बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि लोकतंत्र का चौथा खंभा कही जाने वाली पत्रकारिता अब सिर्फ पक्षकारिता बन कर रह गई है. जिन के कंधों पर समाज को नई दिशा दिखाने की जिम्मेदारी थी, जो सच के पहरेदार थे, अब वे लोग एकपक्षीय हो कर जज बन कर फैसले सुनाने लगे हैं. पत्रकारिता की खाल ओढ़ कर वे अब अपने राजनीतिक मालिकों के लिए एजेंडा चलाने लगे हैं.
कुलमिला कर देखा जाए तो पत्रकार किसी महल्ले की चुगलखोर आंटियों की तरह बरताव करने लग गए हैं.
ऐसे माहौल में कुछ पत्रकारों ने अभी भी पत्रकारिता की इज्जत बचा कर रखी है, जो बेबाक हो कर बिना किसी का पक्ष लिए अपनी राय रखते हैं.
ताजा मामला संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ को ले कर है, जिस पर पत्रकार रोहित सरदाना को बेबाक राय रखने के लिए जान से मारने की धमकियां दी जा रही हैं. उन्होंने कहा था कि दूसरे पक्ष की बात को भी सुना जाए. अपनी बात कहने की आजादी के नाम पर आप राधा और दुर्गा के लिए तो गलत शब्दों का इस्तेमाल कर सकते हैं, पर कभी आयशा या फातिमा के नाम पर ऐसी फिल्में या गीत बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं.
मीडिया के इस दोहरेपन पर चोट क्या की गई, गाजियाबाद से ले कर गाजीपुर तक और मुंबई से ले कर दुबई तक, उन को और उन के परिवार को जान से मारने की धमकी मिलनी शुरू हो गई और देशभर के थानों में उन के खिलाफ शिकायत दर्ज हो गई. इस दोहरे मापदंड पर सवाल उठाते ही वही लोग जो सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते हैं चुप्पी साध कर बैठ जाते हैं.
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