Story In Hindi, लेखक – सुमित सेनगुप्ता
मैं यानी अनिल दादर रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में आ कर बैठ गया हूं. स्टेशन के पास ही शापुर रैस्टोरैंट है. उन की बनाई ग्रिल्ड पौम्फ्रैट फ्राई, दाल फ्राई और रुमाली रोटी का कौम्बिनेशन मेरा हौट फेवरेट है. दादर आते ही मैं उन की दुकान में जरूर झांकता हूं. इस के लिए एक बार भारी कीमत चुकातेचुकाते बच गया था.
दरअसल, जो ट्रेन कभी 10 मिनट लेट से कुर्लाटीटी स्टेशन से नहीं छूटती थी, वह ट्रेन उस दिन 45 मिनट लेट हुई और मु झे बचाया. वह समय दुर्गापूजा की पूर्वसंध्या का था. मैं मुंबई से पटना लौट रहा था. उस समय पटना के लिए सिर्फ एक ही ट्रेन थी, वह भी हफ्ते में 2 दिन, इसलिए ज्यादातर लोग कोलकाता हो कर ही आतेजाते थे.
उस दिन कुर्ला स्टेशन तक आतेआते मैं ने मन ही मन प्रतिज्ञा कर ली थी कि आज ट्रेन मिल जाए, तो ऐसे लालच में कभी नहीं पड़ूंगा. लालच में पाप, पाप में मौत. मगर 3 महीने बाद ही वह प्रतिज्ञा तोड़ दी.
भीष्म अपनी प्रतिज्ञा निभा कर अमर हो गए और मैं हर बार अपनी प्रतिज्ञा तोड़ कर ‘हक्काबक्का’ हो रहा हूं. सिगरेट नहीं पीऊंगा कह कर कितनी बार छोड़ी है, उस का याद नहीं. ‘घर के फ्रिज की मिठाई चुराऊंगा नहीं’ कह कर पत्नी ने माफीनामा लिखवाया था. हर बार पकड़ा गया. इतनी सारी निराशाओं के बीच एक चीज नहीं बदली, वह है मेरा अडि़यल किरदार.
पेटभर खाने के बाद दोपहर 4 बजे वेटिंग रूम की कुरसी पर शरीर लटका दिया. पुणे वापसी की ट्रेन साढ़े 6 बजे आएगी. तभी वेटिंग रूम इंचार्ज आ कर मेरा टिकट देखना चाहते हैं. मैं मोबाइल की स्क्रीन खोल कर दिखाता हूं.
वे देखते ही चौंक जाते हैं और बोलते हैं, ‘‘अरे, यह ट्रेन तो सुबह साढ़े 5 बजे निकल गई है.’’
उन की बात सुन कर मेरी नींद भरी आंखों से नींद गायब. उन के हाथ से अपना मोबाइल ले कर देखता हूं…
आज खुद ही अपने लिए बेवजह की मुसीबत खड़ी कर बैठा हूं. लैपटौप पर टिकट बुक करते समय सुबह को शाम सम झ बैठा. पूरी तरह शर्मिंदा और बेइज्जत हो कर उठ खड़ा हुआ. अभी बस पकड़नी होगी, नहीं तो घर पहुंच कर और शर्मिंदा होना पड़ेगा.
कुछ दूर खड़ी पुणे जाने वाली बस. मुंबई से पुणे शहर पहुंचने के 3 पते… शिवाजीनगर, स्टेशन और स्वारगेट. स्टेशन मेरे लिए सुविधाजनक है. अच्छा है बस स्टेशन ही जाएगी. बस को 4 एजेंट घेरे हुए हैं. जहां से जो मुमकिन हो ग्राहक पकड़ कर ला रहे हैं. मेरे जाते ही वे टूट पड़ते हैं, मुमकिन हो तो मु झे गोदी में उठा कर बैठा देते.
बस काफी खाली है. खिड़की के पास सीट ले कर बैठ गया. अरे, बाप रे… 5-6 सवारियों को ले कर बस तुरंत छोड़ देती है. राहत की सांस आती है कि चलो 8 बजे तक पुणे पहुंच जाएंगे.
बस आगे बढ़ती है, दाएं मुड़ती है, फिर दाएं, उस के बाद फिर दाएं और थोड़ा आगे जा कर रुक जाती है.
यानी जहां से बस निकली थी, वहीं अब खड़ी है. फिर डेढ़ घंटे तक ऐसे ही 5 बार चक्कर काटती है.
आखिर में तंग आ कर मैं पूछता हूं, ‘‘यह सब करने का मतलब?’’
जवाब आता है, ‘‘आरटीओ औफिस के लोग खड़े हैं. ज्यादा देर खड़ी रही तो फाइन देना पड़ेगा.’’
जिंदगी में कितनी तरह के अनुभव होते हैं. आखिरकार शाम साढ़े 7 बजे बस दादर से निकलती है. तब तक सभी सीटें भर चुकी हैं. दिन शुक्रवार है, इसलिए पुणे में तैनात मुंबई के नौजवान लड़केलड़कियां वीकैंड पर घर लौट रहे हैं. बस में उन्हीं की भरमार है.
मेरे पास एक कम उम्र की लड़की बैठ गई है. उम्र न सिर्फ कम है, बल्कि ध्यान से देखा तो कद भी छोटा है. पैर पूरी तरह फुटरैस्ट तक नहीं पहुंच रहे.
तभी मेरा फोन बज उठा. फोन के दूसरी तरफ मेरी पत्नी श्रावंती. खतरा… फोन उठाते ही रास्ते के हौर्न की आवाज सुनाई देगी. मेरी नाकामी का भेद खुल जाएगा. पर फोन न उठाना भी ठीक नहीं. वह छोड़ेगी नहीं, लगातार बजाती रहेगी. फोन बंद कर दूं तो भी मुसीबत, बात न करने पर श्रावंती टैंशन लेगी. हाई ब्लडप्रैशर की पेशेंट है. अकेली घर पर है, यह भी समस्या है.
मजबूरन रिसीवर को ढकते हुए जोर से बोला, ‘‘चढ़ गया हूं, बाद में फोन करता हूं.’’
मकसद था मुंबई शहर छोड़ कर बस जब सुनसान इलाके में पहुंचेगी, तो बात कर लूंगा.
पश्चिम भारत में बेवजह हौर्न बजाने की आदत कम है. यह बात मु झे मेरे पुरानी कंपनी के डायरैक्टर मिस्टर बाफना ने कोलकाता के कैमाक स्ट्रीट औफिस में बैठ कर सम झाई थी. उस दिन लंबे समय तक लोडशैडिंग के चलते सड़क किनारे बने कौंफ्रैंस रूम की खिड़कियां खोलनी पड़ी थीं. फिर कारों के हौर्न के शोर से कान पक गए थे.
कुछ देर बाद बस एक पैट्रोल पंप पर रुकती है. जल्दी से उतर कर एक सुनसान जगह ढूंढ़ कर श्रावंती को रिपोर्ट कर देता हूं. बस की रफ्तार देख कर अंदाजा लगा लिया है कि रात 11 बजे से पहले पुणे नहीं पहुंचेगी. ट्रेन होती तो साढ़े 9 बजे ही पहुंच जाता, इसलिए पहले ही ट्रेन लेट होने की कहानी गढ़ ली है.
बस मुंबई शहर छोड़ कर मुंबईपुणे ऐक्सप्रेसवे पर चल पड़ती है. महसूस करता हूं कि पास वाली लड़की सीट पर सो गई है. बीचबीच में झुक कर मेरे कंधे से टकरा रही है. बेचारी पूरे दिन औफिस में काम कर के अब सफर कर रही है. वह मेरी छोटी बेटी जितनी है. तोरसा भी बस में मेरे कंधे पर सिर रख कर सोती थी.
कभी गोद में सिर दे कर लेट जाती थी. छोटी उम्र से ही वह मेरी बगलगीर थी.
एक बार औफिस के काम से कुछ दिनों के लिए कोलकाता जाना हुआ. तोरसा तब 3 साल की थी. जिद करने लगी कि मेरे साथ कोलकाता जाएगी. यह सुन कर कोलकाता से भाई की पत्नी दोला ने कहा, ‘‘दादा, ले आइए. मैं संभाल लूंगी.’’
चेयरकार से दोनों गए थे. वह मंजर आज भी आंखों में तैरता है. एक कोल्डड्रिंक की बोतल, चिप्स का पैकेट सामने रख कर 3 साल की बच्ची खिड़की के पास बैठी बाहर का नजारा देखतेदेखते पटना से कोलकाता पहुंच गई. हावड़ा स्टेशन पर उतर कर उस ने मेरा हाथ नहीं पकड़ा. ‘ठकठक’ कर चलने लगी.
औफिस के एक साथी गोपाल ने देख कर कहा था, ‘‘तेरी बेटी बहुत स्मार्ट है.’’
मन ही मन आज सोचता हूं, ‘जरूरत से ज्यादा सम झदार…’
22 साल पूरे होतेहोते एमबीए कर के दूल्हे के हाथ ससुराल चली गई और उस की बड़ी बहन को शादी के लिए मनाने में तो नाकों चने चबवा लिए. आखिर धमकी दे कर शादी के पीढ़े पर बैठाना पड़ा.
बस अचानक तेज ब्रेक मारती है. झटके से लड़की जाग जाती है और शर्मिंदा होती है.
वह शरमाते हुए कहती है, ‘‘सौरी अंकल, मैं सो गई थी.’’
मैं प्यार से कहता हूं, ‘‘कोई बात नहीं, तुम थक गई होगी. मेरी छोटी बेटी भी ऐसे ही सो जाती थी.’’
अब लड़की ने पूछा, ‘‘आप कहां उतरोगे?’’
मैं ने कहा, ‘‘पुणे स्टेशन.’’
सुन कर उसे राहत मिली. उस का अगला सवाल, ‘‘आप बंगाली हैं?’’
मैं ने कहा, ‘‘जी, कैसे पता चला?’’
लड़की बोली, ‘‘आप के बोलने के लहजे से. हमारे डिपार्टमैंट में बंगाली बहुत हैं.’’
अब मैं ने पूछा, ‘‘आप मराठी हो?’’
उस लड़की ने कहा, ‘‘आप को कैसे पता?’’
मैं ने जवाब दिया, ‘‘मेरे साथ वाले पड़ोसी भी मराठी हैं. आप ने अपनी ‘आई’ से बात की है न?’’
इतना सुन कर वह जोर से हंसी.
2 घंटे चलने के बाद बस एक रोड साइड ढाबे के पास रुकती है. यहां सभी उतरेंगे. कोई चाय पीएगा, कोई खाना खाएगा, कोई वाशरूम जाएगा.
मैं भी उतरा. समय देखा, तकरीबन 10 बजे हैं यानी पुणे स्टेशन पहुंचतेपहुंचते रात के 12 बज ही जाएंगे. आज पकड़ा जाऊंगा. मेरा झूठ टिकेगा नहीं, क्योंकि रात जितनी बढ़ेगी, देरी होगी, श्रावंती के फोन उतने ही बार आएंगे और किसी न किसी समय आसपास का शोर पकड़ में आ जाएगा और मैं फंस जाऊंगा.
फिर सुनसान जगह ढूंढ़ कर फोन लगाता हूं. यहां के लोग ट्रेन में ज्यादा बात नहीं करते. हौकर्स भी वैसे नहीं चलते, यह श्रावंती जानती है, इसलिए सुनसानी के आंचल में बच सकता हूं.
सब ठीक चल रहा था, श्रावंती से बात शांति से हो रही थी. अचानक हमारी बस के पास खड़ी बस भयानक आवाज में गरज उठी. श्रावंती के कान में वह आवाज जरूर पहुंची और ऐसा ही हुआ.
वह बोली, ‘‘बस की आवाज आ रही है. तुम कहां हो?’’
मैं धीरे से बोला, ‘‘अरे, खंडाला घाट के ऊपर ट्रेन खड़ी है. पास ही ऐक्सप्रैसवे है.’’
श्रावंती मान जाती है या मन ही मन सम झ जाती है. मैं बच गया. जल्दी से बात खत्म की. बोला, ‘‘बात ठीक से सुनाई नहीं दे रही. टावर नहीं मिल रहा.’’
पास वाली लड़की बस में लौट आई. एक जीरो शुगर कोक की बोतल मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोली, ‘‘अंकल, यह लीजिए.’’
उस ने नोटिस किया था कि मेरी पानी की बोतल खाली हो गई है. टैंशन में मैं भूल गया था पानी खरीदना.
हमारी बस लोनावला घाट में जाम में फंस गई. पुणे शहर के नजदीक पहुंचते ही रात का 1 बज गया. रेल स्टेशन पहुंचतेपहुंचते रात के 2 बज गए थे.
लड़की से पूछा, ‘‘आप कहां जाओगी?’’
जवाब आया, ‘‘शिवाजीनगर.’’
फिर मैं ने पूछा, ‘‘कोई आप को लेने आ रहा है?’’
कुछ देर चुप रह कर मेरी तरफ देखती हुई वह बोली, ‘‘नहीं, मैं चली जाऊंगी.’’
थोड़ा अधिकार दिखाते हुए मैं बोला, ‘‘मु झे ‘खड़की’ जाना है. चलो, तुम्हें छोड़ देता हूं. इतनी रात अकेली कैसे जाओगी.’’
लड़की ने एक आटोरिकशा बुलाया और आटोरिकशा वाले को मराठी में सम झाया कि उसे ‘शिवाजीनगर’ छोड़ कर मु झे ‘खड़की’ पहुंचाना है. मेरा फोन चार्ज खत्म हो चुका था. पहले ही श्रावंती से कह दिया था, ‘‘ट्रेन बहुत लेट है. फोन का चार्ज भी खत्म हो रहा है. तुम चिंता मत करो.’’
लड़की को उस के अपार्टमैंट के दरवाजे तक छोड़ कर विदा किया. आटोरिकशा वाला ‘खड़की’ की ओर चल पड़ा.
मैं ड्राइवर से कहा, ‘‘गाड़ी वापस मोड़ो. मु झे ‘एनआईबीएम’ जाना है.’’
आटोरिकशा वाला बोला, ‘‘लेकिन, उस ने तो ‘खड़की’ कहा था.’’
मैं ने कहा, ‘‘क्या करूं… इतनी रात अकेली कैसे छोड़ दूं? मुंबई से साथ चले थे. सच बोलने पर वह पहुंचाने को राजी नहीं थी.’’
आटोरिकशा वाला बोला, ‘‘चलिए सर, जहां बोलोगे पहुंचा दूंगा.’’ Story In Hindi