25 साल तक प्रशासकीय राज के बाद जब पहली बार निकाय चुनाव हुए, तो एक मेयर ने विश्व बैंक की टीम को अपने शहर बुलाया. टीम ने शहर देखते ही कहा- इतना गंदा शहर? यहां कूड़ा सड़कों पर फेंका जाता है! इसके बाद विश्व बैंक की टीम ने डस्टबिन दिए. डस्टबिन लगे, लेकिन शहर की हालत जस की तस रही. इस घटना के 27 साल बाद भी हमारे शहरों की हालत बदली नहीं है.

हाल ही में उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकाय चुनाव हुए हैं. नतीजों पर गुणा-भाग और सियासी नफा-नुकसान पर चिंतन जारी है. लेकिन असल जरूरत इस गुणा-भाग पर नहीं, नगर निगमों की भूमिका पर चिंतन करने की है, ताकि ये महज बड़ी राजनीति की नर्सरी न बनकर कुछ जमीनी नतीजे दे सकें.

स्थानीय निकाय 25 साल तक प्रशासकों के अधीन रहे. 1989 में पहली बार मेयर चुने गए, तब मेयर सीधे नहीं चुने जाते थे, बल्कि पार्षद चुनते थे. खूब जोड़-तोड़ होती थी. बाद में सीधे चुनावों ने इसे राजनीतिक प्रतिष्ठा का प्रश्न बना दिया. कामकाज ने नजरिये से देखें, तो नगर निगमों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है. इसीलिए इसे उस शहर विशेष की सरकार कहा जाता है. लेकिन सच यही है कि अफसरशाही के फेर में स्थानीय निकायों की हालत कमजोर ही होती गई है. निकायों की हालत सुधारने के लिए लाया गया 74वां संविधान संशोधन विधेयक भी अफसरशाही की भेंट चढ़ गया, वरना शायद स्थिति कुछ और ही होती.

आज हालत यह है कि निकायों के पास न विकास का कोई खाका है, और न ही अपनी संपत्ति का लेखा-जोखा. अपना काम या भूमिका तक ठीक से पता नहीं. यही आलम सफाई का है. बढ़ती आबादी के साथ समस्याएं बढ़ीं, लेकिन क्या संसाधन भी उस अनुपात में बढ़े? गंदगी बढ़ती गई, नई नियुक्ति न होने से सफाई घटते गए. निकायों की राजनीतिक तस्वीर भले ही उज्‍जवल दिखे, शहरों की तस्वीर बेहद गंदी है. जन-स्वास्थ्य और जन-सुविधा, दोनों मोर्चो पर ये फेल साबित हुए हैं.

हालांकि वित्तीय संसाधनों के मामले में अब पहले जैसा संकट नहीं है. प्रदेश और केंद्र की तमाम योजनाएं निकायों के माध्यम से ही क्रियान्वित हो रही हैं. अमृत और नमामि गंगे जैसे हजारों करोड़ के प्रोजेक्ट नगर निगमों के हाथ में हैं. किसी भी अच्छे-खासे नगर निगम का सालाना बजट 250 से 400 करोड़ रुपये से कम नहीं होता. बड़े नगर निगमों में तो यह और भी ज्यादा है. यानी एक मेयर अपने कार्यकाल में एक-डेढ़ हजार करोड़ के बजट का मालिक होता है. स्मार्ट सिटी के एक हजार करोड़ और जोड़ लें, तो दो-तीन हजार करोड़ में तो कोई भी शहर चमक सकता है. याद नहीं पड़ता कि किसी नगर निगम या निकाय ने कस्बों या महानगर को कुछ सौगात दी हो. वहां विकास के नाम पर अनियोजन है. कमीशनखोरी है. राजनीति है. बैठकें या तो होती नहीं, और अगर होती भी हैं, तो हंगामे की भेंट चढ़ जाती हैं.

अब मेयर की बात करें. कहने को वह महानगर का प्रथम नागरिक होता है, लेकिन उसके पास कोई प्रशासनिक अधिकार नहीं है. डीएम-कमिश्नर उसकी सुनते नहीं, नगर आयुक्त से टकराव ही रहता है. यहां दिल्ली की तरह दो बॉस होते हैं. कर्मचारियों का बॉस नगर आयुक्त, पार्षदों का मेयर. दोनों एक-दूसरे की नहीं सुनते. मेयर कौंसिल जनता के प्रति जवाबदेही के मद्देनजर उनको भी अधिकार दिए जाने की लंबे समय से मांग कर रही है, लेकिन आज तक यह संभव नहीं हुआ. हर व्यक्ति और हर घर से जुड़े इस बड़े महकमे को सुधारने की बड़ी आवश्यकता है. जनता से मिले जनादेश का मकसद तभी पूरा समझा जा सकता है, जब स्थानीय निकाय कुछ करें. वार्ड हो या शहर एक छोटी इकाई है, लेकिन विकास की परिभाषा यहीं से तय होने लगती है.

स्थानीय निकायों के कामकाज को एक बड़े क्षितिज की आवश्यकता है, जिसमें शहरों की आबादी, समस्याएं, सुविधाएं, संसाधन आदि पर चर्चा हो. जब महाराष्ट्र, बंगाल या गुजरात में स्थानीय निकाय बेहतर कार्य कर सकते हैं, तो यूपी में क्यों नहीं? हम अपने को सुंदर रख सकते हैं, तो शहर को क्यों नहीं? मेयर-पार्षद अपनी राजनीति चमका सकते हैं, तो शहर को क्यों नहीं? उम्मीद की जानी चाहिए कि नई चुनौतियों व भारी जन-समर्थन से सत्ता में आ रही शहरों की ये सरकारें कुछ नया करेंगी.

साभार : सूर्यकांत द्विवेदी

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