Editorial: बिहार में शराबबंदी एक मुद्दा बना और नीतीश कुमार जिन्होंने शराबबंदी लागू की, इस बारे में कुछ ज्यादा नहीं बोल सके, एक परेशान करने वाली बात है. शराबबंदी का कदम नीतीश कुमार का एक अकेला अच्छा काम था जिस की हिम्मत कम ही नेता दिखा पाते हैं, उसे चुनाव में बलि का बकरा बना दिया गया है और नएनवेले घोड़े प्रशांत कुमार और पुराने खिलाड़ी तेजस्वी यादव दोनों इसे खत्म करने का वादा कर रहे हैं.
शराब एक बुराई ही नहीं है, यह लूटने की साजिश है, जैसे अंगरेजों ने चीन पर 1850 के आसपास अफीम लड़ाइयां लड़ कर भारत में उगी अफीम चीन में बेची और चीनियों को अफीमची ही नहीं बनाया उन की जमा पूंजी से दुनियाभर में राज करने के लिए पैसा कमाया. बिहार में शराब पिलापिला कर लोगों को लूटा जाता है और जमीनें, घर, बचत छीन कर उन्हें दरदर भटकने के लिए मजबूर किया जाता है.
शराबबंदी से सरकार को चाहे कर का नुकसान हो कम से कम यह खुलेआम आसानी से तो नहीं बिकती. गैरकानूनी धंधा चलता है, माफिया पैदा होता है, गुंडाराज बढ़ता है पर सब की कीमत उस घर की शांति से कम है जो होशोहवास में आया आदमी घर में घुसते हुए चाहता है. नशे में चूर आदमी न सिर्फ पैसा बरबाद करता है, बीवीबच्चों को पीटता है, भूखा रखता है.
शराबबंदी के कारण बिहार में 2016 से 2023 तक 6 लाख से ज्यादा लोगों पर मुकदमे दायर हुए, चाहे सिर्फ 1500 लोगों को सजा मिली. शराबबंदीको खत्म करना कोई शाबाशी का काम नहीं है. शराब ठेकेदारों को अरबों का नुकसान हुआ हो और जिन पर मुकदमे चले उन्हें वकीलों पर खर्च करना पड़ा हो पर कुल खपत जितनी भी कम हुई हो, अच्छी है.
शराब असल में ऊंची जातियों की साजिश है कि एससीएसटी को किस तरह गरीब रखा जाए, शराब की आदत डाल कर उन्हें पूरी जिंदगी का गुलाम बना डाला जाता है और नशीली ड्रग्स भी एससीएसटी को ही दी जाती हैं चाहे वे पंजाब में हों, उत्तर प्रदेश में या तमिलनाडु में हों. ऊंची जातियों में शराबी होते हैं पर उन पर कंट्रोल करने के सैकड़ों तरीके ऊंची जातियों के पास हैं.
एससीएसटी चूंकि खुद शराब से कमाई करते हैं, उन्हें लगता है कि सरकार ने शराबबंदी से उन के पेट पर लात मारी है जबकि नीतीश कुमार ने भगवा पार्टी के साथ मिल कर भी इस नीति को नहीं बदला तो इसलिए कि वे इस की जरूरत सम?ाते हैं. भगवा पार्टियां तो मांसमच्छी तक से परहेज करने की आदत घरों में डलवा देती हैं पर वे दूसरों को शराब, ड्रग्स देती रही हैं.
आज देश के जितने धन्ना सेठ हैं, सब के पुरखों ने असल कमाई अंगरेजों के साथ मिल कर अफीम के व्यापार से ही की थी. हर तीर्थस्थान में गांजा, अफीम, चरस भरपूर मिलती है. यह एक बड़ी साजिश है गरीब को न समझने देने की.
सरकारों से अच्छे कामों की उम्मीदकम होती है पर गरीबों के बच्चे पढ़ने स्कूल आएं इस के लिए जो मिड डे मील पौलिसी देश में चल रही है, वह अच्छी है. देश की 80-90 करोड़ जनता आज भी भुखमरी के कगार पर है और चाहे भारत दुनिया की तीसरी सब से बड़ी इकोनौमी बन जाए, इन गरीबों पर असर नहीं पड़ेगा क्योकि पैसा तो ऊपरी 5-7 फीसदी के पास ही है.
बच्चे स्कूल जाएं और खाने के लिए घर न भागें इसलिए स्कूल में दोपहर का खाना दिया जा रहा है. अब कुछ राज्यों ने मांग की है कि यह खाना सुबह नाश्ते का भी दिया जाए ताकि बच्चे भूखे पेट न मरें. इस से बच्चों को सुबह से दोपहर तक स्कूल में रहना पड़ेगा.
राज्यों ने यह भी कहा है कि यह खाना जो अब 8वीं क्लास तक मिलता है, 12वीं तक दिया जाए. यह भी अच्छी मांग है. पर यह सब उस खोखलेपन को जताता है जो इस देश में है पर इस की बात दया के रूप में की जाती है, अपनी गलती की शक्ल में नहीं. अगर बच्चे भूखे रहते हैं तो इसलिए कि मांबाप के पास खाना कम होता है कि वे बांध कर दे सकें. स्कूल में जाने पर उन्हें खाना भी मिलता है और पढ़ाई भी मिलती है.
यह साजिश है कि जब देश का किसान इतना अनाज पैदा कर रहा है कि सब को खिला सके तो इतना पैसा गरीबों के हाथों में क्यों नहीं आ रहा कि वे खुद बच्चों को खिला सकें. सरकार और समाज ने ऐसा ढांचा बना रखा है कि गरीब बच्चे को हाथ फैलाने की आदत पड़ जाए. बचपन से उसे पट्टी पढ़ा दी जाती है कि वह तो मुफ्तखोर है. मांग कर खाता है. इस साजिश के बावजूद यह फैसला सही है कि शायद अगली पीढ़ी का बच्चा हुनर सीख कर ज्यादा कमा सके और सरकार की दया पर न जिए.
सुबह का नाश्ता और मिड डे मील सरकार की कमजोरी को जाहिर करते हैं पर सरकारें उसे दया की शक्त देती हैं. इस स्कीम का नाम ‘पीएम पोषण योजना’ है ताकि हरेक को कहा जा सके कि देखो तुम तो बड़े भी पीएम की कृपा पर हुए हो. ऐसा हल्ला मचाया जाता है मानो पीएम ने खुद अरबों का खाना उगाया था. सरकार ने इन्हीं बच्चों के बापों से पैसा छीना था टैक्सों की शक्ल में और उसी पैसे से अनाज खरीद कर बांटा जाता है.
फिर भी जब तक समाज चेतता नहीं है, गरीब अपनी ताकत नहीं समझता, यह स्कीम ज्यादा से ज्यादा बच्चों को दवा की शक्ल में मिले तो अच्छा है. Editorial




