देश में आज भी ऐसी कई रूढि़यां हैं जिन पर समाज ज्यादा बोलने से कतराता है. इन्हीं में से एक है माहवारी, जिसे लोग औरतों से जुड़ा मुद्दा होने के चलते शर्म की बात मानते हैं, जबकि माहवारी औरतों के सेहतमंद होने और उन के मां बनने के काबिल होने की एक निशानी है. इस के बावजूद औरतों को माहवारी के दौरान गंदे कपड़े इस्तेमाल करने व साफसफाई न रखने से इंफैक्शन और गर्भाशय के कैंसर जैसी कई गंभीर बीमारियों तक से जूझना पड़ता है.
जो लोग माहवारी को ले कर थोड़ेबहुत जागरूक हैं, वे आज भी दुकानों से सैनेटरी पैड खरीदने में झिझक महसूस करते हैं और खरीदे गए सैनेटरी पैड को काली पन्नी या अखबारी कागज में लपेट कर ही घर ले जाते हैं. लोगों में माहवारी और साफसफाई के प्रति इतनी चुप्पी के बावजूद अचानक इन दिनों सोशल मीडिया पर लोगों के हाथों में सैनेटरी पैड लिए उन की सैल्फी व फोटो खूब वायरल हो रहे हैं. यह सब करना इतना आसान नहीं था. जो काम सालों से सरकार की मुहिम नहीं कर पाई वह माहवारी से जुड़ी एक फिल्म ने कर दिखाया.
इस फिल्म का नाम है ‘पैडमैन’ जिस के हीरो अक्षय कुमार हैं. उन्होंने माहवारी के मुद्दे को बड़ी ही गंभीरता से उठाया है.
यह फिल्म दक्षिण भारत के एक शख्स अरुणाचलम मुरुगनंथम की जिंदगी पर बनी है. इस फिल्म ने रिलीज होने के पहले ही लोगों की रूढि़वादी सोच को बदलने में कामयाबी हासिल कर ली थी. इस फिल्म की कहानी और डायलौग दोनों ही बेहद कसे हुए हैं. इस फिल्म से अक्षय कुमार ने लोगों की माहवारी को ले कर शर्म को दूर करने की भरपूर कोशिश की है. फिल्म में यह बताने की कोशिश भी की गई है कि औरत के लिए शर्म से बढ़ कर कोई बीमारी ही नहीं है.
इस फिल्म में एक जगह अक्षय कुमार अपनी बहनों को सैनेटरी पैड देते हैं तो उन्हें सुनने को मिलता है कि बहन को कोई ऐसी चीज भी देता है क्या? अक्षय कुमार जवाब देते हैं, ‘‘नहीं देता है पर देना चाहिए. राखी बांधी थी न तो रक्षा का वचन निभा रहा था.’’
इस डायलौग से यह जाहिर होता है कि माहवारी को ले कर हमारे समाज की क्या सोच है. फिल्म ‘पैडमैन’ ने इस सोच को पूरी तरह से नकारा है. आज इसी का नतीजा है कि जिस सैनेटरी पैड को लोग दुकानों से खरीदते समय सौ बार सोचते थे वही लोग आज सैनेटरी पैड को हाथ में ले कर फोटो खींच रहे हैं, इस के फायदे गिना रहे हैं.
सोच और शौचालय पिछले साल अक्षय कुमार की ही एक और फिल्म ‘टौयलेट : एक प्रेम कथा’ आई थी. इस फिल्म में खुले में शौच की समस्या को उठाया गया था. पाखंड और मनुवादी सोच पर भी करारी चोट की गई थी.
इस फिल्म का एक डायलौग ‘हां भाभी चलो, सवा 4 हो गए, सब इंतजार कर रहे हैं लोटा पार्टी में तुम्हारे वैलकम का’ साबित करता है कि ज्यादातर रूढि़यों का सामना औरतों को ही करना पड़ता है. इस फिल्म में पाखंड को ले कर बोले गए डायलौग ‘जिस आंगन में तुलसी लगाते हैं वहां शौच करना शुरू कर दें’ से यह जाहिर होता है कि आंखों पर चढ़ी अंधविश्वास की पट्टी बेहतर सेहत की राह में एक बड़ा रोड़ा है.
इस फिल्म की हीरोइन भूमि पेडनेकर एक जगह कहती हैं, ‘‘मर्द तो घर के पीछे बैठ जाते हैं, पर हम तो औरतें हैं हमें तो हर चीज के लिए ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी.’’ अक्षय कुमार भी कहते नजर आते हैं, ‘‘अगर बीवी पास चाहिए तो घर में संडास चाहिए.’’
इन डायलौगों से यह जाहिर होता है कि आज भी लोग लाखों रुपए लगा कर आलीशान मकान बनवा लेते हैं, लेकिन कुछ हजार रुपए लगा कर शौचालय बनवाने में फेल हो जाते हैं. इस सिलसिले में हीरो जफर खान का कहना है कि सामाजिक मुद्दों पर कहानी लिखने वालों की कमी और फिल्म में लगाए गए पैसे डूबने के डर से इस तरह की फिल्में बहुत कम बन पाती हैं. लेकिन जब भी इस तरह की फिल्में बनती हैं तो दर्शक उस फिल्म में दिखाई गई समस्या को खुद से जोड़ कर देखना शुरू कर देते हैं. यही वजह है कि इस तरह की फिल्में कम बजट की होने के बावजूद अच्छी कमाई करती हैं.
पाखंड पर करारा वार धर्म और पाखंड की पोल खोलती एक फिल्म ‘पीके’ आई थी जिस में आमिर खान ने दमदार ऐक्टिंग की थी. इस फिल्म के जरीए यह बताने की कोशिश की गई थी कि चमत्कार नाम की कोई चीज नहीं होती है. फिल्म में उन तथाकथित साधुसंतों को कठघरे में खड़ा किया गया था, जो चमत्कार दिखा कर लोगों को बेवकूफ बनाते हैं.
फिल्म ‘पीके’ ने तर्क के सहारे धर्म और पाखंड के नाम पर दुकान चलाने वालों की बोलती बंद कर दी थी. धार्मिक मूर्तियों की एक दुकान पर आमिर खान कहते हैं कि क्या मूर्ति में ट्रांसमीटर लगा है जो भगवान तक उस की आवाज पहुंचेगी? जब भगवान तक आवाज नहीं पहुंचती, तो मूर्ति की क्या जरूरत? इसे साबित करने के लिए वे कालेज में एक पेड़ के नीचे पड़े एक पत्थर पर लाल रंग पोत देते हैं जिस पर छात्र अपने पास होने की मन्नतें मांगते नजर आते हैं. फिल्म ‘ओह माई गौड’ में धर्म के उन ठेकेदारों पर निशाना साधा गया था जो धर्म की अपनी दुकान को बचाए रखने के लिए क्या कुछ नहीं करते हैं.
इस फिल्म में परेश रावल ने सभी तबकों को कठघरे में खड़ा किया था. फिल्म यह संदेश देने में कामयाब रही थी कि धर्म का डर इनसान खुद अपने मातापिता से सीखता है और आगे चल कर अपनी आने वाली पीढि़यों को भी सिखाता है. इस देश में धर्म का डर दिखा कर सौदे तय किए जाते हैं, तावीजगंडे पहना कर अमीर बनने के ख्वाब दिखाए जाते हैं. धर्म और आस्था के नाम पर लोग भी लुटने को तैयार रहते हैं. औरतों की अस्मत तक लूटी जाती है, लेकिन लोग धर्म के डर से मुंह खोलने से कतराते हैं.
इस मसले पर हीरो रविशंकर मिश्रा का कहना है कि फिल्मों में दिए गए संदेशों का असर दर्शकों के दिमाग पर तब आसानी से होता है, जब समाज में फैली कुरीतियों और समस्याओं से जुड़ी कहानी हो.
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