अभिनेता गोविंदा अपने कैरियर की ढलान पर हैं. सालों से कोई सफल फिल्म देने में असफल रहे गोविंदा ने अपने होम प्रोडक्शन में ‘आ गया हीरो’ फिल्म से बतौर सोलो हीरो वापसी की तो यह फिल्म भी बुरी तरह से पिट गई. अब उन्हें अपने कैरियर को ले कर नई रणनीति बनाने की जरूरत है. एक समय में वे भले ही स्टार थे, उन की तूती बोलती थी, पर अब समय पूरी तरह से बदल चुका है. अब उन का कड़ा मुकाबला ऊर्जावान कलाकारों से है. ऐसे में गोविंदा अपनी पुरानी अदाओं व घिसेपिटे फार्मूलों पर आधारित फिल्मों की बदौलत दोबारा स्टारडम हासिल कर पाएंगे, बहुत मुश्किल लगता है.

फिल्म इंडस्ट्री में प्रवेश पाना उन के लिए मुश्किल भले ही था, पर अपनी जिंदादिली और हंसमुख स्वभाव की वजह से वे बहुत कम समय में दर्शकों के चहेते बन गए थे. उन के जैसी कौमेडी करने वाला अभिनेता आज भी नहीं है. यही वजह थी कि उन्होंने एक समय में 3 हफ्तों में 49 फिल्में साइन की थीं. यह अलग बात है कि आज उन के पास एक भी ढंग की फिल्म नहीं है.

गोविंदा का असली नाम गोविंद अरुण कुमार आहूजा है. अपने 6 भाईबहनों में सब से छोटे होने की वजह से उन्हें चीची बुलाया जाता है, जिस का पंजाबी में शाब्दिक अर्थ छोटी उंगली होता है. गोविंदा को फिल्मों में आने की प्रेरणा फिल्म ‘डिस्को डांसर’ से मिली, जिस में मिथुन चक्रवर्ती के डांस से वे काफी प्रभावित हुए. अपने डांस की वीडियो कैसेट्स बना कर वे फिल्म निर्माताओं को भेजते रहते थे.

गोविंदा को फिल्मों में लीड रोल उन के मामा आनंद सिंह ने फिल्म ‘तनबदन’ में दिया, जो ऋषिकेश मुखर्जी के सहायक निर्देशक थे. उन की पहली फिल्म ‘लव 86’ थी. ‘स्ट्रीट डांसर’ फिल्म में उन का अभिनय उन के कैरियर का टर्निंगपौइंट था. इस के बाद उन्हें पीछे मुड़ कर देखना नहीं पड़ा. अपनी इस सफलता का श्रेय वे अपनी मां को देते हैं जिन्होंने हर समय उन्हें आगे बढ़ने का साहस दिया.

आज गोविंदा वैसे ही चुस्तदुरुस्त दिखते हैं. अपने फिल्मी सफर की शुरुआत व संघर्ष को ले कर वे कहते हैं, ‘‘पहले फिल्मों में आना आसान नहीं था. किसी भी प्रोडक्शन हाउस के बाहर घंटों बैठे इंतजार करते रहना पड़ता था. जब प्रोड्यूसर आता था तो मैं सर, सर करता हुआ आगे बढ़ता, लेकिन तब तक वे आगे निकल जाते. इस तरह इंतजार चलता रहता था. इस सिस्टम से बाहर आने के लिए मैं वहां की यूनिट के लोगों को वीडियो कैसेट्स बना कर उन के हाथ में दे दिया करता था और निर्मातानिर्देशक के फ्री होने पर उन्हें देने को कहता था. यह आसान तरीका था. उन्हें इस काम के लिए कभीकभी खाना खिला दिया करता था. इस तरह सही मैसेज मुझे उन लोगों से मिलता था.

वे आगे कहते हैं, ‘‘मुझे बाहर से अधिक संघर्ष नहीं करना पड़ा था. कई बार निर्देशक मुझे बुला कर बातचीत कर लेते थे. मेरे काम की तारीफें भी करते थे और चांस देने की बात भी करते थे. इस तरह कोई मुझे अंदर आने से रोकता नहीं था.

वे आगे कहते हैं, ‘‘फिर एक समय ऐसा भी आया जब मैं ने 3 हफ्तों में 49 फिल्में साइन की थीं. मुझे लगा कि यह थोड़ा अधिक हो रहा है, कैसे और कब करूंगा, समझ नहीं पा रहा था. मेरी सैक्रेटरी कीर्ति मुझे इतना काम करने से मना करती थी ताकि मैं बीमार न हो जाऊं. बीमारी की वजह से कई बार अस्पताल में भी रहा. उस समय लोग ऐसे ही काम करते थे. अब फिल्मलाइन अलग हो चुकी है, यह सही भी है, मैं उसे मिस नहीं करता.’’

अपनी कमजोरी और स्ट्रौंग पौइंट्स की उन्हें कब समझ आई, इस सवाल पर गोविंदा बताते हैं, ‘‘अभिनय के क्षेत्र में मुझे समझा दिया गया था कि जो लोग फिल्म देखने आ रहे है उन्हें आप की मेहनत के बारे में कुछ पता नहीं है. अगर फिल्म अच्छी नहीं बनी तो वे उसे नकार देंगे, इस का मुझे भय था. इसलिए ईमानदारी अधिक हुई और मेहनत दोगुनी हो गई. समय कम था, अधिक फिल्में साइन कर ली थीं. भाषा का ज्ञान अधिक नहीं था. सबकुछ सुधारने में बहुत मेहनत करनी पड़ी.

‘‘मैं जब कामयाबी के शिखर पर था तो मेरी मां बीमार पड़ गईं. मेरे पास उन से मिलने का समय नहीं था. उन्होंने कहा कि मेरा अंतिम समय आ गया है और उन्होंने 49 वर्ष की उम्र तक काम करने का आशीर्वाद दिया. मैं हंसने लगा और कहा कि आप के बिना जिंदगी नहीं. लेकिन वे अब नहीं रहीं. मैं ने कामयाबी पाई, दुनिया देखी और यहां तक पहुंचा हूं. पहले मैं काम कर के सोचता था, अब सोच कर काम करता हूं.’’

हिंदी सिनेमा इंडस्ट्री में आए बदलाव को ले कर गोविंदा का मानना है, ‘‘उस समय लोगों को अपने काम से बहुत लगाव था. सब लोग सच्चे दिल से काम करते थे. सही हो या गलत, लोग सामने कहने से घबराते नहीं थे. इस से काम में भी फर्क आता था. आज के कलाकारों में वह व्याकुलता दिखाई नहीं देती. सभी ने गैजेट्स के जरिए दुनिया को देख लिया है. वे काम से पहले उस की तकनीक को समझ लेते हैं. इसलिए इन के द्वारा किए गए काम से दर्शक भी कनैक्ट नहीं होते और एक फिल्म को एक बार देखने के बाद दोबारा देखना नहीं चाहते.

‘‘मुझे याद आता है जब मेरी मां बहुत बीमार थीं और उन का अंतिम समय आ चुका था तो मैं हर दिन उन से क्या पूछना है, उस की लिस्ट बनाता था. उन से मिल कर रोता था और सैट पर आ कर कौमेडी सींस करता था, डरता था कि कब वे मुझे छोड़ कर दुनिया से चली जाएं और मैं यहां काम ही करता रहूं.’’

गोविंदा ने ज्यादातर सकारात्मक भूमिकाएं निभाई हैं. ऐसे में कुछ फिल्मों में नकारात्मक भूमिका निभाने की वजह क्या रही, इस सवाल का जवाब वे यों देते हैं, ‘‘उस समय सही औफर नहीं मिल रहे थे. फिल्म ‘देवदास’ में मुझे चुन्नीलाल की भूमिका औफर की गई थी. मैं ने निर्देशक से कहा कि आप मुझ में चुन्नीलाल कहां से देखते हैं. मैं ने मना कर दिया था. फिर नकारात्मक भूमिकाएं मिलने लगी. फिर जो काम मिला, मैं ने उसी को करना बेहतर समझा. इस के अलावा कलाकार का संघर्ष हमेशा चलता रहता है.’’

अभिभावक के तौर पर गोविंदा किस तरह के हैं, इस पर वे बताते हैं, ‘‘मैं बचपन से ही अधिक कठोर स्वभाव का नहीं हूं, क्योंकि मैं ने बहुत कठिन समय देखा है. चाहता हूं कि बच्चे अपनी इस उम्र को एंजौय करें. राजनीति में आने के गलत निर्णय ने बच्चों की सहजता को खराब कर दिया था.

‘‘बुजुर्गों ने मुझे राजनीति में जाने की सलाह दी थी. मेरे पिता ने कहा था कि जिन की वजह से तुम यहां तक पहुंचे हो, उन की बात को कभी मत टालना. मुझे राजनीति की कोई जानकारी नहीं थी. मेरे राजनीति में आने की कोई वजह नहीं थी. मैं ने कोई गलत काम भी तो नहीं किया था, फिर क्यों आया? मैं अपनेआप से पूछता हूं. इस से मेरा पूरा परिवार डिस्टर्ब हो गया था.’’

और आखिर में कौमेडी फिल्मों को ले कर वे कहते हैं, ‘‘मेरी फिल्में कौमेडी नहीं होती थीं. फिल्मों में कौमेडी का पुट होता था. जो सब को पसंद आ गया और यह दौर 15 साल तक चला. आजकल तो कौमेडी लिखी जाती है. लोगों की व्याकुलता बढ़ गई है.’’

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