‘‘भाईजी, क्या बात है, आप को जब भी देखता हूं आप अपना पेट दाईं तरफ पकड़े रहते हैं. मैं समझता हूं कि खाना खाने के समय या वैसा ही कोई जरूरी काम के समय आप अपना हाथ पेट से हटाते होंगे, वरना उठतेबैठते, चलते, बतियाते, हमेशा देखता हूं कि आप का हाथ अपने पेट पर ही रहता है.’’

‘‘हां, रहता तो है...रखना पड़ता है. आजकल तो बच्चे हों या जवान, सभी  हम को देख कर हंसते भी हैं. चिढ़ाते हैं, ‘पकड़े रहो, पकड़े रहो.’ बाकी हम पर इस सब का कुछ भी असर नहीं पड़ने वाला है.’’

‘‘वह तो मैं देखता हूं कि कोई कुछ भी कहे, आप बिना किसी प्रतिक्रिया के हरदम इसी मुद्रा में रहते हैं. आखिर बात क्या है? बुरा नहीं मानिएगा, मैं मजाक नहीं कर रहा हूं...मैं आप की बड़ी इज्जत करता हूं. क्या आप को पेट में कोई तकलीफ है, जो हरदम पेट पर हाथ रखे रहते हैं?’’

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‘‘पकड़ कर इसलिए रखता हूं, ताकि कोई चुरा न ले.’’

‘‘क्या?’’

‘‘जी हां, रात को भी पेट पकड़ कर सोता हूं. कभी नींद में हट गया और नींद टूटी तो फिर झट से पेट पकड़ लेता हूं. वैसे तो अब आदत हो गई है. नींद में भी हाथ पेट पर ही रहता है.’’

‘‘लेकिन बात क्या है?’’

‘‘अरे भाई, अंदर कीमती सामान है. कब क्या गायब हो जाए, कौन जानता है.’’

‘‘कैसी बात कर रहे हैं? कैसा कीमती सामान? भला पेट से किस चीज के गायब होने का डर है?’’

‘‘लंबा किस्सा है.’’

‘‘सुनाइए तो, बात क्या है?’’

और उन्होंने अपनी कहानी कुछ इस तरह सुनाई थी :

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