमदार तरीके से चुनाव से लड़ा जाए तो पिछले तमाम रिकौर्ड तोड़ते हुए 15 के लगभग सीटें हासिल करते हुए सत्ता में भागीदारी हासिल की जा सकती है. यह गुणाभाग बसपा सुप्रीमो मायावती और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ को भी समझ आ रहा है. लिहाजा यह तो तय है कि वे साथ मिल कर भाजपा से लड़ेंगे, इस बाबत 2-4 सीटें दोनों दल कुरबान करने को तैयार हैं.

गठबंधन या तालमेल में इन दोनों पार्टियों को ही फायदा नजर आ रहा है जिस की अपनी अहम वजहें भी हैं.

230 में से तकरीबन 80 सीटों पर बसपा 10 हजार तक वोट ले जाती है जिन का समझौते के बाद कांग्रेस के खाते में जाना तय माना जा रहा है.

मुमकिन है कि मध्य प्रदेश में भी वोट शिफ्टिंग का फार्मूला अपनाया जाए जो उत्तर प्रदेश लोकसभा चुनावों में काफी कारगर साबित हुआ था. इस बाबत दोनों ही पार्टियों के रणनीतिकार हिसाबकिताब लगा रहे हैं कि इस में कोई जोखिम तो नहीं और भाजपा इस हालत में क्या करेगी. वजह, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की सियासत में जमीनआसमान का फर्क है. पिछड़े वोटों पर वोट शिफ्टिंग का असर नहीं पड़ेगा क्योंकि मध्य प्रदेश में अगड़ों के बाद भाजपा का तगड़ा वोट बैंक पिछड़ों का ही है.

ये भी हैं तैयार

अकेली बसपा ही नहीं, बल्कि सपा समेत भाजपा विरोधी तमाम छोटे दल भी कांग्रेस का साथ देने के लिए तैयार हो रहे हैं तो इस के अपने अलग माने हैं. सपा मुखिया अखिलेश यादव 19 जुलाई, 2018 को भोपाल आए और साफ किया कि वे गठबंधन के लिए तैयार हैं और कमलनाथ से उन के अच्छे ताल्लुकात हैं.

हालांकि सपा का कोई खास वोट बैंक अब मध्य प्रदेश में नहीं रहा है लेकिन बुंदेलखंड इलाके की यादव बहुल 6 सीटों पर वह मजबूत है. मुमकिन है कि गठबंधन का ऐलान होतेहोते कांग्रेस 2-4 सीटें सपा को भी देने के लिए तैयार हो जाए.

ग्वालियरचंबल संभाग में जमीन तैयार कर चुका बहुजन संघर्ष दल भी कांग्रेस की छतरी के नीचे आने के लिए बेताब है. इस पार्टी के अध्यक्ष फूलसिंह बरैया ने भोपाल की एक बड़ी रैली में कहा था कि वे भाजपा के सफाए के लिए कांग्रेस से समझौता करने के लिए तैयार हैं.

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ गठबंधन और तालमेल के मसले पर फूंकफूंक कर अपने कदम रख रहे हैं. आदिवासियों की पार्टी गोंंडवाना गणतंत्र पार्टी को भी वे 2-4 सीटें दे सकते हैं.

हालात छत्तीसगढ़ के

गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का असर छत्तीसगढ़ की भी चुनिंदा सीटों पर है. यहां भी कांग्रेस उस से सौदेबाजी कर सकती है. इस के पीछे उस का मकसद पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री अजीत जोगी की पार्टी जनता कांग्रेस को पछाड़ना होगा.

छत्तीसगढ़ में बसपा भी कुछ सीटों पर मजबूत है. 2013 के विधानसभा चुनाव में उस ने एक सीट जीती थी और तकरीबन 4.5 फीसदी वोट हासिल किए थे. 10 सीटों पर तगड़े वोटों के साथ वह तीसरे नंबर पर रही थी. मायावती तीनोें राज्यों में तालमेल इसीलिए चाहती हैं कि मध्य प्रदेश में कुछ ढील दे कर छत्तीसगढ़ में ज्यादा सीटें हासिल कर सकें. बसपा यहां 90 में से 10 सीटें चाह रही है जबकि कांग्रेस 6 से ज्यादा सीटें देने के लिए तैयार नहीं है.

गौरतलब है कि बसपा के संस्थापक कांशीराम ने अपनी चुनावी राजनीति की शुरुआत इसी राज्य की जांजगीर सीट से की थी.

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर संभाग में बसपा मजबूत हालत में है और यहां की 8 सीटों पर वह 10 हजार से ज्यादा वोट ले कर भाजपा की राह आसान करती रही है. साल 2013 के चुनावी नतीजे साफ बताते हैं कि अगर वह चुनाव बसपा और कांग्रेस ने मिल कर लड़ा होता तो इस गठबंधन को 51 सीटें मिलतीं जिन में 39 सीटें कांग्रेस पार्टी की और 12 सीटें बसपा की होतीं.

मुश्किल में भाजपा

मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह की नींद कांग्रेसबसपा के गठजोड़ को ले कर उड़ी हुई है. जन आशीर्वाद यात्रा के दौरान शिवराज सिंह चौहान अपनी तकलीफ यह कहते हुए कम कर कहते हैं कि जो भी दल कांग्रेस से गठबंधन करता है वह मिट जाता है.

दरअसल, शिवराज सिंह चौहान बसपा के कार्यकर्ताओं को भड़काने का काम कर रहे हैं लेकिन बसपा इस बात से बेफिक्र है क्योंकि पार्टी में मायावती का दबदबा किसी सुबूत का मुहताज नहीं है.

रमन सिंह को भी समझ आ रहा है कि अगर यह गठबंधन हुआ तो भाजपा को 35 सीटों का आंकड़ा छूने में पसीने छूट जाने हैं. राज्य की 8 सीटों पर बसपा 10 हजार से 30 हजार तक वोट ले जाती है जिस से भाजपा का उम्मीदवार आसानी से जीत जाता है. लेकिन इस दफा ऐसा होता नहीं दिखाई दे रहा है.

दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की चिंता विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव की भी है. अगर बसपाकांग्रेस गठबंधन कायम रहा तो साफ दिख रहा है कि बसपा को मध्य प्रदेश में 4 सीटें रीवां, सतना, भिंड और मुरैना की मिल सकती हैं. इन सीटों पर उसे हर चुनाव में खासा वोट मिलते रहे हैं और 1-1 दफा उस के उम्मीदवार जीते भी हैं.

यही हाल छत्तीसगढ़ में जांजगीर और बिलासपुर सीटों का है जिन पर कांग्रेस अगर बसपा का साथ दे तो भाजपा की जीत मुश्किल हो जाएगी. इस सौदे के एवज में कांग्रेस को मध्य प्रदेश में 25 और छत्तीसगढ़ में 7 लोकसभा सीटों पर बसपा के वोट मिलने से भाजपा की मुश्किलें और बढ़ जाएंगी.

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