आदर्श पाखंड़ को जन्म देते हैं आप को यह पढ़ कर शायद हैरानी हो कि भारत में जितने भी जानेमाने धर्मगुरु हुए हैं, उन में से ज्यादातर किसी न किसी ठीक न हो सकने वाली बीमारी से पीडि़त रहे हैं या अभी भी हैं. जो दूसरों को यह उपदेश देते थे कि ओम का उच्चारण करते रहने से, ओम की जय करने से, प्राणायाम करने से रोग पास भी नहीं फटकते, पर वे खुद किसी न किसी बीमारियों से जरूर पीडि़त थे. इस की एक खास वजह है.

यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जब भी कोई इनसान अपनी किसी कुदरती इच्छा को दबाने की कोशिश करता रहता है, तो उस की वह इच्छा उस आदमी के अचेतन मन में चली जाती है. फिर वह किसी न किसी मनोकायिक (साइकोसोमैटिको) बीमारी को जरूर जन्म देने लगती है. जनवरी, 2022 में मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में एक अस्पताल में तब हड़कंप मच गया, जब जिले के सौस गांव से एक विक्षिप्त बाबा को एंबुलैंस में लाया गया था. वह गांव में कभी कीचड़ में लोट जाता, तो कभी पेड़ों पर चढ़ जाता या ड्रामा करता. अस्पताल में भी वह बाबा नर्सिंग स्टाफ के सामने नंगा हो जाता, तो कभी वार्डबौयों पर हमला करने लगता. उसे पुलिस के हवाले कर दिया गया.

पर सवाल है कि ऐसे हालात आए ही क्यों? इसलिए कि बाबाओं को कहा जाता है कि इच्छाओं को दबाओ और वे खुद बीमार हो जाते हैं. राजा हो या रंक, साधु हो या संत, कोई भी कुदरत के इस नियम से बच नहीं पाता. बढ़ती इच्छाओं को दबाने के खिलाफ सजा देने का कुदरत का यह एक ढंग है. आप देखोगे कि जो भी इनसान ?ाठे आदर्शों की चादर ओढ़ कर पाखंड वाली जिंदगी जी रहा होगा, वह किसी न किसी बड़ी बीमारी से भी जरूरत पीडि़त होगा. वह बीमारी ही उस की मौत की वजह भी बन जाती है. भारत में यह भी एक विडंबना ही है कि लोग किसी के चरित्र का मूल्यांकन केवल इस बात से लगाते हैं कि अमुक इनसान ने अपनी कामवासनाओं को कितना कंट्रोल में रखा हुआ है.

जो इनसान कामवासनाओं के बारे में खुले स्वभाव का होता है, उसे हम चरित्रहीन मानने लगते हैं और जो ब्रह्मचारी होने का ढोंग करता हो, उस की पूजा करने लगते हैं और उसे दानदक्षिणा भी देने लगते हैं. एक गलत सोच के चलते हिंदू धर्म में हजारों सालों में सब से ज्यादा अहमियत ब्रह्मचर्य को दी गई है. साधुसंन्यासी इसलिए भी समाज में इज्जत पा रहे हैं, क्योंकि वे ब्रह्मचर्य पालन का दावा करते हैं. जिस तरह एक पीएचडी डिगरी लेने वाला अपने नाम के साथ डाक्टर लिखने लगता है, उसी तरह कई साधुसंन्यासी समाज में ज्यादा से ज्यादा इज्जत पाने के लिए अपने नाम के साथ ‘बाल ब्रह्मचारी’ की डिगरी भी जोड़ देते हैं.

मजे की बात यह है कि पूरे संसार में भारतीय ही सब से ज्यादा कामुक हैं. वे एक साल में ही पूरे आस्ट्रेलिया की आबादी के बराबर बच्चे पैदा कर देते हैं. भारतीयों के बिस्तर उन के खेतों से ज्यादा उपजाऊ माने जाते हैं. मनोवैज्ञानिक इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि जब भी कोई इनसान हठपूर्वक ब्रह्मचर्य साधने की कोशिश करने लगता है, तो कामुकता भी उस का पीछा करती रहती है, जो अपना रूप बदल कर सामने आती रहती है. ब्रह्मचर्य की साधना करने वाला दिनरात अपने कामकेंद्र के इर्दगिर्द ही जिंदगी बिताने लगता है. वह किसी जंगल में या गुफा में तपस्या कर रहा होगा, तो उस के सपनों में अप्सराएं आ कर उस की साधना भंग करने लगेंगी.

कुछ अज्ञानी लोगों ने सोचेसम?ो बिना ही वीर्य के संबंध में कई तरह की गलत बातें फैला रखी हैं. कुछ शास्त्रों में यह भी पढ़ने को मिलता है कि इनसान अगर 32 किलो भोजन खाता है, तो उस से शरीर में 800 ग्राम रक्त बनता है. उस 800 ग्राम रक्त में से केवल 20 ग्राम वीर्य ही बनता है. पर मैडिकल जांचपड़ताल से यह पता चला है कि पुरुष के शरीर में वीर्य बनना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. जिस तरह से पाचक ग्रंथियां भोजन को पचाने के लिए पाचक रस छोड़ती रहती हैं, उसी तरह से यौन ग्रंथियां वीर्य बनाती रहती हैं. जब वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या जरूरत से ज्यादा बढ़ जाती है, तो वीर्य सपनों के रूप में शरीर से बाहर निकल जाता है. यह कुदरत द्वारा बनाई गई एक आनंददायक व्यवस्था है.

पर धर्मशास्त्र व कुछ धर्मगुरु ऐसा प्रचार करते हैं कि लोग हमेशा डरे रहें. शरीर के अंदर वीर्य बनने की प्रक्रिया हमेशा चलती ही रहती है, इसलिए जरूरत से ज्यादा वीर्य को शरीर के अंदर रोक पाना मुमकिन नहीं है. पर बहुत से लोग खासतौर पर धर्मगुरु इस सच को छिपाने के लिए कई तरह के ढोंग करने लगते हैं. अपने नाम के साथ ‘बाल ब्रह्मचारी’ लिखना भी ऐसा ही एक ढोंग मात्र है. जो लोग हठपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे होते हैं, वे भी इस उम्मीद में जी रहे होते हैं कि स्वर्ग में जा कर तो उन की देखभाल अप्सराएं करेंगी, जो उन की हर आज्ञा का पालन करेंगी. जब इनसान अपनी किसी इच्छा को हठपूर्वक दबा लेता है, तो वह इच्छा उस के मन में जा कर दब जाती है, फिर इनसान को उस दबी हुई इच्छा को पूरा करने के लिए किसी न किसी पाखंड का सहारा लेना पड़ता है. जो लोग गृहस्थी त्याग देते हैं, वे आश्रम या कुटिया बना कर रहने लगते हैं.

जिन औरतों के पति नामर्द होने के कारण बच्चा पैदा नहीं कर सकते, उन्हें अपने आश्रम में अकेले में बुला लेते हैं. अपनी दबी हुई काम इच्छाओं को पूरा करने के लिए ही तंत्र साधना के नाम पर औरतों की पूजा करने लगते हैं और तंत्र के नाम पर यौन क्रियाओं में लग जाते हैं. धर्मगुरुओं के आश्रमों में ऐसी बातें हमेशा होती ही रहती हैं, क्योंकि यह सब धर्म के नाम पर होता है, इसलिए लोग इन्हें चुपचाप सहन कर लेते हैं. भारत में कई धर्मगुरु यह ढोंग भी करते रहते हैं कि वे तो पैसों को हाथ तक नहीं लगाते. पर जब ये विदेशों में जाते हैं, तो वहां करोड़ों रुपयों में खेलने लगते हैं. महंगी से महंगी कारें खरीद लेते हैं. पांचसितारा आश्रमों को बना लेते हैं. हिंदू समाज ने समाधि लगाने को भी बहुत इज्जत दे रखी है, इसलिए कई साधुसंत यह ढोंग करने लगते हैं कि वे समाधि की उच्च अवस्था को भी हासिल हो चुके हैं.

कई तो अपने नाम के साथ भी ‘समाधिनाथ’ तक लिखने लगते हैं. लोेगों को प्रभावित करने के लिए वे अपनी समाधि का खूब प्रचार करते हैं और करवाते हैं. आम लोगों को प्रभावित करने के लिए वे कुछ दिनों के लिए खुद को मिट्टी में दबा लेते हैं, फिर जिंदा बाहर निकल आते हैं. अंधविश्वासी लोग इस काम को एक चमत्कार मान कर उन्हें खूब दानदक्षिणा देते हैं. इस मौके और हमदर्दी का फायदा उठा कर मंदिर बनाने के नाम पर लाखों रुपए जमा कर लिए जाते हैं. किंतु भोलेभाले लोग यह सम?ा ही नहीं पाते कि ऐसे काम केवल जादू दिखाने जैसी ट्रिक की मदद से ही किए जाते हैं. चमत्कार या भगवान को पाने से इस का कोई संबंध नहीं होता. ऐसे लोग प्राणायाम व सांसों को काबू में करने की कला सीख कर ऐसा करने में कामयाब हो जाते हैं. साइबेरिया के बर्फीले प्रदेश के भालू 6 महीने तक खुद को बर्फ में ही दबा कर सोए रहते हैं. बरसात के बाद मेढक जमीन के नीचे ही दबे पड़े रहते हैं. ठंड से बचने के लिए सांप भी खुद को मिट्टी के नीचे दबाए रखते हैं. इस से उन की कोई समाधि नहीं लग जाती.

कुछ दिन जमीन के नीचे दबे रहने का समाधि से कोई संबंध नहीं होता. एक धर्मगुरु का बायां हाथ काम नहीं करता था. इस विकलांगता को भी उन्होंने समाधि के नाम पर खूब भुनाया. वे बारबार कहते रहते थे कि जब वे समाधि में बैठे थे, तो उन के इस हाथ को दीमक लग गई थी. बहुत से धर्मगुरु अपने ?ाठे दावों का पाखंड कर के नाम कमाने में लगे रहे हैं. उन ?ाठे दावों को साबित करने के लिए उन्होंने कई तरह के इंतजाम कर रखे होते हैं. आप को अपने चारों ओर कई साधुसंन्यासी ऐसे मिल जाएंगे, जिन का बरताव पागलों जैसा होता है. कुछ तो छोटीछोटी बातों पर भी गुस्सा हो जाते हैं. भोलेभाले लोग यह सम?ाने लगते हैं कि इन पर भगवान का उन्माद छाया हुआ है, इसीलिए वे ऐसा बरताव कर रहे हैं. पर वे यह नहीं जानते हैं कि भगवान की कोई खुमारी नहीं होती. ऐसे लोग केवल मनोवैज्ञानिक वजहों से ही बीमार होते हैं.

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