गांव हालांकि छोटा था, लेकिन थोड़ीबहुत तरक्की कर रहा था. पहले 70-100 मकान थे, पर अब गांव के बाहर भी घर बनने लगे थे. सरकारी जमीन पर भी, जहां ढोरमवेशी चराए जाने के लिए जगह छोड़ी गई थी, निचली जाति के लोगों ने उस पर कब्जे कर लिए थे.

झोंपड़ों के मकड़जाल की यह खबर हवेली तक भी पहुंच गई. हवेली में सैयद फैयाज मियां हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे और उन के पैरों को हज्जाम घासी मियां सहला रहे थे. उन्होंने ही धीमी रफ्तार से पूरे गांव की सब खबरें सुनानी शुरू कर दी थीं.

गांव में मुसलिमों के एक दर्जन से कम घर थे, लेकिन बड़ी हवेली सैयद साहब की ही थी. सब से ज्यादा जमीन, नौकरचाकर भी उन्हीं की हवेली में थे. 1-2 भिश्ती और पिंजारों के परिवार के लोग भी उन की खिदमत के लिए आ कर बस गए थे.

पूरे गांव में उन की मालगुजारी होने से दबदबा भी बहुत था, लेकिन कोई उन के गांव में आ कर बस जाए और उन्हें खबर भी न करे या बस जाने की इजाजत लेने की जहमत भी न उठाए, यह कैसे हो सकता था.

जब इतनी जमीन, इतनी बड़ी हवेली और इतने लोग थे, तो कुछ पहलवान भी थे, जो पहलवान कम गुंडे ज्यादा थे. उन का पलनारहना भी लाजिमी था. जैसे कोई भी बस्ती कहीं भी बस जाए बिना चाहे, बिना बुलाए दोचार कुत्ते आ ही जाते हैं, उसी तरह ये गुंडे भी हवेली के टुकड़ों पर पल रहे थे. कोई आता तो लट्ठ ले कर उसे अंदर लाते थे और कभीकभी कुटाई भी कर देते थे. थाने से ले कर साहब लोगों तक सैयद साहब की खूब पकड़ थी.

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