दो साल पहले की बात है, जब नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने दिल्ली सरकार, एमसीडी और दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति को निर्देश दिया था कि वे देर शाम से सुबह तक दिल्ली की सीमा पर बाहर से आने वाले व्यावसायिक वाहनों की जांच करें और पता लगाएं कि प्रदूषण, वजन और फिटनेस के स्तर पर ये वाहन दिल्ली को कितना प्रदूषित करते हैं? एनजीटी ने यह भी बताया था कि विश्वसनीयता के लिए चेकिंग के वक्त किस स्तर के अधिकारियों को मौजूद रहना चाहिए. उस जांच का क्या हुआ? क्या रिपोर्ट आई? क्या कदम उठाए गए? बहस का मुद्दा यह नहीं है.
मुद्दा यह है कि आखिर एनजीटी को इतनी बारीकी में जाकर उन संस्थाओं को निर्देश क्यों देना पड़ा, जिन पर इस सब की अंतिम जिम्मेदारी थी? यह सब उन शुरुआती रिपोर्टो के बाद हुआ था, जिनमें दिल्ली की आबोहवा तेजी से खराब होने की बात थी और चेताया गया था कि समय रहते इंतजाम न हुए, तो नतीजे भयावह होंगे. आज के हालात को देखकर लगता है कि दिल्ली उस अपेक्षाकृत कम गंभीर अलार्म पर कुछ भी चेती होती, तो हालात इतने बदतर न होते. थोड़ा कुछ भी हुआ होता, तो शायद हर अक्तूबर-नवंबर में पहले स्मॉग का इंतजार और फिर इस पर हाय-तौबा की नौबत नहीं आती.
सच यही है कि हमने कुछ नहीं किया. बस साल-दर-साल स्मॉग देखने के बाद बैठकें होती रहीं. एनजीटी दिल्ली के साथ-साथ पंजाब, हरियाणा, यूपी, राजस्थान को भी लताड़ लगाती रही. दिल्ली सरकार से प्रदूषण या स्मॉग के आंकड़े मांगती रही और पूछती रही कि उसके पास अपने इंतजामों से स्मॉग कम करने के कौन से तथ्य मौजूद हैं? बहुत कुछ पूछा और बताया गया, लेकिन जमीन पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, जो नतीजा दिखाता.
अब जब दिल्ली और उत्तर भारत का बड़ा हिस्सा एक बार फिर इस जहरीली धुंध को झेल रहा है, तो फटकार और जवाबदेही का कोरस भी फिर से गूंज रहा है. कभी इसके स्वर तेज होते हैं, तो कभी मद्धिम, लेकिन हकीकत यही है कि जनता आकाश में छाई इस काली चादर से परेशान है. नतीजा मंगलवार को एनजीटी ने एक बार फिर सरकार को लताड़ा है. पूछा है कि आखिर उसे यह कैसे महसूस कराया जाए कि हालात हेल्थ इमरजेंसी के हैं और यह कि इसके लिए वह क्या कर रही है? इस बात से असहमत होने का कोई कारण नहीं कि संकट से निपटने के मानकों में छूट की बात ही नहीं आनी चाहिए.
एनजीटी की इस चिंता से कोई कैसे असहमत हो सकता है कि ‘आप बच्चों को बीमार फेफड़ों का उपहार कैसे और क्यों दे रहे हैं?’ सच तो यही है कि हालात को देखते हुए सरकार को किसी एनजीटी का मुंह देखने की जरूरत ही नहीं थी. हालात पिछले वर्षो से ज्यादा गंभीर हैं. शिथिलता का आलम उससे भी ज्यादा गंभीर. यह सब उस प्रवृत्ति का नतीजा है, जो हमें छोटी सी मुश्किल को भयावह रूप लेने तक इंतजार करना सिखाती है. दिल्ली सरकार ने नियमों में शिथिलता का अपना आवेदन अब भले ही वापस ले लिया हो, लेकिन बेहतर होता कि वह छूट देने के तर्क की बजाय अतिरिक्त संसाधनों की बात करती. अब भी बहुत कुछ हो सकता है. टाल-मटोल और दूसरों पर जिम्मेदारी फेंकना बहुत हो चुका. अब समस्या की जटिलता को महसूस करने का समय है.
एनजीटी की नाराजगी के सकारात्मक स्वर को पहचानने की जरूरत है. ऐसा न हो कि अभी तो हम इस पर बात भी कर रहे हैं, कल शायद हम इस लायक ही न बचें. क्या जरूरी नहीं कि हम अभी से ऐसे कदम उठाने शुरू करें कि अब तक जो हुआ सो हुआ, कम से कम आने वाले समय में तो इस संकट से मुक्ति की नई राह बना सकें?