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‘‘कहते हैं मैं सौरभ से रुपए मांग कर उन्हें दे दूं. तुम्हीं बताओ, विजय, मैं सौरभ से भी ऐसी आशा क्यों करूं कि वह उस रिश्तेदार का पेट भरे जिस का पेट करोड़ों हजम कर के भी नहीं भरा? अरे, हम बापबेटे कोई इतने बड़े पैसे वाले तो हैं नहीं जो कहीं से लाखों निकाल कर उन्हें दे देंगे.’’

स्तब्ध रह गया मैं. मेरा मित्र जरा सा परेशान हो गया अपनी सुनातेसुनाते. वास्तव में हैरानी थी मुझे.

‘‘मैं ने हाथ जोड़ कर माफी मांगी ली भाई साहब से. कहते हैं मैं मर जाऊंगा तो भी नहीं आएंगे. अब क्या करूं मैं? न आएं, अब मरने से पहले उन की मदद कर मैं अपना परिवार तो सड़क पर लाने से रहा...और मरने के बाद कौन आया कौन नहीं मेरी बला से. मैं देखने तो नहीं आऊंगा कि मेरे मरने पर कौन रोया कौन नहीं.’’

मित्र का हाथ अपनी हथेली में भींच लिया मैं ने. क्या गलत कह रहा है मेरा मित्र. भाई का स्वार्थ वह कहां तक ढोए और क्यों. सदा सादगी में रहा मेरा यह मित्र. लगभग 4-5 साल हम एकदूसरे के पड़ोसी रहे हैं. उन की पत्नी घर का एकएक काम अपने हाथ से करती थीं. कोई फुजूलखर्ची नहीं, कोई शानोशौकत नहीं. भाई साहब अकसर परिवार सहित तब आते थे जब जहाज पकड़ना होता था. कभी गोआ के लिए कभी ऊटी के लिए.

दिल्ली पालम एअरपोर्ट से वह हर साल उड़ानें भरते. हमें हैरानी होती थी, इन के पास इतने पैसे कहां से आते हैं. दूसरा भाई इतना सादा और हम जैसा ही मध्यवर्गीय, जिस की तनख्वाह 20 तारीख को ही आखिरी सांसें लेने लगती है. सच है, जो इंसान औरों के बल पर ऐश करता रहा उसे एक दिन तो जमीन पर आना ही था. और आया भी ऐसा कि उसी से मदद भी मांग रहा है जिस का अधिकार भी उस ने छोड़ा नहीं.

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