‘‘हा  उस वाइफ से कहीं ज्यादा, लेकिन मर्दों से कम… इसे आप कुछ भी समझ सकते हैं. मेरी अहमियत, हैसियत, आत्मविश्वास या फिर स्वाभिमान…’’

बैंक में काम करने वाली 30 साल की नेहा की शादी को अभी 5 साल ही हुए हैं. इस दौरान उस ने जो महसूस किया, उसे दोटूक कह तो दिया, लेकिन बात करने के कुछ घंटों बाद फिर फोन कर के बोली, ‘‘अच्छा होगा, अगर आप यही सवाल मेरे पति से भी करें कि उन की नजर में मैं क्या हूं?’’ फिर खिलखिला कर हंसते हुए वह बोली, ‘‘अच्छा, मैं ही बता देती हूं कि उन की नजर में मैं उन के आत्मविश्वास की

एक बहुत बड़ी वजह हूं. उतनी ही जितनी मेरे आत्मविश्वास की वे वजह हैं.’’

हाउस वाइफ बनाम वर्किंग वाइफ पर आएदिन बहस, चर्चाएं और रिसर्च भी होती रही हैं, जिन में कमाऊ पत्नी की हालत हमेशा बेहतर बताई जाती है, जो कि एक हद तक है भी, लेकिन नेहा जैसी स्मार्ट औरतों के लिए दुनिया और समाज से ज्यादा पति का नजरिया माने रखता है.

बकौल नेहा, ‘अगर पति पत्नी को इज्जत देता है, तो दूसरे भी देंगे. और एक अच्छा समझदार पति ऐसा करता भी है.’

नेहा जैसी कई औरतें अगर आज भी समाज में अपनी जगह और हैसियत की रैंकिंग के लिए पति की मुहताज हैं, तो क्या इस की एकलौती वजह उन का कमाऊ होना है? यह बहुत टेढ़ा सा सवाल है, जिस का सीधा जवाब एक और बैंक में काम करने वाली सुप्रिया ही यह कहते हुए देती हैं, ‘‘इस सच को स्वीकारने में संकोच नहीं होना चाहिए.  मेरी मम्मी भी सरकारी विभाग में क्लर्क थीं, जिन्हें कई चीजों को अकसर बेमन से ढोना पड़ता था.

‘‘मसलन, धार्मिक और सामाजिक परंपराएं और रीतिरिवाज. लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि वे इस का जिम्मेदार अकेले पापा को मानती थीं. वे अगर दादी के जिंदा रहने तक साड़ी बांध कर औफिस गईं, तो इसे उन्होंने आसानी से स्वीकार लिया था.

‘‘यह 80 के दशक की पत्नी की खूबी थी कि वह कमाऊ होने का कोई सिला पति से नहीं चाहती थी. उस पर यह आरोप भी नहीं लगाया जा सकता कि वह आधुनिक नहीं थी.’’

तो क्या अब जमाना और हालात इतने बदल गए हैं कि कमाऊ पत्नी को बहुत सारे या इतने सारे हक मिल गए हैं कि वह अपने मुताबिक जी सके और तमाम वे फैसले ले सके, जिन में पति की सहमति जरूरी न होती हो?

इस सवाल पर बैंगलुरु के सब से बड़े अस्पताल में बतौर काउंसलर काम कर रही अपूर्वा कहती हैं, ‘‘इस सवाल को उलट दीजिए. हकीकत यह है कि आज के पति भी बिना पत्नी की राय के कोई अहम फैसला नहीं लेते. इसलिए नहीं कि उस में पत्नी की भी आर्थिक भागीदारी होती है, बल्कि इसलिए भी कि एक कामकाजी पत्नी को पढ़ीलिखी होने के नाते यह जानकारी मिल ही जाती है कि कहां पैसा इंवैस्ट करने से बेहतर रिटर्न मिलेगा और बच्चा कब प्लान करना ठीक रहेगा.’’

यहां भी है धर्म का दखल

अपूर्वा के मुताबिक, यह सच है कि समाज अभी भी पितृ सत्तात्मक है, लेकिन कमाऊ पत्नियां इसे दरकाने में कामयाब हो रही हैं. हैरत की बात यह है कि उन में से ज्यादातर को नहीं मालूम कि वे ऐसा क्यों कर रही हैं.

अपनी इस बात के समर्थन में अपूर्वा ने सोशल मीडिया पर आएदिन वायरल होती कुछ पोस्ट भी शेयर की कि कैसे परंपरावादी और कट्टरवादी लोग पतिपत्नी के बीच खाई खोदने का काम कर रहे हैं. ये वे लोग हैं, जो चाहते हैं कि कमाऊ पत्नी को कैसे कमतर साबित कर के उस में हीनता भरें और फिर उसे दबाएं.

ये पोस्ट कितनी शातिराना होती हैं, इस का अंदाजा हर कोई नहीं लगा सकता. ऐसी ही एक पोस्ट में अमेरिका के एक तथाकथित सर्वे का हवाला देते हुए आखिर में कहा गया कि हमारे आधुनिकतावादी भी अमेरिका की तरह दुकानों से या औनलाइन भोजन खरीदने की वकालत कर रहे हैं और खुश हो रहे हैं कि भोजन बनाने की समस्या से हम मुक्त हो गए हैं. इस वजह से भारत में भी परिवार धीरेधीरे अमेरिकी परिवारों की तरह बरबाद हो रहे हैं.

इसी पोस्ट में अमेरिकी औरतों के अकेलेपन और तलाक वगैरह का आंकड़ों समेत इतना वीभत्स चित्रण किया गया है कि एक बार के लिए कोई भी कमाऊ पत्नी डर सकती है कि क्या फायदा ऐसे पैसे और नौकरी का, जिस से पति, परिवार और बच्चों को सुख न मिले.

ऐसी ही एक पोस्ट में धौंस सी दी गई है कि कम पढ़ीलिखी औरत ही घर बसाने की कला जानती है. पढ़ीलिखी को तो अकसर कोर्टकचहरी के चक्कर काटते देखा है मैं ने.

इस पोस्ट में औरत को सिर पर घूंघट डाले हुए दिखाया गया है, जिस से यह लगे कि जींसटौप पहनने वाली औरतें तलाक ज्यादा लेती और देती हैं. जाहिर है कि जो औरत अपने हक के बारे में जानतीसमझती है, उस का शोषण करना आसान नहीं होता.

ऐसी पोस्टों पर भोपाल के एक सीनियर प्रोफैसर राजेश पटेरिया कहते हैं, ‘‘ऐसी साजिशों से पतिपत्नी दोनों को सावधान रहना होगा, खासतौर से पति को, क्योंकि इस तरह की बातें मर्दों के अहम को सदियों से भड़काती रही हैं, जबकि हर दौर में औरत कमाऊ रही है, लेकिन अब चूंकि उस में पढ़ाईलिखाई के चलते जागरूकता भी आ गई है, तो परिवारों और समाज को तोड़ने का कारोबार करने वाले लोग नए तरीके से इसे अंजाम दे रहे हैं.’’

जरूरत है कमाऊ पत्नी

हालांकि मर्द चाह कर भी ऐसे झांसों में नहीं आ रहे, क्योंकि बढ़ती महंगाई व विलासिता की हद तक सुविधाजनक होती जा रही दुनिया में पतिपत्नी दोनों का कमाऊ होना जरूरी है. अखबारों में छप रहे वैवाहिक विज्ञापनों में अब शायद ही कोई घरेलू और गृह कार्य में दक्ष पत्नी चाहता है.

बात अकेले कमाई की नहीं है, बल्कि बदलते सामाजिक माहौल और एकल होते परिवारों के बढ़ते खर्चों की भी है, जिन्हें किसी एक की कमाई से पूरा नहीं किया जा सकता और अगर कर भी लिया जाए तो बहुत से समझौते उसे करने पड़ते हैं, फिर महंगा फ्लैट, बड़ी कार और बच्चे को महंगे स्कूल में पढ़ाने जैसे ढेरों सपने सपने ही रह जाते हैं.

आर्थिक लिहाज के अलावा निजी संतुष्टि भी कम रोल नहीं निभाती. भोपाल की ही एक सरकारी कर्मचारी 46 साल की सविता कहती हैं, ‘‘कमाऊ पत्नियों में ज्यादा आत्मविश्वास और बेफिक्री होती है. वे घर और दफ्तर की दोहरी लड़ाई कामयाबी से लड़ लेती हैं. उन का भावनात्मक लगाव पति व बच्चों से कम नहीं होता.’’

अब यह मिथक भी धीरेधीरे टूट रहा है कि कमाऊ पत्नी घरपरिवार, बच्चों और पति को मुनासिब वक्त नहीं दे पाती. अब इन सभी को ज्यादा वक्त की जरूरत ही नहीं रही, बल्कि पैसों और सहूलियतों की जरूरत ज्यादा है. डबल इनकम इसे आसानी से पूरा करती है और रिटायरमैंट के बाद की जिंदगी भी सुकून से गुजरती है.

सविता कहती हैं, ‘‘आप देखिए कि देशभर के पर्यटन स्थलों पर बूढ़ों की तादाद नौजवानों से कहीं ज्यादा देखने में आती है. धार्मिक शहर तो उन्हीं से भरे पड़े रहते हैं.’’

यह पीढ़ी तो बस…

जान कर हैरत नहीं होती कि स्कूली पीढ़ी भी कमाऊ पत्नी की जरूरत और अहमियत पर संजीदा है. इस साल 12वीं जमात पास कर कालेज में दाखिला ले चुके नक्षत्र की मानें, तो उन की उम्र का कोई भी लड़का हाउस वाइफ नहीं चाहता. उन की नजर में वह एक बेकार और फालतू साथी साबित होगी, जो बातबात पर फसाद खड़े करेगी, क्योंकि खाली दिमाग वाकई में शैतान का घर होता है और हम एक सुकून भरी जिंदगी की कल्पना करते हैं, जिस में हर जरूरी चीज हो.

इस का मतलब है कि नई जवान होती पीढ़ी के मन में कमाऊ पत्नी को ले कर कोई शक नहीं है, जिस ने आने वाले वक्त की नजाकत को समय रहते भांप लिया है.

लड़कियां भी स्वीकार कर चुकी हैं कि वे अपनी दादीनानी की तरह चूल्हेचौके के झंझट में पड़ कर जिंदगी खराब नहीं करेंगी. उन्हें अगर मौका और तालीम मिली होती, तो वे भी शायद नौकरी ही करतीं. यूपीएससी की तैयारी कर रही 20 साल की अदिति की मानें तो,

‘‘मैं कोई रिस्क उठाना पसंद नहीं करूंगी. वक्त और हालात कैसे भी रहें, काम में पैसा ही आएगा और वैसे भी लड़कियों का अपना पैरों पर खड़े होना अब हर लिहाज से बहुत जरूरी हो चला है.

‘‘इसे रिश्तों से उठता भरोसा नहीं कहा जा सकता, उलटे अब पैसा नजदीकी रिश्तों को और मजबूती दे रहा है, क्योंकि मजबूती देने वाले रिश्तेनाते खुद मजबूती के मुहताज हो चले हैं.

‘‘अगर आप अस्पताल में किसी अपने वाले को देखने गए हैं और आप की जेब में जरूरत पड़ने पर उस की मदद के लिए पैसा नहीं है, तो आप के वहां होने या न होने के कोई माने नहीं. पत्नी कमाऊ हो, तो पति आसानी से किसी अपने की मदद कर सकता है.’’

यह सब अहम कितना

अकसर कमाऊ पत्नियों पर यह आरोप लगता रहता है कि वे अहंकारी होती हैं और बातबात में अपने फैसले थोपती हैं. अदिति इसे गलत बताते हुए कहती है, ‘‘दरअसल, कमाऊ पत्नियों से लोग ज्यादा उम्मीद इन शर्तों के साथ पाल लेते हैं कि वे खामोशी से अपनी कमाई का इस्तेमाल होते देखती रहेंगी, लेकिन ऐसा अब है नहीं. शादी के 3-4 साल बाद जब पतिपत्नी में ट्यूनिंग हो जाती है, तब यह समस्या नहीं रह जाती. शादी के तुरंत बाद कुछ दिनों तक वे एकदूसरे को ले कर आशंकित हो सकते हैं, जो बेहद स्वाभाविक बात है.’’

थोड़े से बचे संयुक्त परिवारों में जरूर सभी कमाऊ सदस्य घर के मुखिया के पास तयशुदा पैसा जमा करते हैं, जिस से वह घरखर्च चलाता है. ऐसे ही एक परिवार की बहू अर्चना जो शिक्षिका हैं, कहती हैं, ‘‘यह व्यवस्था भी बुरी नहीं, क्योंकि बचे पैसों, जो 60 से 70 फीसदी होते हैं, पर पतिपत्नी का हक होता है और इस्तेमाल करने की आजादी भी होती है.

‘‘मैं अपने भतीजे को सोने की चेन दूं, तो पति और ससुराल वालों को कोई एतराज नहीं होता. दिक्कत उन मामलों में हो जाती है, जिन में पति पत्नी की कमाई पर अपना हक जताता है. हालांकि ऐसे पतियों की तादाद कम हो रही है, लेकिन खत्म नहीं हुई है.’’

कुछ दिन पहले दिल्ली में ‘वर्किंग स्त्री’ नाम की जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि 70 फीसदी कमाऊ औरतें घरखर्च में सक्रिय योगदान देती हैं. 30 फीसदी औरतें अपनी आधी तनख्वाह घरखर्च में देती हैं.

हालांकि, यह रिपोर्ट एक सामाजिक सच भी उजागर करती है कि भले ही आर्थिक रूप से औरतें आत्मनिर्भर और जिम्मेदार हैं, लेकिन वित्तीय फैसले वे घर के मर्द सदस्यों की मदद से ही लेती हैं. इस में कोई बुराई नहीं है.

इस से हासिल क्या

पैसा कमाने की औरतों की जिद ने उन्हें घर और समाज में बराबरी का दर्जा तो दिलाया है, पर कुछ फीसदी मामलों में विवाद होते हैं, लेकिन उन्हें ही हवा देने से परिवारतोड़ू गैंग की मंशा पूरी होती है, जिन्हें फर्राटे से कार चलाती लड़कियां संस्कारहीन लगती हैं. क्लब जाती और किटी पार्टी में मशगूल औरतों को वे धर्म से विमुख कहते हैं तो साफ है कि इस से उन का नुकसान हो रहा होता है.

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