लेखक- अनुराग वाजपेयी

वे तो इस बात पर अड़े हुए थे कि दूल्हा घोड़ी पर नहीं बैठेगा. हमारे प्रदेश में हर साल ऐसी 10-20 घटनाएं होती हैं, जब बड़ी जातियों के लोग अपने गांव में जाति की इज्जत बचाए रखने के लिए दलित जाति के दूल्हे को घोड़ी से उतार देते हैं.

किले ढह गए, महल बिक गए, खेत बंट गए, लड़के शराबी बन गए, पर मूंछें नहीं झुकीं. इन लोगों को भरोसा है कि अगर बड़प्पन बचाए रखना है, तो एक ही तरीका है कि दलित जाति के दूल्हे की बरात ही मत निकलने दो.

इस गांव में भी यही हो रहा था. कई दिनों से दलित दूल्हे को घोड़ी से उतारने की तैयारी चल रही थी.

मैं ने एक से कहा, ‘‘भाई, दूल्हा तो वैसे ही दलित होता है, सामने दिखती आफत को गले लगाने के बावजूद वह गाजेबाजे के साथ निकलने को तैयार हो जाता है. उस से ज्यादा दलित, पीडि़त और कौन होगा? फिर अलग से इन्हें दलित दूल्हा कहने की क्या जरूरत है?’’

वह बोला, ‘‘हम भी इन दूल्हों को यही बात तो समझाना चाहते हैं कि शादी के बाद जिंदगी में वैसे ही दलित हो जाओगे तो अच्छा है कि अभी से धरती पर रहो.’’

खैर, यह बात तो हंसने की है, लेकिन जब सारा देश अयोध्या में मंदिरमसजिद, सीएए, पाकिस्तान और ऐसे ही खास मुद्दों में उलझा हुआ था, तब इस गांव में सब से बड़ा मुद्दा यह था कि दलित दूल्हा घोड़ी पर बैठ सकेगा या नहीं.

मैं ने दूल्हे के  पिता से पूछा, ‘‘भाई, क्या तैयारी हो रही है शादी की?’’

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 महीना)
USD2
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...