बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि लोकतंत्र का चौथा खंभा कही जाने वाली पत्रकारिता अब सिर्फ पक्षकारिता बन कर रह गई है. जिन के कंधों पर समाज को नई दिशा दिखाने की जिम्मेदारी थी, जो सच के पहरेदार थे, अब वे लोग एकपक्षीय हो कर जज बन कर फैसले सुनाने लगे हैं. पत्रकारिता की खाल ओढ़ कर वे अब अपने राजनीतिक मालिकों के लिए एजेंडा चलाने लगे हैं.

कुलमिला कर देखा जाए तो पत्रकार किसी महल्ले की चुगलखोर आंटियों की तरह बरताव करने लग गए हैं.

ऐसे माहौल में कुछ पत्रकारों ने अभी भी पत्रकारिता की इज्जत बचा कर रखी है, जो बेबाक हो कर बिना किसी का पक्ष लिए अपनी राय रखते हैं.

ताजा मामला संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘पद्मावत’ को ले कर है, जिस पर पत्रकार रोहित सरदाना को बेबाक राय रखने के लिए जान से मारने की धमकियां दी जा रही हैं. उन्होंने कहा था कि दूसरे पक्ष की बात को भी सुना जाए. अपनी बात कहने की आजादी के नाम पर आप राधा और दुर्गा के लिए तो गलत शब्दों का इस्तेमाल कर सकते हैं, पर कभी आयशा या फातिमा के नाम पर ऐसी फिल्में या गीत बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं.

मीडिया के इस दोहरेपन पर चोट क्या की गई, गाजियाबाद से ले कर गाजीपुर तक और मुंबई से ले कर दुबई तक, उन को और उन के परिवार को जान से मारने की धमकी मिलनी शुरू हो गई और देशभर के थानों में उन के खिलाफ शिकायत दर्ज हो गई. इस दोहरे मापदंड पर सवाल उठाते ही वही लोग जो सहिष्णुता का पाठ पढ़ाते हैं चुप्पी साध कर बैठ जाते हैं.

यह दोहरा मापदंड आज से नहीं, बल्कि 80 के दशक से है जब राजीव गांधी सरकार ने सलमान रुश्दी का भारत में आना ही बैन कर दिया था. तसलीमा नसरीन और तारिक फतह पर भी कई बार हमले हो चुके हैं.

आज का सब से बड़ा सवाल यह है कि इन सब की भावना तब आहत क्यों नहीं होती जब कोई विवाहिता दहेज के लालचियों द्वारा मार दी जाती है? इन की भावना तब आहत क्यों नहीं होती जब कोई किसान खुदकुशी कर लेता है? इन की भावना तब आहत क्यों नहीं होती जब किसी गरीब की जमीन छीन ली जाती है? इन की भावना तब आहत क्यों नहीं होती जब किसी मासूम बच्ची या औरत से बलात्कार होता है? लेकिन एक फिल्म से इन की भावना आहत हो जाती है और शुरू हो जाता है इतिहास पर मातम मनाना. आखिर क्यों? हम आज भी अपनी सोच को गुर्जर या राजपूत या फिर किसी दूसरी जाति का होने से ऊपर क्यों नहीं उठा पा रहे हैं?

इस फिल्म में जोकुछ दिखाया गया, अगर जनता में जागरूकता होती तो इतना बवाल ही नहीं होता. कुसूर किस का है? हमारा ही है, क्योंकि हम शराफत का लिबास पहने हुए हैं. हमें शराफत के इस लिबास में मुंह छिपा कर जीने की आदत सी पड़ गई है. हर किसी के भीतर वही कुछ दबा हुआ?है, जो मेरेआप और सब के भीतर दबा है. लेकिन हम हैं कि एक निडर नेता के इंतजार में बैठे हुए हैं. नेता आते हैं, हमारी भावनाओं का सौदा करते हैं और फिर हम वहीं के वहीं खड़े रह कर अगले नेता का इंतजार करते हैं. न जाने कितने नेता आए और चले गए लेकिन जनता वहीं की वहीं रह गई.

एक विदेशी कारोबारी आता है और करोड़ों रुपए कमा कर चला जाता है. लेकिन यहां के किसान भूखे मरते हैं. यहां के कारोबारी कर्जे में डूबे मिलते हैं. लेकिन हमारे नेता देखते ही देखते करोड़ों के मालिक बन जाते हैं. फिर वही नेता राजनीतिक पकड़ बनाए रखने के लिए अपनीअपनी सेनाएं बनाते हैं और ये सेनाएं जनता के सेवक होने का मुखौटा लगा कर घूमती हैं.

कुलमिला कर फिल्म ‘पद्मावत’ को ले कर खड़ा किया जा रहा सारा विवाद राजनीतिक फायदा लेने के लिए सत्ताधारी पार्टी और उस के समर्थक दलों की साजिश है. चुनाव हमेशा होते रहते हैं. अब फिर 2 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और उस के बाद अगले साल लोकसभा चुनाव भी होंगे, इसलिए उस विवाद को ठंडा नहीं होने दिया जा रहा है.

अगर आप सब को याद हो तो साल 1996 में आई फिल्म ‘फायर’ के समय भी बहुत बवाल मचा था. उस फिल्म में 2 औरत किरदारों के बीच लैस्बियन संबंध दिखाए गए थे. फिल्म के खास किरदारों के लिए सीता और राधा का नाम इस्तेमाल हुआ था. इस से बहुत हंगामा मचा था. फिल्म के पोस्टर जलाए गए थे. देश में कई जगह तोड़फोड़ की गई थी.

इस के 20 साल बाद साल 2016 में समलैंगिक संबंधों को ले कर एक और फिल्म ‘अलीगढ़’ रिलीज हुई थी. तब तक समाज आगे बढ़ चुका था, इसलिए उस पर किसी तरह का बवाल नहीं मचाया गया.

सवाल उठता है कि अगर हमारी सोच का दायरा नहीं बढ़ेगा तो समाज की समझ कैसे मैच्यौर होगी? हमारा देश कैसे मैच्यौर होगा? यह जल्दी से जल्दी समझने और महसूस करने का मुद्दा है.

यह कैसा समाज है जो किसी सोच को चुनौती देने की जगह उस की सरपरस्ती करता है? अब हमें बदलने की जरूरत है. रूढि़वादी और दकियानूसी परंपराओं को तोड़ने की जरूरत है. फिल्म ‘पद्मावत’ का विरोध हो रहा है तो इसलिए कि राजूपतों के एक छोटे से गिरोह ने इसे पहले जातीय पहचान से जोड़ा और फिर धार्मिक पहचान से. अब यह एक धर्म की पहचान का सवाल बन गया है. यह बड़ी साजिश लगती है.

इसी मुद्दे पर एक विचारक और व्यंग्यकार राजेश सेन से बात की गई. वे इंदौर के रहने वाले हैं और नियमित रूप से अखबार के लिए लिखते हैं. पेश हैं, उन से हुई बातचीत के खास अंश:

यह मुद्दा राजनीति ने गोद लिया है – राजेश सेन

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फिल्म ‘पद्मावत’ पर हुआ विवाद हर किसी के लिए चिंता की बात है. इस पर आप की निजी राय क्या है?

यह मुद्दा इसलिए विवादित बना हुआ है क्योंकि इसे राजनीति ने गोद ले रखा है, वरना यह कभी का हवा हो चुका होता.

इतिहास के लिए हंगामा करना कहां तक सही है?

जिस तरह शिवाजी सिर्फ मराठों के नहीं हैं, महात्मा गांधी सिर्फ गुजरातियों के नहीं हैं, सरदार पटेल सिर्फ पटेलों के नहीं हैं, वैसे ही रानी पद्मिनी सिर्फ राजपूतों की नहीं हैं. वे हमारे देश की साझा विरासत हैं. वे हर भारतीय की पहचान हैं. जो लोग उन का नाम ले कर लोगों को बांट रहे हैं, उन की नीयत को समझिए.

सैंसर बोर्ड के आदेश पर फिल्म का नाम ‘पद्मावती’ से बदल कर ‘पद्मावत’ किया जा चुका है. कई दूसरे बदलाव किए गए हैं. उस के बाद भी विवाद क्यों?

करणी सेना जिस तरह बवाल मचा रही है, वह रानी पद्मिनी से नहीं बल्कि अलाउद्दीन खिलजी से ज्यादा प्रभावित दिखती है. वह उस के रास्तों पर चलती नजर आ रही है. जो रानी पद्मिनी और रावल रतन सिंह को अपना पूर्वज मानते हैं, वे ऐसा बवाल नहीं मचा सकते.

इसका मतलब यह है कि कुछ भी लिखने से पहले करणी सेना जैसे सैकड़ों गुटों से रजामंदी लो?

अजीब उलटबांसी है कि इतिहास में भी लड़ा गया और अब उस इतिहास के नाम पर भी लड़ा जा रहा है, जबकि यह तो हमारा इतिहास ही नहीं है. और जो इतिहास था, उसे तो हम कभी का भूलाबिसरा बना चुके हैं.

शायद हम इतिहास के दृश्यों को रजामंदी के साथ वर्तमान के रुपहले परदे पर ईमानदारी से कैद नहीं करना चाहते या फिर हम इतिहास के नामजद पात्रों की हिफाजत करने में खुद ही दूसरों पर जुल्म करने वाले बन जाना चाहते हैं.

सत्ता के चंद लालची व उठाईगीर किस्म के लोग, निजी फायदों से जुड़े लोग इस फिल्म की आड़ में जातीय और धार्मिक भावनाएं भड़का रहे हैं. क्या यह तरीका सही है?

कथाओं को इतिहास के पन्नों से बेइज्जत खदेड़ कर वर्तमान के चौराहों पर खड़ा करने की यह हमारी अजीब ही जल्दबाजी है, जबकि वह कथा खुद कभी की अपने को बिसरा भी चुकी है और हम भी अपने पुरखों का तर्पण कर कभी से उन्हें अपनी उम्रदराज यादों से खारिज कर चुके हैं. अब बिसरी हुई बातों पर अपने हक का नाच करने से आखिर हमें क्या हासिल होना है?

इतिहास अकसर हकीकत को लिखतेलिखते खुद कथा बन जाते हैं. वह कथा जिसे हम बड़े करीने से अपनी उजली यादों में मोरपंख की तरह संजो कर रख लेना चाहते हैं.

आज धर्म खतरे में है. जातियों की पहचान भी मुसीबत में है. पूरे देश में अजीब सी लहर है. धर्म और जाति के ठेकेदार छोटीछोटी बातों पर दूसरों को ललकार रहे हैं. क्यों?

हम लोग अपने मनमंदिर में समय को देवता बना कर हमेशा ही पूज लेना चाहते हैं, जबकि हमें पता है कि मौजूदा वर्तमान को भी कल को इतिहास बन कर हमारी आने वाले पीढि़यों की यादों में बेबसी से कैद हो कर रह जाना है. वे खट्टीमीठी यादें, जो हमारे घरों में लगे तारीखों के कलैंडर की फड़फड़ाहट के साथ जबतब हम से हर पल विदा होती रहती हैं, सत्ता के चंद लालची और उठाईगीर किस्म के लोग इस का फायदा उठाते हैं. वे इस फिल्म की आड़ में जातीय और धार्मिक भावनाएं भड़का रहे हैं.

आप इस फिल्म के लिए लोगों को कोई संदेश देना चाहेंगे?

मैं तो यही कहूंगा कि फिल्म ‘पद्मावत’ देखें. यह करणी सेना और उस के आगे झुके हुक्मरानों के खिलाफ हमारा विरोध होगा और उन तमाम लोगों के मुंह पर एक तमाचा होगा जो एक शख्स को उस के विचार जाहिर करने से रोकते हैं. उसे उस का काम करने से रोकते हैं.

राजपूतों के तथाकथित ठेकेदारों और उन की बनाई करणी सेना के घमंड को तोड़ने की जरूरत है. उन के आगे सजदा कर चुके हुक्मरानों की बुजदिली को चुनौती देने की जरूरत है.

पर क्या अब समाज को बदलना मुमकिन है?

यह तभी मुमकिन होगा जब समाज के तमाम लोग इस साजिश के खिलाफ खुल कर आवाज उठाएंगे. सभी अपने गलीनुक्कड़ में, चौकचौराहों और सोशल नैटवर्क के पन्नों पर इस तरह के बैन लगाने की सोच की खुल कर खिलाफत करें.

जब इस फिल्म के समर्थन में मजबूत आवाज उठेगी तो करणी सेना जैसे तमाम गिरोहों के हौसले टूट जाएंगे. उन की दुकान बंद हो जाएगी. उन के आगे झुके हुक्मरान शर्मिंदा होंगे और भविष्य में वे ऐसे बैन लगाने का अपराध नहीं करेंगे.

क्या यह अपनी बात कहने की आजादी के खिलाफ है?

कितने शर्म की बात है कि आज भी यहां कोई बात कहने की आजादी पर देश में लंबी बहस चलती है. वह भी इसलिए कि फिल्मकारों को क्या दिखाना चाहिए, क्या नहीं दिखाना चाहिए. यही नहीं, पत्रकारों को क्या लिखना और बोलना चाहिए और क्या नहीं, इस मुद्दे पर तमाम अखबारों और न्यूज चैनलों पर घंटों बहस हो चुकी है.

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