इधर कई दिनों से मैं बड़ी उलझन में थी. मेरे ससुर की बरसी आने वाली थी. मन में जब सोचती तो इसी नतीजे पर पहुंचती कि बरसी के नाम पर पंडितों को बुला कर ठूंसठूंस कर खिलाना, सैकड़ों रुपयों की वस्तुएं दान करना, उन का फिर से बाजार में बिकना, न केवल गलत बल्कि अनुचित कार्य है. इस से तो कहीं अच्छा यह है कि मृत व्यक्ति के नाम से किसी गरीब विद्यार्थी को छात्रवृत्ति दे दी जाए या किसी अस्पताल को दान दे दिया जाए. यों तो बचपन से ही मैं अपने दादादादी का श्राद्ध करने का पाखंड देखती आई थी. मैं भी उस में मजबूरन भाग लेती थी. खाना भी बनाती थी. पिताजी तो श्राद्ध का तर्पण कर छुट्टी पा जाते थे. पर पंडित व पंडितानी को दौड़दौड़ कर मैं ही खाना खिलाती थी. जब से थोड़ा सा होश संभाला था तब से तो श्राद्ध के दिन पंडितजी को खिलाए बिना मैं कुछ खाती तक नहीं थी. पर जब बड़ी हुई तो हर वस्तु को तर्क की कसौटी पर कसने की आदत सी पड़ गई. तब मन में कई बार यह प्रश्न उठ खड़ा होता, ‘क्या पंडितों को खिलाना, दानदक्षिणा देना ही पूर्वजों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने का सर्वश्रेष्ठ तरीका है?’
हमारे यहां दादाजी के श्राद्ध के दिन पंडितजी आया करते थे. दादीजी के श्राद्ध के दिन अपनी पंडितानी को भी साथ ले आते थे. देखने में दोनों की उम्र में काफी फर्क लगता था. एक दिन महरी ने बताया कि यह तो पंडितजी की बहू है. बड़ी पंडितानी मर चुकी है. कुछ समय बाद पंडितजी का लड़का भी चल बसा और पंडितजी ने बहू को ही पत्नी बना कर घर में रख लिया.
मन एक वितृष्णा से भर उठा था. तब लगा विधवा विवाह समाज की सचमुच एक बहुत बड़ी आवश्यकता है. पंडितजी को चाहिए था कि बहू के योग्य कोई व्यक्ति ढूंढ़ कर उस का विवाह कर देते और तब वे सचमुच एक आदर्श व्यक्ति माने जाते. पर उन्होंने जो कुछ किया, वह अनैतिक ही नहीं, अनुचित भी था. बाद में सुना, उन की बहू किसी और के साथ भाग गई.
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मन में विचारों का एक अजीब सा बवंडर उठ खड़ा होता. जिस व्यक्ति के प्रति मन में मानसम्मान न हो, उसे अपने पूर्वज बना कर सम्मानित करना कहां की बुद्धिमानी है. वैसे बुढ़ापे में पंडितजी दया के पात्र तो थे. कमर भी झुक गई थी, देखभाल करने वाला कोई न था. कभीकभी चौराहे की पुलिया पर सिर झुकाए घंटों बैठे रहते थे. उन की इस हालत पर तरस खा कर उन की कुछ सहायता कर देना भिन्न बात थी, पर उन की पूजा करना किसी भी प्रकार मेरे गले न उतरता था.
अपने विद्यार्थी जीवन में तो इन बातों की बहुत परवा न थी, पर अब मेरा मन एक तीव्र संघर्ष में जकड़ा हुआ था. इधर जब से मैं ने एक महिला रिश्तेदार की बरसी पर दी गई वस्तुओं के लिए पंडितानियों को लड़तेझगड़ते देखा तो मेरा मन और भी खट्टा हो गया था. पर क्या करूं ससुरजी की मृत्यु के बाद से हर महीने उसी तिथि पर एक ब्राह्मण को तो खाना खिलाया ही जा रहा था.
मैं ने एक बार दबी जबान से इस का विरोध करते हुए अपनी सास से कहा कि बाबूजी के नाम पर कहीं और पैसा दिया जा सकता है पर उन्होंने यह कह कर मेरा मुंह बंद कर दिया कि सभी करते हैं. हम कैसे अपने रीतिरिवाज छोड़ दें.
मेरी सास वैसे ही बहुत दुखी थीं. जब से ससुरजी की मृत्यु हुई थी, वे बहुत उदास रहती थीं, अकसर रोने लगती थीं. कहीं आनाजाना भी उन्होंने छोड़ दिया था. सो, उन्हें अपनी बातों से और दुखी करने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी. पर दूसरी ओर मन अपनी इसी बात पर डटा हुआ था कि जब हम चली आ रही परंपराओं की निस्सारता समझते हैं और फिर भी आंखें मूंद कर उन का पालन किए जाते हैं तो हमारे यह कहने का अर्थ ही क्या रह जाता है कि हम जो कुछ भी करते हैं, सोचसमझ कर और गुणदोष पर विचार कर के करते हैं.
मैं ने अपने पति से कहा कि वे अम्माजी से बात करें और उन्हें समझाने का प्रयत्न करें. पर उन की तरफ से टका सा जवाब मिल गया, ‘‘भई, यह सब तुम्हारा काम है.’’
वास्तव में मेरे पति इस विषय में उदासीन थे. उन्हें बरसी मनाने या न मनाने में कोई एतराज न था. अब तो सबकुछ मुझे ही करना था. मेरे मन में संघर्ष होता रहा. अंत में मुझे लगा कि अपनी सास से इस विषय में और बात करना, उन से किसी प्रकार की जिद कर के उन के दुखी मन को और दुखी करना मेरे वश की बात नहीं. सो, मैं ने अपनेआप को जैसेतैसे बरसी मनाने के लिए तैयार कर लिया.
हम लोग आदर्शों की, सुधार की कितनी बड़ीबड़ी बातें करते हैं. दुनियाभर को भाषण देते फिरते हैं. लेकिन जब अपनी बारी आती है तो विवश हो वही करने लगते हैं जो दूसरे करते हैं और जिसे हम हृदय से गलत मानते हैं. मेरे स्कूल में वादविवाद प्रतियोगिता हो रही थी. उस में 5वीं कक्षा से ले कर 10वीं कक्षा तक की छात्राएं भाग ले रही थीं. प्रश्न उठा कि मुख्य अतिथि के रूप में किसे आमंत्रित किया जाए. मैं ने प्रधानाध्यापिका के सामने अपनी सास को बुलाने का प्रस्ताव रखा, वे सहर्ष तैयार हो गईं.
पर मैं ने अम्माजी को नहीं बताया. ठीक कार्यक्रम से एक दिन पहले ही बताया. अगर पहले बताती तो वे चलने को बिलकुल राजी न होतीं. अब अंतिम दिन तो समय न रह जाने की बात कह कर मैं जोर भी डाल सकती थी.
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अम्माजी रामचरितमानस पढ़ रही थीं. मैं ने उन के पास जा कर कहा, ‘‘अम्माजी, कल आप को मेरे स्कूल चलना है, मुख्य अतिथि बन कर.’’
‘‘मुझे?’’ अम्माजी बुरी तरह चौंक पड़ीं, ‘‘मैं कैसे जाऊंगी? मैं नहीं जा सकती.’’
‘‘क्यों नहीं जा सकतीं?’’
‘‘नहीं बहू, नहीं? अभी तुम्हारे बाबूजी की बरसी भी नहीं हुई है. उस के बाद ही मैं कहीं जाने की सोच सकती हूं. उस से पहले तो बिलकुल नहीं.’’
‘‘अम्माजी, मैं आप को कहीं विवाहमुंडन आदि में तो नहीं ले जा रही. छोटीछोटी बच्चियां मंच पर आ कर कुछ बोलेंगी. जब आप उन की मधुर आवाज सुनेंगी तो आप को अच्छा लगेगा.’’
‘‘यह तो ठीक है. पर मेरी हालत तो देख. कहीं अच्छी लगूंगी ऐसे जाती हुई?’’
‘‘हालत को क्या हुआ है आप की? बिलकुल ठीक है. बच्चों के कार्यक्रम में किसी बुजुर्ग के आ जाने से कार्यक्रम की रौनक और बढ़ जाती है.’’
‘‘मुझे तो तू रहने ही दे तो अच्छा है. किसी और को बुला ले.’’
‘‘नहीं, अम्माजी, नहीं. आप को चलना ही होगा,’’ मैं ने बच्चों की तरह मचलते हुए कहा, ‘‘अब तो मैं प्रधानाध्यापिका से भी कह चुकी हूं. वे क्या सोचेंगी मेरे बारे में?’’
‘‘तुझे पहले मुझ से पूछ तो लेना चाहिए था.’’
‘‘मुझे मालूम था. मेरी अच्छी अम्माजी मेरी बात को नहीं टालेंगी. बस, इसीलिए नहीं पूछा था.’’
‘‘अच्छा बाबा, तू मानने वाली थोड़े ही है. खैर, चली चलूंगी. अब तो खुश है न?’’
‘‘हां अम्माजी, बहुत खुश हूं,’’ और आवेश में आ कर अम्माजी से लिपट गई. दूसरे दिन मैं तो सुबह ही स्कूल आ गई थी. अम्माजी को बाद में ये नियत समय पर स्कूल छोड़ गए थे. एकदम श्वेत साड़ी से लिपटी अम्माजी बड़ी अच्छी लग रही थीं.
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ठीक समय पर हमारा कार्यक्रम शुरू हो गया. प्रधानाध्यापिका ने मुख्य अतिथि का स्वागत करते हुए कहा, ‘‘आज मुझे श्रीमती कस्तूरी देवी का मुख्य अतिथि के रूप में स्वागत करते हुए बड़ा हर्ष हो रहा है. उन्होंनेअपने दिवंगत पति की स्मृति में स्कूल को
2 ट्रौफियां व 10 हजार रुपए प्रदान किए हैं. ट्रौफियां 15 वर्षों तक चलेंगी और वादविवाद व कविता प्रतियोगिता में सब से अधिक अंक प्राप्त करने वाली छात्राओं को दी भी जाएंगी. 10 हजार रुपयों से 25-25 सौ रुपए 4 वषोें तक हिंदी में सब से अधिक अंक प्राप्त करने वाली छात्राओं को दिए जाएंगे. मैं अपनी व स्कूल की ओर से आग्रह करती हूं कि श्रीमती कस्तूरीजी अपना आसन ग्रहण करें.’’
तालियों की गड़गड़ाहट से हौल गूंज उठा. मैं कनखियों से देख रही थी कि सारी बातें सुन कर अम्माजी चौंक पड़ी थीं. उन्होंने मेरी ओर देखा और चुपचाप मुख्य अतिथि के आसन पर जा बैठी थीं. मैं ने देखा, उन की आंखें छलछला आई हैं, जिन्हें धीरे से उन्होंने पोंछ लिया.
सारा कार्यक्रम बड़ा अच्छा रहा. छात्राओं ने बड़े उत्साह से भाग लिया. अंत में विजयी छात्राओं को अम्माजी के हाथों पुरस्कार बांटे गए. मैं ने देखा, पुरस्कार बांटते समय उन की आंखें फिर छलछला आई थीं. उन के चेहरे से एक अद्भुत सौम्यता टपक रही थी. मुझे उन के चेहरे से ही लग रहा था कि उन्हें यह कार्यक्रम अच्छा लगा.
अब तक तो मैं स्कूल में बहुत व्यस्त थी. लेकिन कार्यक्रम समाप्त हो जाने पर मुझे फिर से बरसी की याद आ गई.
दूसरे दिन मैं ने अम्माजी से कहा, ‘‘अम्माजी, बाबूजी की बरसी को 15 दिन रह गए हैं. मुझे बता दीजिए, क्याक्या सामान आएगा. जिस से मैं सब सामान समय रहते ही ले आऊं.’’
‘‘बहू, बरसी तो मना ली गई है.’’
‘‘बरसी मना ली गई है,’’ मैं एकदम चौंक पड़ी, ‘‘अम्माजी, आप यह क्या कह रही हैं?’’
‘‘हां, शीला, कल तुम्हारे स्कूल में ही तो मनाईर् गई थी. कल से मैं बराबर इस बारे में सोच रही हूं. मेरे मन में बहुत संघर्ष होता रहा है. मेरी आंखों के सामने रहरह कर 2 चित्र उभरे हैं. एक पंडितों को ठूंसठूंस कर खाते हुए, ढेर सारी चीजें ले जाते हुए. फिर भी बुराई देते हुए, झगड़ते हुए. मैं ने बहुत ढूंढ़ा पर उन में तुम्हारे बाबूजी कहीं भी न दिखे.’’
‘‘दूसरा चित्र है उन नन्हींनन्हीं चहकती बच्चियों का, जिन के चेहरों से अमित संतोष, भोलापन टपक रहा है, जो तुम्हारे बाबूजी के नाम से दिए गए पुरस्कार पा कर और भी खिल उठी हैं, जिन के बीच जा कर तुम्हारे बाबूजी का नाम अमर हो गया है.’’
मैं ने देखा अम्माजी बहुत भावुक हो उठी हैं.
‘‘शीला, तू ने कितने रुपए खर्च किए?’’
‘‘अम्माजी, 11 हजार रुपए. 5-5 सौ रुपए की ट्रौफी और 10 हजार रुपए नकद.’’
‘‘तू ने ठीक समय पर इतने सुंदर व अर्थपूर्ण ढंग से उन की बरसी मना कर मेरी आंखें खोल दीं.’’
‘‘ओह, अम्माजी.’’ मैं हर्षातिरेक में उन से लिपट गई. तभी ये आ गए, बोले, ‘‘अच्छा, आज तो सासबहू में बड़ा प्रेमप्रदर्शन हो रहा है.’’
‘‘अच्छाजी, जैसे हम लड़ते ही रहते हैं,’’ मैं उठते हुए बनावटी नाराजगी दिखाते हुए बोली.
ये धीरे से मेरे कान में बोले, ‘‘लगता है तुम्हें अपने मन का करने में सफलता मिल गई है.’’
‘‘हां.’’
‘‘जिद्दी तो तुम हमेशा से हो,’’ ये मुसकरा पड़े, ‘‘ऐसे ही जिद कर के तुम ने मुझे भी फंसा लिया था.’’
‘‘धत्,’’ मैं ने कहा और मेरी आंखें एक बार फिर अम्माजी के चमकते चेहरे की ओर उठ गईं.
VIDEO : कलरफुल स्ट्रिप्स नेल आर्ट
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