अगर आपको अपने चुनाव क्षेत्र का कोई प्रत्याशी पसंद नहीं है, तो आप ‘नोटा’ का बटन दबा सकते हैं. चुनाव सुधार के तहत वोटर को यह अधिकार मिल गया है. यह बात अलग है कि वोटर के इस अधिकार का कोई प्रचार नहीं कर रहा है. राजनीतिक दल और चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी तो इसका प्रचार कर ही नहीं सकते. चुनाव आयोग भी इसका व्यापक ढंग से प्रचार नहीं कर रहा है. यही कारण है कि जिन लोगों को चुनाव से कोई लाभ नहीं दिख रहा वह वोट डालने घर से नहीं निकल रहे. चुनाव आयोग द्वारा वोट डालने के प्रचार में लाखों करोडों खर्च करने के बाद भी शतप्रतिशत मतदान दूर की कौडी है. चुनाव सुधारों के लिये काम कर रहे लोकतांत्रिक मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष प्रताप चन्द्रा कहते हैं ‘चुनाव आयोग को नोटा का प्रचार करना चाहिये. जिससे राजनीतिक दलों से नाराज लोग वोट देने के अपने विकल्प को जान सके.’
चुनाव आयोग भले ही नोटा का प्रचार न कर रहा हो, पर लखनऊ में कुछ कारोबारी ‘नोटा’ के प्रचार के लिये पूरे शहर में होर्डिंग लगा रहे हैं. यह कारोबारी ज्यादातर लखनऊ के अमीनाबाद बाजार के रहने वाले हैं. कारोबारियों को शिकायत है कि चुनाव के समय सभी दल इस बात के लिये तैयार हो जाते हैं कि चुनाव के बाद अमीनाबाद बाजार में सुधार करेंगे. चुनाव जीतने के बाद कोई इस दिशा में काम नहीं करता है. इससे परेशान कारोबारी अब चुनाव में ‘नोटा’ का प्रचार कर रहे हैं. यह लोग अपने स्तर से भी प्रचार कर रहे हैं और होर्डिंग लगाकर पूरे शहर को भी जागरुक कर रहे हैं.
चुनाव का बहिष्कार पहले भी बहुत सारे चुनाव क्षेत्रों में होता रहा है. ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में इस तरह के कदम लोग गुस्से में आकर उठाते रहे हैं. कई जगहों में वोट मांगने वालों को वापस जाने को कहा जाता है. बैनर पोस्टर लगाने से खबरे छप जाती हैं तो प्रशासन कुछ इस क्षेत्र का ख्याल रख लेता है. प्रदेश की राजधानी के अंदर पहली बार इस तरह का प्रचार ‘नोटा’ को लेकर किया जा रहा है. चुनाव आयोग के मुताबिक अगर किसी क्षेत्र में 50 फीसदी वोटर ‘नोटा’ का बटन दबा देंगे तो इलाके का चुनाव रद्द हो जायेगा.
प्रताप चन्द्रा कहते हैं ‘अगर जनता को लोकतंत्र और चुनाव प्रक्रिया से जोडे रखना है तो कई सुधार करने की जरूरत है. नोटबंदी का असर चुनाव पर नहीं दिख रहा है. सभी दल पहले की ही तरह जोरशोर से खर्च कर रहे हैं. इससे यह बात साफ हो गई कि नोटबंदी की पाबंदी केवल जनता के लिये थी, राजनीतिक दलों पर इसका असर नहीं पडा. आज भी चुनाव जीतना गरीब आदमी के बस की बात नहीं है. चुनाव में हर कोई बराबरी से तभी चुनाव लड़ पायेगा जब वोट डालने के लिये ईवीएम मशीन पर केवल प्रत्याशी का नाम दर्ज हो. किसी पार्टी का चुनाव चिन्ह न हो. निर्दलीय को एक सप्ताह पहले सिंबल दिया जाता है और पार्टी के प्रत्याशी के पास पहले से चुनाव चिन्ह होता है. ऐसे में चुनाव मैदान में मुकाबला बराबरी का नहीं होता. यही कारण है कि प्रत्याशी काम न करके दलों से किसी भी तरह टिकट हासिल करने के प्रयास में रहता है.’