मध्य प्रदेश : दांव पर सब दलों की साख

ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ कर मध्य प्रदेश की जनता और चुनी गई कांग्रेसी सरकार से गद्दारी की थी या फिर अपनी गैरत की हिफाजत की थी, इस का सटीक फैसला अब मीडिया या चौराहों पर नहीं, बल्कि जनता की अदालत में 10 नवंबर, 2020 को होगा जब 28 सीटों पर हुए उपचुनावों के वोटों की गिनती हो रही होगी. इन 28 सीटों में से 16 सीटें ग्वालियरचंबल इलाके की हैं, जहां वोट जाति की बिना पर डलते हैं और इस बार भी भाजपा और कांग्रेस के भविष्य का फैसला हमेशा की तरह एससीबीसी तबके के लोग ही करेंगे, जिन का मूड कोई नहीं भांप पा रहा है.

साल 2018 के विधानसभा के चुनाव में इन वोटों ने भाजपा और बसपा को अंगूठा दिखाते हुए कांग्रेस के हाथ के पंजे पर भरोसा जताया था, लेकिन तब हालात और थे. ये हालात बारीकी से देखें और समझें तो महाराज कहे जाने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया का असर कम, बल्कि एट्रोसिटी ऐक्ट से पैदा हुई दलितों और सवर्णों की भाजपा से नाराजगी ज्यादा थी.

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दलित इस बात से खफा थे कि भाजपा सवर्णों को शह दे रही है और इस मसले पर अदालत भी उस के साथ है, इस के उलट ऊंची जाति वाले इस बात से गुस्साए हुए थे कि संसद में अदालत के फैसले को पलट कर मोदी सरकार उन की अनदेखी करते हुए दलितों को सिर चढ़ा रही है, जबकि वे हमेशा उसे वोट देते आए हैं.

इसी इलाके में बड़े पैमाने पर एट्रोसिटी ऐक्ट को ले कर हिंसा हुई थी. इस का नतीजा यह हुआ कि इन दोनों ही तबकों के वोट भाजपा से कट कर कांग्रेस की झोली में चले गए और वह इस इलाके की 36 सीटों में से 26 सीटें ले गई.

भाजपा राज्य में 230 सीटों में से महज 109 सीटें ले जा पाई और कांग्रेस 114 सीटें ले जा कर बसपा, सपा और निर्दलीय विधायकों की मदद से अल्पमत की सही सरकार बना ले गई.

दिग्गज और तजरबेकार कमलनाथ ने बहैसियत मुख्यमंत्री जोरदार शुरुआत की जिस से लोगों को आस बंधी थी कि 15 साल बाद सत्ता में आई कांग्रेस सरकार भाजपा से बेहतर साबित होगी, लेकिन सवा साल में ही कांग्रेस की खेमेबाजी और फूट उजागर हुई तो हुआ वही जिस का हर किसी को डर था.

कमलनाथ और परदे के पीछे से सरकार हांक रहे पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने ज्योतिरादित्य सिंधिया की अनदेखी शुरू कर दी नतीजतन वे राम भक्तों की पार्टी से जा मिले जिस के एवज में भाजपा ने उन्हें राज्यसभा में ले लिया और उन के 22 समर्थक विधायकों की मदद से सरकार बना ली जिस की अगुआई एक बार फिर वही शिवराज सिंह चौहान कर रहे हैं, जिन्हें जनता ने 2018 में खारिज कर दिया था.

इतना ही नहीं, भाजपा ने सिंधिया समर्थक 14 विधायकों को मंत्री पद से भी नवाजा और वादे या सौदे के मुताबिक सभी को उन की सीटों से ही टिकट भी दिए.

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सब की हालत पतली

अब क्या ये सभी कांग्रेसी भाजपा के हो कर दौबारा जीत पाएंगे, यह सवाल बड़ी दिलचस्पी से सियासी गलियारों में पूछा जा रहा है जिस का सटीक जवाब तो 10 नवंबर को ही मिलेगा, पर इन नए भगवाइयों की हालत खस्ता है, जो पहले भाजपा की बुराई करते थकते नहीं थे और अब जनता को बता रहे हैं कि भाजपा क्यों कांग्रेस से बेहतर है. लेकिन ऐसा करते और कहते वक्त उन की आवाज में वह दमखम नहीं रह जाता जो 2018 के चुनाव प्रचार के वक्त हुआ करती था. कांग्रेस इन्हें गद्दार और दागी कह तो रही है, लेकिन उस के पास भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि आखिर क्यों वह अपने विधायकों को बांधे रखने में नाकाम रही और क्यों उन्हें अपनी ही पार्टी की सरकार गिराने मजबूर होना पड़ा.

अब ज्यादातर सीटों पर मुकाबला कांग्रेस बनाम कांग्रेस छोड़ चुके नए भाजपाइयों के बीच हो रहा है. भाजपा को बहुमत के लिए 9 सीटें और चाहिए, जबकि कांग्रेस को सरकार बनाने पूरी 28 सीटों पर जीत की दरकार है. लेकिन राह दोनों की ही आसान नहीं है, तो इस की अपनी वजहें भी हैं. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह पहले जैसे लोकप्रिय नहीं रह गए हैं और भाजपा कार्यकर्ता सिंधिया खेमे की खातिरदारी में जुटने से बच रहा हैं, क्योंकि उसे मालूम है कि ये जीत भी गए तो उन्हें कोई फायदा नहीं होने वाला. हालांकि ज्योतिरादित्य सिंधिया जनता को यह बताने लगे हैं कि वे और उन के समर्थक दिलोदिमाग दोनों से भाजपाई हो चुके हैं. इस के लिए वे जयजय श्रीराम का नारा सड़कों पर आ कर लगाने लगे हैं और भाजपाई उसूलों पर चलते हुए संघ के दफ्तर की भी परिक्रमा करने लगे हैं.

दूसरी तरफ पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ को यह एहसास है कि उन के पास खासतौर से इस इलाके में जमीनी कार्यकर्ताओं का टोटा है और 16 में से कोई 10 सीटों पर सिंधिया खेमे के उम्मीदवारों की खुद की अपनी भी साख है जिसे तोड़ पाने के लिए उन के पास काबिल और लोकप्रिय उम्मीदवार नहीं हैं जिस की भरपाई करने वे सिंधिया की गद्दारी को चुनावी मुद्दा बनाने की जुगत में भिड़े हैं.

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भाजपा निगल रही बसपा वोट

कोई मुद्दा न होने और कोरोना महामारी के चलते वोटिंग फीसदी कम होने के डर से भी सभी पार्टियां हलकान हैं. ऐसे में जो पार्टी अपने वोटर को बूथ तक ले आएगी, तय है कि वह फायदे में रहेगी. साफ यह भी दिख रहा है कि कोरोना के डर के चलते बूढ़े वोट डालने नहीं जाएंगे. इस इलाके में कभी मजबूत रही बसपा अब दम तोड़ती नजर आ रही है. 2018 के चुनाव में वह यहां महज एक सीट जीत पाई थी जो अब तक का उस का सब से खराब प्रदर्शन था, इस के बाद भी 6 सीटों पर उस ने भाजपा और कांग्रेस दोनों का खेल बराबरी से बिगाड़ा था. बसपा के वोटरों पर इन दोनों पार्टियों की नजर है, जिस के चलते दोनों का दलित प्रेम उमड़ा जा रहा है.

मायावती का भाजपा के लिए झुकाव किसी सुबूत का मुहताज नहीं है. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद दलित समुदाय कई फाड़ हो चुका है. सामाजिक समरसता के जरीए भाजपा एससीबीसी तबके में थोड़ीबहुत ही सही सेंध लगा चुकी है. उसे उम्मीद है कि अगर इस तबके के 30 फीसदी वोट भी उसे मिले तो सवर्ण वोटों के सहारे दिनोंदिन मुश्किल होती जा रही इस जंग को वह जीत लेगी. दूसरी तरफ कांग्रेस को उम्मीद है कि पिछली बार की तरह ये वोट उसे ही मिलेंगे. बसपा के खाते में अब वही वोट जा रहे हैं जो 20 साल से उसे मिलते रहे हैं, लेकिन मायावती के ढुलमुल रवैए के चलते दलित नौजवान वोटर यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि कौन सी पार्टी हकीकत में उस की हिमायती है.

साख का सवाल

ज्योतिरादित्य सिंधिया को यह साबित करने में पसीने आ रहे हैं कि 2018 की तरह वोट उन के नाम पर पड़ेंगे तो शिवराज सिंह भी यह साबित नहीं कर पा रहे हैं कि भाजपा और वे खुद पहले की तरह अपराजेय हैं, इसलिए उन्होंने ‘शिवज्योति ऐक्सप्रेस’ का नारा दिया है. ज्योतिरादित्य सिंधिया की बूआ कैबिनेट मंत्री यशोधरा राजे भी अपने बबुआ के लिए हाड़तोड़ मेहनत कर रही हैं.

साख मायावती की भी दांव पर लगी है कि बसपा अगर इस बार भी सिमट कर रह गई तो आगे के लिए उस के दामन में कुछ नहीं रहेगा. कमलनाथ को भी साबित करना है कि वे एक बेहतर मुख्यमंत्री थे जो अपनों की ही साजिश का शिकार हुए थे.

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यानी अब जो जीता वह सिकंदर हो जाएगा और हारे के पास हरि नाम भी नहीं बचेगा, इसलिए सारे नेता वोटरों को लुभाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद सब का सहारा ले रहे हैं, जिन्हें मालूम है कि यह चुनाव आम चुनाव से भी ज्यादा अहम उन के वजूद के लिए है और जानकारों की दिलचस्पी इस इलाके में बिहार के बराबर ही है. फर्क सिर्फ इतना है कि अगर कांग्रेस वोटर के दिमाग में यह बात बैठा पाई कि भाजपा ने जोड़तोड़ कर सरकार बना कर राज्य का भला नहीं किया है तो बाजी भगवा खेमे को महंगी भी पड़ सकती है, क्योंकि विकास और रोजगार के मुद्दों पर तो वोटर की नजर में दोनों ही पार्टियां नकारा हैं.

खेती जरूरी या मंदिर

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जिस दिन (17 सितंबर) जन्मदिन था, भाजपा के कार्यकर्ता सरकार की उपलब्धियां गिनागिना कर जहां एकदूसरे को मिठाइयां बांट रहे थे, वहीं देश की कई जगहों पर किसानों को मारापीटा जा रहा था.

हरियाणा में किसान सरकार के खिलाफ मोरचा खोले बैठे थे. विरोध का आलम यह था कि इस प्रदर्शन से घबरा कर पुलिस को लाठीचार्ज तक करना पड़ा था, जिस में कई किसानों को गंभीर चोटें आई थीं. पुलिस ने बुजुर्गों तक को नहीं छोड़ा था.

दरअसल, यह विरोध प्रदर्शन हरियाणा, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और पंजाब के किसान कृषि क्षेत्रों में सुधार के लिए मोदी सरकार के 3 विधेयकों के खिलाफ कर रहे थे, जिस में उन की मांग थी कि इन कानूनों को तत्काल वापस लिया जाए.

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इस विधेयक के विरोध में हरियाणा में किसानों ने जम कर विरोध किया. यहां के प्रदर्शन कर रहे किसानों का मानना था कि जो अध्यादेश किसानों को अपनी उपज खुले बाजार में बेचने की इजाजत देता है, वह तकरीबन 20-22 लाख किसानों खासकर जाटों के लिए तो एक झटका ही है.

मगर किसानों की आवाज को सरकार दबाना चाहती थी, ताकि इस का असर दूसरे राज्यों में न फैले. इस वजह से प्रदर्शन कर रहे किसानों पर पुलिस ने लाठियां भांजनी शुरू कर दीं. इस में किसी को गहरी चोटें आईं तो किसी के पैर की हड्डी टूट गई.

हरियाणा के एक किसान अरविंद राणा कहते हैं, “देश का पेट भरण आले किसान, देश की रक्षा करण आले किसान के बेटे, देश के भीतर कानून व्यवस्था बणाण आले सारे किसानों के बेटे, सारे व्यापारी, नेताअभिनेता और सारे अमीर आदमियां की सिक्योरिटी करण आले किसानों के बेटे, वोट दे कर सरकार बणाण आले किसान, देश की नींव किसान… और फिर भी अन्नदाता क लठ मारन का आदेश देते शर्म नहीं आई?”

गुस्सा बेवजह भी नहीं

सरकार के खिलाफ किसानों का गुस्सा बेवजह भी नहीं है, क्योंकि पहले नोटबंदी फिर जीएसटी और फिर कोरोना काल में पूरी तरह फिसड्डी रही सरकार ने एक बार फिर कृषि विधेयक बिल से देश के किसानों को खुश नहीं कर पाई.

किसान संगठनों का आरोप है कि नए कानून के लागू होते ही कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कौरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इस का नुकसान किसानों को उठाना पड़ेगा.

किसान सौरव कुमार कहते हैं, “देश के किसानों की चिंता जायज है. किसानों को अगर बाजार में अच्छा दाम मिल ही रहा होता तो वे बाहर क्यों जाते? जिन उत्पादों पर किसानों को एमएसपी यानी समर्थन मूल्य ₹ नहीं मिलता, उन्हें वे कम दाम पर बेचने को मजबूर हो जाते हैं.

“पंजाब में होने वाले गेहूं और चावल का सब से बड़ा हिस्सा या तो पैदा ही एफसीआई द्वारा किया जाता है या फिर एफसीआई उसे खरीदता है.”

वहीं प्रदर्शनकारियों को यह डर है कि एफसीआई अब राज्य की मंडियों से खरीद नहीं पाएगा, जिस से ऐजेंटों और आढ़तियों को तकरीबन 2.5 फीसदी के कमीशन का घाटा होगा.

इस का सब से बड़ा नुकसान आने वाले समय में होगा और धीरेधीरे मंडियां खत्म हो जाएंगी. इस से बेरोजगारी भी बढ़ेगी.

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अब पछता रहा हूं

कृषि मामलों के जानकार व खुद किसान रहे आदेश कुमार को मोदी सरकार से कोफ्त है. वे कहते हैं, “मैं ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए भाजपा को वोट किया था, पर अब पछता रहा हूं.

“यह सरकार हर मोरचे पर फेल रही है और किसानों के लिए कभी कुछ नहीं कर पाई. पहले नोटबंदी फिर जीएसटी के बाद सरकार का कृषि का नया कानून देश के किसानों के खिलाफ है.

“अभी पिछले ही साल का एक वाकिआ बताता हूं. पैप्सिको ने भारत में 4 किसानों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया. कंपनी का आरोप था कि ये किसान आलू की उस किस्‍म की खेती कर रहे थे, जो कि कंपनी द्वारा अपने लेज पोटेटो चिप्‍स के लिए विशेष रूप से रजिस्‍टर्ड है.

“तब किसान संगठन और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पैप्सिको का विरोध किया था. पैप्सिको ने नुकसान की भरपाई के लिए हर किसान से 1-1 करोड़ रुपए की मांग भी की.”

मालूम हो कि पैप्सि‍को भारत की सब से बड़ी प्रोसेस ग्रेड आलू की खरीदार है और यह उन पहली कंपनियों में से एक है जो आलू की विशेष संरक्षित किस्‍म को खुद के लिए उगाने के लिए हजारों स्‍थानीय किसानों के साथ काम कर रही है.

तब किसान संगठन और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पैप्सिको के खिलाफ कार्यवाही करने की मांग की थी और अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि भारतीय कृषि कानून के तहत संरक्षित फसल को उगाना और उसे बेचना किसानों का अधिकार है.

किसानों को इसलिए भी डराया और कानूनी रूप से प्रताड़ित किया गया, ताकि किसान डर जाएं और इस फसल की खेती ही न करें.

किसानों ने सरकार को चिट्ठी भी लिखी थी जिस में उन्होंने आरोप लगाए थे कि पैप्सिको ने तथाकथित आरोपी किसानों के पास प्राइवेट जासूसों को संभावित ग्राहक बना कर भेजा, चुपचाप उन के वीडियो बनाए और आलू के सैंपल हासिल किए.

रोजगार जरूरी मंदिर नहीं

आदेश बताते हैं, “असल में सरकार की मंशा ही सही नहीं है. अगर देश में खुशहाली नहीं रहेगी, बेरोजगारी चरम पर होगी, नौकरियां खत्म हो जाएंगी, किसानों की सुनी नहीं जाएगी तो सरकार पर सवालिया निशान लगना वाजिब है.

“हमें न मंदिर चाहिए न मसजिद, पहले बेरोजगारी तो खत्म करो. किसान, जो देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है उन के लिए तो कुछ करो. पहले से मरे किसानों को सरकार और मार रही है.”

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अपने ही खेत में मजदूर

आदेश कहते हैं, “2 राज्यों के बीच व्यापार को बढ़ावा देने के प्रावधान पर भी भरम की हालत है. 80-85 फीसदी छोटे किसान एक जिले से दूसरे जिले में नहीं जा पाते, किसी दूसरे राज्य में जाने का तो सवाल ही नहीं उठता. यह बिल बाजार के लिए बना है, किसानों के लिए नहीं.”

“इस प्रावधान से किसान अपनी ही जमीन पर मजदूर हो जाएगा. काला बाजारी को बढ़ावा मिल सकता है.”

आखिर क्या है इस बिल में

जिन विधेयकों को मंजूरी मिली है उस में कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य विधेयक 2020 और कृषक कीमत आश्वासन समझौता और कृषि सेवा पर करार विधेयक 2020 शामिल हैं.

कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक 2020 के तहत किसान या फिर व्यापारी अपनी उपज को मंडी के बाहर भी दूसरे जरीयों से आसानी से व्यापार कर सकेंगे.

इस बिल के मुताबिक राज्य की सीमा के अंदर या फिर राज्य से बाहर, देश के किसी भी हिस्से पर किसान अपनी उपज का व्यापार कर सकेंगे. इस के लिए व्यवस्थाएं की जाएंगी. मंडियों के अलावा व्यापार क्षेत्र में फौर्मगेट, वेयर हाउस, कोल्डस्टोरेज, प्रोसैसिंग यूनिटों पर भी बिजनैस करने की आजादी होगी.

मगर असल में भारत में छोटे किसानों की तादाद ज्यादा है, तकरीबन 80-85 फीसदी किसानों के पास 2 हैक्टेयर से कम जमीन है, ऐसे में उन्हें बड़े खरीदारों से बात करने में परेशानी होती आई है. इस के लिए वे या तो बड़े किसान या फिर बिचौलियों पर निर्भर होते थे. अब उन्हें फसल बेचने के लिए खुद पहल करनी होगी और यह पूरी संभावना है कि किसानों को इन प्रकियाओं से गुजरने में हिचक होगी या फिर उन्हें समझ ही नहीं आएगा कि वे फसल कहां और कब बेचें.

खुद भाजपा की वरिष्ठ नेता रहीं सुषमा स्वराज ने साल 2012 में सदन में किसानों की दशा और दिशा पर वर्तमान सरकार का ध्यान खींचने की कोशिश की थी.

सुषमा स्वराज ने बताया था कि किस तरह किसान अपने ही फसल को नहीं बेच पाते और आश्चर्य तो यह कि देश में पोटैटो चिप्स बनाने वाली कंपनियां देश के किसानों द्वारा तैयार फसल से चिप्स न बना कर विदेशी आयातित आलूओं से चिप्स बना कर बेचती हैं.

राज्य सरकारों की चिंता

किसानों की इन चिंताओं के बीच राज्‍य सरकारों खासकर पंजाब और हरियाणा को इस बात का डर सता रहा है कि अगर निजी खरीदार सीधे किसानों से अनाज खरीदेंगे तो उन्‍हें मंडियों में मिलने वाले टैक्‍स का नुकसान होगा, इसलिए कई राज्यों के सरकार भी इस का विरोध कर रहे हैं. खुद सरकार की सहयोगी रही अकाली शिरोमणि दल भी सरकार के इस फैसले से सहमत नहीं दिखी और पार्टी की वरिष्ठ नेता हरसिमरन कौर बादल ने केंद्रीय मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने बिल को ले कर सवाल उठाए और अपने ट्वीटर हैंडल पर उन्‍होंने लिखा, ‘अगर ये बिल किसान हितैषी हैं तो समर्थन मूल्य का जिक्र बिल में क्यों नहीं है? बिल में क्यों नहीं लिखा है कि सरकार पूरी तरह से किसानों का संरक्षण करेगी? सरकार ने किसान हितैषी मंडियों का नैटवर्क बढ़ाने की बात बिल में क्यों नहीं लिखी है? सरकार को किसानों की मांगों को सुनना पड़ेगा.’

हालांकि जिस समर्थन मूल्य को ले कर किसानों और विपक्ष को एतराज है सरकार ने उस को पूरी तरह साफ नहीं किया है. दरअसल, किसानों के हितों की रक्षा करने के लिए देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था लागू है. अगर कभी फसलों की कीमत बाजार के हिसाब से गिर भी जाती है, तब भी केंद्र सरकार तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही किसानों से फसल खरीदती है, ताकि किसानों को नुकसान से बचाया जा सके.

किसी फसल की एमएसपी पूरे देश में एक ही होती है और इस के तहत अभी 23 फसलों की खरीद की जा रही है. कृषि मंत्रालय, भारत सरकार के अधीन कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफारिशों के आधार पर एमएसपी तय की जाती है.

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आम आदमी पार्टी के नेता नीरज गुप्ता कहते हैं, “जब आप मजदूरी करने जाते हैं तो सरकार द्वारा मिनिमम भत्ता तय किया हुआ होता है.

“इस को इस तरह से समझना होगा कि प्राइवेट नौकरी में अनुभव और योग्यता के आधार पर पे स्केल तय होता है. सरकारी नौकरियों में पे ग्रेड होता है यानी किसी भी काम में कम से कम आप को क्या मिलेगा यह तय है, तो अकेले किसान का क्या कुसूर है कि उस के लिए उस एमएसपी को ही हटाया जा रहा है?

“प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि एमएसपी नहीं हट रहा तो उसे लिखने में क्या गुरेज है? पिछले कुछ दिनों का इतिहास उठा कर देखिए, ओला व उबर जैसी कंपनियों की वजह से कितनी कारें सड़कों पर आ गईं आज वे सब कौड़ियों के दाम बिकने को तैयार हैं. इस बिल से किसान जो कुछ भी कमाता रहा है, वह भी उसे नहीं मिलेगा.”

नोटबंदी जैसा हश्र होगा

किसान परिवार से संबंध रखने वाले संदीप भोनवाल कहते हैं, “सरकार द्वारा किसानों के लिए लाए हुए अध्यादेश ठीक उसी तरह साबित होंगे जिस तरह सरकार ने कुछ साल पहले नोटबंदी कर के देश को किया था. तब सरकार ने कहा था कि इस से देश को फायदा होगा, लेकिन आज तक एक भी फायदा नोटबंदी से देश को नहीं दिखा.

“ठीक उसी तरह जो ये बिल सरकार किसानों के लिए ले कर आई है, आने वाले समय में इस के नतीजे ठीक नोटबंदी की तरह ही घातक होंगे.

“इस बिल की सब से गलत बात यह भी लगी कि कोई भी किसानों का संगठन सरकार ने अपने दायरे में ले कर उस बिल का निर्माण नहीं कराया. अब आप ही समझें कि जो बिल किसानों के लिए बन रहा है अगर उस में किसानों की ही राय  शामिल न हो तो ऐसे बिल का क्या फायदा?”

किसान कुदरत की मार तो जैसेतैसे झेल जाते हैं लेकिन देश की दोहरी आर्थिक नीतियां उन का मनोबल तोड़ कर रख देती हैं.

किसानों द्वारा खुदकुशी

पिछले दिनों राजस्थान के एक किसान सुरेश कुमार ने इसलिए फांसी लगा ली क्योंकि वह कर्ज से फंसा पड़ा था. बीते कुछ साल से उन की फसल अच्छी नहीं हुई थी और जो हुई उस के भी वाजिब दाम नहीं मिल पाए. इस दौरान सुरेश कुमार पर कर्ज  बढ़ता गया.

मध्य प्रदेश के एक किसान संत कुमार सनोडिया ने इसलिए जहर खा कर जान दे दी, क्योंकि बेची गई फसल के एवज में उसे 4 महीने सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने पड़े, मगर फिर भी पैसे नहीं मिले.

नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक बीते तकरीबन 20 सालों में देशभर के 3 लाख से ज्यादा किसानों को खुदकुशी करने के लिए मजबूर होना पड़ा है.

एनसीआरबी की एक हालिया रिपोर्ट बताती है कि साल 2018 में कृषि क्षेत्र से जुड़े 10,349 लोगों ने खुदकुशी कर ली थी. वहीं साल 2017 में यह आंकड़ा 10,655 था.

राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के एक सर्वे के मुताबिक देश के आधे से ज्यादा किसान कर्ज के बोझ तले दबे हैं और एक स्टडी के मुताबिक हर तरफ से निराश हो चुके देश के 76 फीसदी किसान खेती छोड़ कर कुछ और करना चाहते हैं.

आर्थिक सर्वे 2018-19 के आंकड़े भी बताते हैं कि साल 2016-17 की तुलना में कृषि की सकल मूल्य वृद्धि (जीवीए) में तकरीबन 54 फीसदी की कमी देखी गई है.

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चौपट अर्थव्यवस्था

रहीसही कसर कोरोना ने पूरी कर दी. कोरोना काल में अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका लगा तो इस ने 40 साल का रिकौर्ड तोड़ दिया. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 23.9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है. कोरोना काल में पहली तिमाही में देश का सकल घरेलू उत्पादन वृद्धि दर जीरो से 23.9 फीसदी नीचे चली गई है.

इस से बेरोजगारी दर में भी इजाफा हुआ. सैंटर फौर मौनिटरिंग इंडियन इकोनौमी (सीएमआईई) ने देश में बेरोजगारी पर सर्वे रिपोर्ट जारी किया है. इस सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक 3 मई को खत्म हुए हफ्ते में देश में बेरोजगारी दर बढ़ कर 27.1 फीसदी हो गई है, वहीं अप्रैल, 2020 में देश में बेरोजगारी दर बढ़ कर 23.5 फीसदी पर पहुंच गई थी.

सरकारी उदासीनता की वजह से देश में कई उद्यम बंद हो गए हैं. बेरोजगारी की दर शहरी क्षेत्रों में सब से ज्यादा बढ़ी है.

सीएमआईई ने अंदाजा लगाया गया है कि अप्रैल में दैनिक वेतन भोगी श्रमिकों और छोटे व्यवसायी सब से ज्यादा बेरोजगार हुए हैं. सर्वे के मुताबिक 12 करोड़ से ज्यादा लोगों को नौकरी गंवानी पड़ी है. इन में फेरी वाले, सड़क के किनारे सामान बेचने वाले, निर्माण उद्योग में काम करने वाले कर्मचारी और कई लोग शामिल हैं.

मगर सरकार को इन सब से कोई चिंता नहीं. लोगों को रोजगार चाहिए, रोटी चाहिए पर भाजपा शासित राज्यों में वहां की सरकारों को इस से कुछ लेनादेना नहीं.

राम की चिंता किसानों की नहीं

भाजपा शासित राज्य उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने बेरोजगारी पर भले कुछ ध्यान न दे रही हो, मगर राज्य में मंदिरों व तीर्थस्थलों में जम कर पैसा बहाया जा रहा है.

योगी सरकार की अयोध्या में राम के नाम पर लगभग 135 करोड़ रुपए खर्च करने की तैयारी है. यह रकम उसे केंद्र सरकार देगी.

इस पैसे से योगी सरकार अयोध्या को सजाएगीसंवारेगी. राम और दशरथ के महल और राम की जलसमाधि वाले घाटों पर रौनक बढ़ाया जाएगा.

योगी सरकार उत्तर प्रदेश में रामलीला स्थलों में चारदीवारी निर्माण के लिए 5 करोड़ रुपए भी खर्च करेगी. मगर भगवा रंग में रंगी सरकार से यही उम्मीद भी है, क्योंकि राम के नाम पर राजनीति तेज है और देश के किसानों की हालत भी राम भरोसे से कम नहीं. अब देश के किसानों को थाली और ताली बजाने के सिवा और कोई रास्ता भी तो नहीं दिख रहा.

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बिहार चुनाव : नेताओं की उछलकूद जारी

आम लोगों के बीच किस पार्टी से किस को टिकट मिलेगा, इस पर अभी चर्चा ज्यादा हो रही है. अपनेअपने दलों से टिकट लेने वाले लोग आलाकमान तक पहुंच बनाने में रातदिन एक किए हुए हैं. कई दलों के संभावित उम्मीदवार अपनेअपने इलाके में प्रचार के काम में भी लग गए हैं.

सियासी गलियारे में पक्षविपक्ष के बीच आरोपप्रत्यारोप का दौर जारी है. एक दल से दूसरे दल में नेताओं की उछलकूद जारी हो गई है. गठजोड़ और मोरचे बनने लगे हैं. राजनीतिक पैतरेबाजियां शुरू हो चुकी हैं.

बिहार की 243 विधानसभा सीटों पर अक्तूबरनवंबर में चुनाव होना है. वर्तमान विधानसभा का कार्यकाल 29 नवंबर को खत्म होने वाला है. वर्तमान सरकार से भी बहुतेरे लोग खफा हैं. युवा राजद के राष्ट्रीय महासचिव ऋषि कुमार ने बताया कि राजद छोड़ कर भाजपा के साथ मिल कर सत्ता में आने के बाद नीतीश कुमार की इमेज लगातार गिरती गई. एससी और ओबीसी तबके के लोगों को जितना विश्वास इन के ऊपर था, वह लगातार घटता गया. नीतीश कुमार भाजपा के इशारे पर ही चलने लगे. ऊंचे तबके के लोगों को नीतीश कुमार प्रश्रय देने लगे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हर बात में सुर में सुर मिलाने लगे. विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग करने वाले और डीएनए की जांच के लिए नाखूनबाल केंद्र सरकार को भेजने वाले नीतीश कुमार ने भाजपा के सामने घुटने टेक दिए. बौद्ध धर्म से प्रभावित नीतीश कुमार ने कुरसी के चक्कर में भाजपा का थाम लिया. इस के चलते लोग इन्हें सोशल मीडिया पर ‘पलटू चाचा’ और ‘कुरसी कुमार’ के नाम से भी लोग ट्रोल करने लगे हैं.

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सामाजिक सरोकारों से जुड़े अवध किशोर कुमार का कहना है कि जब कोई भी शख्स सत्ता में लंबे अरसे तक रह जाता है तो वह मगरूर हो जाता है, इसलिए सत्ता में बदलाव भी जरूरी है.

महागठबंधन की ओर से अब तक तय नहीं हो पाया है कि किस पार्टी का उम्मीदवार किस क्षेत्र से चुनाव लड़ेगा. इस की वजह से गठबंधन वाले सहयोगी दलों के बीच बेचैनी बढ़ने लगी है. सभी दल अपनाअपना गठबंधन मजबूत करने में लगे हुए हैं. महागठबंधन में लोग असमंजस की स्थिति में है. अब तक महागठबंधन के कई नेता अपनी अपनी पार्टी छोड़ कर जद (यू) में शामिल हो गए हैं. महागठबंधन में सीटों को ले कर दिक्कत आ रही है. कांग्रेस ने जिला स्तरीय वर्चुअल रैली के साथ अपना चुनावी अभियान तेज कर दिया है, लेकिन अभी तक सीटों का बंटवारा नहीं हो पाया है. राजद के नेतृत्व वाला महागठबंधन अब तक तय नहीं कर पाया है कि किस पार्टी का उम्मीदवार किस क्षेत्र से चुनाव लड़ेगा. उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा, मुकेश साहनी का वीआईपी, कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों के उम्मीदवार और पार्टी प्रमुख अभी असमंजस की स्थिति में हैं. महागठबंधन से इस बात का खयाल रखा जा रहा है कि सत्ता विरोधी वोटों का बंटवारा किसी भी कीमत पर नहीं हो सके.

नीतीश कुमार से नाराज चल रहे चिराग पासवान के बोल बदल गए हैं. उन्होंने कहा कि मुझे राजग के चेहरे के रूप में नीतीश कुमार से कोई समस्या नहीं है. चिराग पासवान भाजपा से तत्काल रिश्ते नहीं खराब नहीं करना चाहते हैं. रामविलास पासवान ने कहा है कि वे चिराग के सभी फैसलों पर दृढ़ता से खड़े हैं. हाल के दिनों तक नीतीश कुमार चिराग पासवान के बोल से परेशान रहे हैं.

जद (यू) के प्रवक्ता केसी त्यागी ने कहा कि उन का गठबंधन भाजपा के साथ है और लोक जनशक्ति पार्टी भाजपा के साथ गठबंधन में है. फिलहाल नीतीश कुमार और चिराग पासवान के बीच विवाद पर विराम लग गया है. दोनों नेताओं के शीर्ष पर भाजपा है, इसलिए दोनों नेताओं को भाजपा की बात माननी ही पड़ेगी.

इस बार का चुनाव प्रचार वर्चुअल संवाद के जरीए जारी है. आमसभा के दौरान किसी सभा में कितने लोग जुटे इस का आकलन तो सही तरीके से नहीं हो पाता था, लेकिन वर्चुअल संवाद में इसे कितने लोगों ने देखा है, इस का आंकड़ा पता चल जाता है.

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नीतीश कुमार के वर्चुअल संवाद में 31.2 लाख यूजर का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन बिहार में यह आंकड़ा 12 लाख को भी पार नहीं कर सका.

जब सत्ता पक्ष के पास सारे संसधान रहते वर्चुअल संवाद की स्थिति यह है तो विपक्ष इस में कितनी कामयाबी हासिल कर पाएगा, यह शायद आने वाला समय ही बताएगा. इस बार का चुनाव पहले के चुनाव से हट कर होगा. नेता और आम नागरिक को भी एक नए तजरबे के साथ जुड़ना होगा.

गहरी पैठ

अच्छे दिनों की तरह प्रधानमंत्री का एक और वादा आखिर टूट ही गया. 24 मार्च, 2020 को उन्होंने वादा किया था कि लौकडाउन के 21 दिनों में वे कोरोना वायरस को हरा देंगे और महाभारत को याद दिलाते हुए कहा था कि 18 दिन के युद्ध की तरह कोरोना की लड़ाई भी जीती जाएगी.

अंधभक्तों ने यह बात उसी तरह मान ली थी जैसे उन्होंने नोटबंदी, जीएसटी, धारा 370 से कश्मीर में बदलाव, राष्ट्रभक्ति, 3 तलाक के कानून में बदलाव, नागरिक कानून में बदलाव मान लिया था. महाभारत के युद्ध की चाहे जितनी वाहवाही कर लो असलियत तो यही?है न कि युद्ध के बाद पांडवों की पूरी जमात में सिर्फ 5 पांडव और कृष्ण बचे थे, बाकी सब तो मारे गए थे.

पिछले 6 सालों से हम हर युद्ध में खुद को मरता देख रहे हैं. कोरोना के युद्ध में भी अब 15 लाख से ज्यादा मरीज हो चुके हैं और 35,000 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं. कहां है महाभारत का सा वादा?

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कोरोना की लड़ाई में हम उसी तरह हारे हैं जैसे दूसरी झड़पों में हारे. नोटबंदी के बाद करोड़ों देशवासियों को कतारों में खड़ा होना पड़ा पर काला धन वहीं का वहीं है. जीएसटी के बाद भी न तो सरकार को टैक्स ज्यादा मिला, न नकद लेनदेन बंद हुआ.

कश्मीर में धारा 370 को बदलने के बाद पूरा कश्मीर जेल की तरह बंद है. जो लोग वहां प्लौट खरीदने की आस लगा रहे थे या वादा जगा रहे थे अब भी मुंह छिपा नहीं रहे क्योंकि जो लोग रोज झूठे वादे करते हैं उन्हें वादों के झूठ के पकड़े जाने पर कोई गिला नहीं होता.

कोरोना के बारे में हमारी सरकार ने पहले जो भी कहा था वह इस भरोसे पर था कि हम तो महान हैं, विश्वगुरु हैं. हमें तो भगवान की कृपा मिली है. पर कोरोना हो या कोई और आफत वह धर्म और पूजा नहीं देखती. उलटे जो धर्म में भरोसा रखता है वह कमजोर हो जाता है. वह तैयारी नहीं करता. हम ने सतही तैयारी की थी.

हमारा देश अमेरिका और ब्राजील की तरह निकला जहां भगवान पर भरोसा करने वाले बहुत हैं. दोनों जगह पूजापाठ हुए. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के कट्टर समर्थक गौडगौड करते फिरते हैं. कई महीनों तक ट्रंप ने मास्क नहीं पहना. नरेंद्र मोदी भी मास्क न पहन कर अंगोछा पहने रहे जो उतना ही कारगर है जितना मास्क, इस पर संदेह है. देश की बड़ी जनता उन की देखादेखी मास्क की जगह टेढ़ासीधा कपड़ा बांधे घूम रही है.

इस देश में बकबकिए भी बहुत हैं. यहां बोले बिना चैन नहीं पड़ता और बोलने वाले को सांस लेने के लिए मास्क या अंगोछा टेढ़ा करना पड़ता है. यह अनुशासन को ढीला कर रहा है. नतीजा है 15 लाख लोग चपेट में आ चुके हैं और 5 लाख अभी भी अस्पतालों में हैं. जहां साफसफाई हो ही नहीं सकती क्योंकि साफसफाई करने वाले जिन घरों में गायों के दड़बों में रहते हैं वहां गंद और बदबू हर समय पसरी रहती है.

कोरोना की वजह से गरीबों की नौकरियां चली गईं. करोड़ों को अपने गांवों को लौटना पड़ा. जमापूंजी लौटने में ही खर्च हो गई. अब वे सरकारी खैरात पर जैसेतैसे जी रहे हैं. यह जीत नहीं हार है पर हमेशा की तरह हम घरघर पर भी जीत का सा जश्न मनाएंगे जैसे महाभारत पढ़ कर या रामायण पढ़ कर मनाते हैं.

देश में नौकरियों का अकाल बड़े दिनों तक बना रहेगा. पहले भी सरकारी फैसलों की वजह से देश के कारखाने ढीलेढाले हो रहे थे और कई तरह के काम नुकसान के कगार पर थे, अब कोरोना के लौकडाउनों की वजह से बिलकुल ही सफाया होने वाला है. रैस्टोरैंटों का काम एक ऐसा काम था जिस में लाखों नए नौजवानों को रोजगार मिल जाता था. इस में ज्यादा हुनर की जरूरत नहीं होती. गांव से आए लोगों को सफाई, बरतन धोने जैसा काम मिल जाता है. दिल्ली में अकेले 1,600 रैस्टोरैंट तो लाइसैंस वाले थे जो अब बंद हैं और उन में काम करने वाले घर लौट चुके हैं. थोड़े से रैस्टोरैंटों ने ही अपना लाइसैंस बनवाया है क्योंकि उन्हें नहीं मालूम कि कब तक बंदिशें जारी रहेंगी.

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ऐसा नहीं है कि लोग अपनी एहतियात की वजह से रैस्टोरैंटों में नहीं जाना चाहते. लाखों तो खाने के लिए इन पर ही भरोसा रखते हैं. ये सस्ता और महंगा दोनों तरह का खाना देते हैं. जो अकेले रहते हैं उन के लिए अपना खाना खुद बनाना एक मुश्किल काम है. अब सरकारी हठधर्मी की वजह से न काम करने वाले को नौकरी मिल रही है, न खाना खाने वाले को खाना मिल रहा है. यह हाल पूरे देश में है. मकान बनाने का काम भी रुक गया. दर्जियों का काम बंद हो गया क्योंकि सिलेसिलाए कपड़ों की बिक्री कम हो गई. ब्यूटीपार्लर बंद हैं, जहां लाखों लड़कियों को काम मिला हुआ था. अमीर घरों में काम करने वाली नौकरानियों का काम खत्म हो गया.

बसअड्डे बंद हैं. लोकल ट्रेनें बंद हैं. मैट्रो ट्रेनें बंद हैं. इन के इर्दगिर्द सामान बेचने वालों की दुकानें भी बंद हैं और इन में वे लोेग काम पा जाते हैं जिन के पास खास हुनर नहीं होता था. ये सब बीमार नहीं बेकार हो गए हैं और गांवों में अब जैसेतैसे टाइम बिता रहे हैं.

दिक्कत यह है कि नरेंद्र मोदी से ले कर पास के सरकारी दफ्तर के चपरासी तक सब की सोच है कि अपनी सुध लो. नेताओं को कुरसियों की पड़ी है, चपरासियों को ऊपरी कमाई की. ये जनता के फायदेनुकसान को अपने फायदेनुकसान से आंकते हैं. ये सब अच्छे घरों में पैदा हुए और सरकारी दया पर फलफूल कर मनमानी करने के आदी हो चुके हैं. इन्हें आम जनता के दुखदर्द का जरा सा भी खयाल नहीं है. ये गरीबों की सुध लेने को तैयार नहीं हैं. इन के फैसले बकबक करने वाले होते हैं, नारों की तरह होते हैं और 100 में से 95 खराब और गलत होते हैं. अगर देश चल रहा है तो उन लोगों की वजह से जो सरकार की परवाह किए बिना काम किए जा रहे हैं, जो कानून नहीं मानते, जो सड़कों पर घर बना सकते हैं, सड़कों पर व्यापार कर सकते हैं.

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आज अगर भुखमरी नहीं है तो उन किसानों की वजह से जो बिना सरकार के सहारे काम कर रहे हैं. उन कारीगरों की वजह से जो छोटेमोटे कारखानों में काम कर रहे हैं. आज देश गरीबों की मेहनत पर चल रहा है, अमीरों की सूझबूझ और सरकार के फैसलों पर नहीं.

न्याय करता ‘गुंडों का गैंग’

भीड के रूप में ‘गुंडो का गैंग’ बनाकर न्याय देने का चलन नया नहीं है. महाभारत में द्रोपद्री का गुनाह इतना था कि वह अंधेपन पर हंस दी थी. द्रोपदी को दंड देने के लिये जुएं में उसका छलपूर्वक जीता गया और भरी सभा में अपमानित करके दंड दिया गया. सभा भीड का ही एक रूप थी. औरत के अपमान पर मौन थी. ऐसी तमाम घटनायें धार्मिक ग्रंथों में मौजूद है. यही कहानियां बाद में कबीलों में फैसला देने का आधार बनने लगी. देश की आजादी के बाद कबीले खत्म हो गये पर उनकी संस्कृति खत्म नहीं हुई. कबीलों की मनोवृत्ति ‘खाप पंचायतो’ में बदल गई. कानूनी रूप से खाप पंचायतो पर रोक लगी तो भीड के रूप में न्याय देने की शुरूआत हो गई. इनको राजनीति से ताकत मिलती है. भीड के रूप में उमडी जनता ने 1992 में अयोध्या में ढांचा ढहा दिया. जिन पर आरोप लगा वह हीरो बनकर समाज का प्रतिनिधित्व कर रहे है. मजेदार बात यह है कि ढांचा ढहाने की जिम्मेदारी भी कोई लेने को तैयार नहीं है. कानून के समक्ष चैलेंज यह है कि भीड के रूप में किसको सजा दे ? भीड के रूप को तय करने की उहापोह हालत ही अपराध करने वालों को बचने का मौका दे देती है.

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कन्नौज जिले के कोतवाली क्षेत्र के बनियान गांव में शिवदेवी नामक की महिला अपने मायके में रहती थी. शिवदेवी के पति की मौत हो चुकी थी. उसके अपने 5 बच्चे भी थे. पति की मौत के बाद ससुराल वालों के व्यवहार से दुखी होकर शिवदेवी अपने मायके रहने चली आई थी. यहां भी परिवार के लोग उसका साथ नहीं दे रहे थे. ऐसे में गांव के ही रहने वाले दीपक ने उसकी मदद करनी शुरू की. दीपक दिव्यांग था. वह अक्सर समय बेसमय भी जरूरत पडने पर शिवदेवी के घर आ जाता था. शिवदेवी के चाचा और उनके परिजनों को यह बुरा लगता था. 24 अगस्त 2020 को दीपक शिवदेवी से मिलने उसके घर आया तो शिवदेवी के चाचा और उनके लडको ने उसे और शिवदेवी को कमरे में बंद करके पीटना शुरू कर दिया. इसके बाद अगले दिन बुद्ववार की सुबह दोनो के सिर मुंडवाकर मुंह पर कालिखपोत कर, गले में जूतों की माला पहनाकर, डुगडुगी बजाकर पूरे गांव में जुलूस बनाकर निकालना शुरू कर दिया.

मुंह पर कालिख पोते, गले में जूतों की माला पहने शिवदेवी और दीपक भीड के द्वारा पूरे गांव में घुमाये जा रहे थे. गांव के बच्चे, महिलायें, बडेबूढे इस तमाषें को देख रहे थे. कुछ लोग इसका वीडियों भी बना रहे थे. वीडियों बनाकर वायरल भी कर दिया गया. जिसकी आलोचना षुरू हो गई. इसके बाद पुलिस गांव पहुंची तो भीड से किसी तरह से दोनो को छुडाकर थाने लाई. शिवकुमारी और दीपक को थाने में नजरबंद किया गया. पुलिस ने भीड के खिलाफ मुकदमा कायम करने की बात कही. भीड का यह न्याय केवल कन्नौज भर तक सीमित नहीं है. पूरे देश में भीडतंत्र ‘गुंडो का गैंग’ बनाकर न्याय देने का काम करने लगा है. यही घटना जब हिन्दू मुसिलम के बीच होती है तो ‘मौब लिन्चिग‘ मान लिया जाता है.

जैसा नेता वैसी प्रजा:

कहावत कि ‘जैसा राजा वैसी प्रजा‘ कन्नौज में भी यह कहावत पूरी तरह से फिट बैठती है. कोरोना काल में सही तरह से काम ना करने का आरोप लगाते हुये कन्नौज के भाजपा सासंद सुब्रत पाठक ने कन्नौज के दलित तहसीलदार अरविंद कुमार और लेखपाल को उनके घर में घुसकर पीटा. सांसद अकेले नहीं थे वहां पर 25 से अधिक उनके समर्थक थे. पीटे गये तहसीलदार ने न्याय की गुहार लगाई. विपक्ष के नेता अखिलेश यादव और मायावती भी घटना के विरोध में बयान देने लगे. इसके बाद पुलिस ने मुकदमा कायम कर पूरे मामलें की लीपापोती कर दी. अखिलेश यादव ने कहा कि ‘संासद के द्वारा एक दलित अफसर को पीटा जाना सरकार के चरित्र का बताता है‘.

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मायावती ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से कडे कदम उठाने की मांग की. सरकार ने कोई ऐसा कडा कदम उठाया नही. जो नजीर बन सके. इससे भयभीत होकर तहसीलदार अरविंद कुमार कर पत्नी अलका रावत ने कहा कि यहां हमें खतरा है इसलिये हमारा तबादला कहीं और कर दिया जाये. सांसद को किसी भी सरकारी कर्मचारी के खिलाफ कदम उठाने का अधिकार है. पर इस तरह से किसी अफसर को घुसकर उसके औफिस में पीटना सहीं नहीं है. जब नेता इस तरह से अपने काम करता है तो जनता भी उसी की राह पर चलने लग रही है. उसे भी कानून और पुलिस पर भरोसा नहीं रहा. वह ‘गुंडों का गैंग’ बनाकर खुद की फैसला करने लगी है.

मौब लिन्चिग‘ बनाम ‘गुंडो का गैंग’:

हिन्दू मुसलिम विवाद में भीड तंत्र के काम को ‘मौब लिन्चिग‘ का नाम दिया जाता है. भीड केवल अगल धर्म के लोगों के साथ ही भीड का रूप रखकर न्याय नहीं करती है अपने धर्म में भी यह भीड खूब न्याय करती है. यह न्याय ‘गुंडो का गैंग’ करता है. जिसे प्रषासन और सरकार का समर्थन हासिल होता है. उनको लगता है कि सरकार के बहाने वह प्रषासन को दबा लेगे. दबाव में पुलिस दरोगा उनके खिलाफ कोई काररवाई नहीं कर सकेगी. उत्तर प्रदेश में योगी सरकार आने के बाद ऐसी घटनाओं में ‘गुंडो के गैंग’ द्वारा भगवा कपडे या गमछा ले लिया जाता है. जिससे पुलिस को लगे की यह सरकार के आदमी है.

डायन, बाइक चोर, गौ-तस्कर, बच्चा चोर, हिंदू- मुस्लिम विवाद, धर्म का अपमान न जाने क्या-क्या कारण ढूंढ भीड़ बिना सुनवाई के सड़क पर ‘न्याय‘ करने लगी है. भीड़ आरोपी को बिना किसी सुनवाई के मौत के घाट उतार देती है. लोकतंत्र का अर्थ देश की जनता भूल गई है. झारखंड के खूंटी जिले के पास कर्रा में दिव्यांग व्यक्ति की गोकशी के संदेह में पीटकर हत्या कर दी जाती है. गुजरात के जामनगर जिले में चोर होने के शक में सात लोगों के एक समूह ने एक अज्ञात व्यक्ति की कथित तौर पर लाठी-डंडों से पिटाई कर दी. दरभंगा में चोरी के शक में एक युवक को भीड़ ने पीट-पीट कर अधमरा कर दिया, अस्पताल में उसकी मौत हो गई. झारखंड में तबरेज अंसारी को भीड़ द्वारा चोरी के शक में पकडा गया था, शक चोरी का था लेकिन उससे जय श्रीराम का नारा लगवाया जा रहा था. उसने जय श्री राम भी बोला और जय हनुमान भी, लेकिन मर चुकी मानवीय संवेदना को कहा फर्क पड़ने वाला था. वो उसे घंटों पीटते गए. तबरेज ही नहीं इससे पहले अखलाक और पहलू खान के साथ भी यही हुआ.

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छूट जाते है आरोपी:

भीड में ‘गुंडो का गैंग’ अपना काम कर जाता है और प्रषासन, पुलिस और कोर्ट इनको कोई सजा नहीं दे पाते. जिसके कारण आरोपियों के हौसले बुलंद होते है. भीड के द्वारा मारे गये लोगो के कई मामलों में ऐसा ही हुआ है. षाहजहांपुर में पुलिस के इंसपेक्टर की हत्या भीड के द्वारा की जाती है. आरोपी जमानत पर छूट कर बाहर आता है तो भगवा गैंग के लोग उसको सम्मान करते है. भीड के सामाजिक और मनोविज्ञानिक व्यवहार को देखे तो पता चलता है कि किसी घटना में एक व्यक्ति या संस्था के द्वारा भीड को भडकाया जाता है. भीड को भडकाने के बाद वह दूर से तमाषा देखता है. भीड के रूप में अपराध करने वाले दूसरे लोग होते है. पुलिस भडकाने वाले के खिलाफ मुकदमा कायम करके उसको हीरो बना देती है. कोई सबूत एकत्र नहीं किया जाता जिसकी वजह से भडकाने वाले व्यक्ति को अदालत छोड देती है. भीड के रूप में अपराध करने वाला कभी कानून की पक डमें नहीं आता है.

भीड के रूप में न्याय करने वाले हमेषा बहुसंख्यक होते है. यह जाति, धर्म, भाशा, बोली और क्षेत्रवाद के रूप मे अलग अलग हो सकते है. कहीं उत्तर भारत के रहने वालों पर भीड हमला करती है कहीं नार्थ ईस्ट के रहने वालों पर भीड हमला करती है तो कहीं उत्तर प्रदेश और बिहार के रहने वालों को इसका षिकार बनाया जाता है. जहां जैसी जरूरत होती है वहां वैसा फैसला भीड करती है. भीड के काम का श्रेय लेने वाले भी होते है पर कानून के सामने यह जिम्मेदारी नहीं लेते. देश में राममंदिर विवाद में अयोध्या का ढांचा ढहाया जाना सबसे बडी मिसाल है. भीड को भडकाने वालों ने राजनीति की. उसके बल पर कुर्सी हासिल की. जब अदालत ने पूछा तो सबसे इंकार कर दिया कि उन्होने भीड को भडकाया था.

भीड का बचाव है डायन-बिसाही जैसी प्रथायें:

बिहार और झारखंड से डायन-बिसाही जैसी कुप्रथा और अंधविश्वास की आड में भीड डायन बताकर औरतों को पीटपीट कर मार देती है. इसके तहत मारी गई औरतों की सबसे अधिक संख्या विधवाओं की होती है. इसकी वजह केवल यह होती है कि इनको मार दो जिससे जमीन जायदाद में हिस्सा ना देना पडे. रांची से तकरीबन 10 किलोमीटर दूर नामकुम के हाप पंचायत के बरूडीह में 55 वर्षीय चामरी देवी को डायन बताकर उनके ही परिवारवालों ने मार डाला था. इस मामले में सूमा देवी के परिवार के ही फौदा मुंडा, उनके बेटे मंगल मुंडा और रूसा मुंडा, खोदिया मुंडा समेत पांच लोगों पर आईपीसी की धारा 302 और 34 के तहत मामला दर्ज किया गया है.

इस तरह की एक नहीं तमाम घटनायें है. एनसीआरबी की रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 2017 में झारखंड में डायन बताकर हत्या के 19 मामले समाने आए हैं. झारखंड पुलिस के अनुसार 2017 में ऐसी हत्याओं की संख्या 41 थी. 2016 में एनसीआरबी के हिसाब से राज्य में 27 औरतों को डायन बताकर मार दिया गया. झारखंड पुलिस के अनुसार यह आंकड़ा 45 है. साल 2015 में एनसीआरबी ने यह संख्या 32 बताई और झारखंड पुलिस ने 51. इसके बाद भी डायन और बिसाही बताकर भीड के द्वारा औरतों को मारने की आजादी पर रोक लगाने की बात कोई नहीं कर रहा है.

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एनसीआरबी के पांच साल के आंकड़ें बताते है कि भारत भर में डायन-बिसाही के नाम 656 हत्याएं हुई हैं. झारखंड में 2011 से लेकर सितंबर 2019 तक डायन-बिसाही के नाम पर 235 हत्याएं हुई है. सामाजिक संस्थाओं के द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार 1992 से लेकर अब तक 1800 महिलाओं को सिर्फ डायन, जादू-टोना, चुड़ैल होने और ओझा के इशारे पर मारा गया. झारखंड में डायन-बिसाही का शिकार होने वाली महिलाओं में 35 प्रतिशत आदिवासी और 34 प्रतिशत दलित हैं. बिहार में ‘डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम 1999’ लागू होने के बाद वहां घटनायें जारी है. देश में न्याय कानून और संविधान से नहीं भीड के तंत्र और गंुडों के गैंग से चलता है. भीड पर सही फैसला ना होने के कारण हौसला बढता जा रहा है. भीड का न्याय रूकने का नाम नहीं ले रहा है.

मास्क तो बहाना है असल तो वोटरों को लुभाना है

बौलीवुड अभिनेत्री रवीना टंडन के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मधुबनी में मिथिला पेंटिंग के कलाकारों द्वारा तैयार किए गए मास्क के मुरीद हो गए हैं, मगर आश्चर्य की बात यह है कि देश के प्रधानमंत्री को मधुबनी पेंटिंग्स की तब याद आई जब बिहार विधानसभा चुनाव में कुछ ही दिन शेष रह गए हैं.

यों बिहार का मिथिला अथवा मधुबनी पेंटिंग पूरे विश्व में मशहूर है. कभी शादीविवाह के दौरान दूल्हादुलहन के कोहबर (सुहागरात का कमरा) में गांव की महिलाएं इस पेंटिंग को बना कर कमरे को सजाती थीं, लेकिन धीरेधीरे यह पेंटिंग लोकप्रिय होती गई और अब तो इस पेंटिंग की प्रदर्शनी भी लगाई जाती है.

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मोदी राज में बेबस बुनकर

प्रधानमंत्री मोदी के मधुबनी पेंटिंग पर बयान के बाद मधुबनी के राष्ट्रीय जनता दल के विधायक समीर कुमार महासेठ कहते हैं,”देखिए, मोदीजी को अब मधुबनी पेंटिंग और इस कला से जुङे कलाकारों की याद आई तो यह अच्छी बात है. देर आए दुरूस्त आए, लेकिन सचाई यही है कि इस कला के कलाकारों, बुनकरों के लिए केंद्र सरकार ने कुछ भी नहीं किया है. पिछले 15 साल से बिहार की कुरसी संभाले नीतीश सरकार ने तो कोई सुध तक नहीं ली.

“आज भी मधुबनी के सैकड़ों बुनकरों को राष्ट्रीयकृत बैंकों में ब्लैक लिस्टेड कर दिया गया है और बैंक वाले उन्हें  लोन तक नहीं देते.”

समीर बताते हैं,”आज देश के कई जगहों पर मधुबनी पेंटिंग के नाम पर पेंटिंग्स बना कर खूब पैसा बनाया जा रहा है मगर यहीं के लोग, खासकर वे जो इस कला से जन्मजात रूप से जुङे हैं बेरोजगार हैं और बाजार में पहचान बनाने के लिए छटपटा रहे हैं.”

अब जबकि देश में कोरोना कहर बरपा रहा है लोगों के लिए मास्क और सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करना जरूरी हो गया है, घरों की

दीवारों से कागज, फिर कपड़े और खिलौनों के बाद मास्क पर पेंटिंग ने इस कला को नई पहचान जरूर दी है.

मछली, फूलपत्ती, पशुपक्षियों की पेंटिंग वाले सूती कपड़े का 2-3 लेयर वाला मास्क लोगों को खूब लुभा रहा है.

साहब मुश्किल से घर चला पाता हूं

मधुबनी जिले के रहने वाले प्रभात बाबा ऐसे कलाकारों में से एक हैं जो एक दुकान ही मधुबनी पेंटिंग्स की चलाते हैं. दुकान में ग्राहक कम ही आते थे. पर अब वे घर से ही मास्क बनाते हैं. डिमांड बढ़ा तो उन्होंने 3-4 बुनकरों को भी रख लिया है जो कपङों से बने मास्क पर मधुबनी पेंटिंग का काम करते हैं.

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प्रभात कहते हैं,”इस काम में मेरे साथ परिवार के अन्य लोग भी सहयोग दे रहे हैं. मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क को लोग बाजार में ₹70 से 100 तक में आसानी से खरीद लेते हैं. इस से कुछ कमाई भी हो जाती है.”

वे बताते हैं,”साहब हम गरीब लोग हैं. हाथों में हुनर है पर सरकार अगर ध्यान दे तो इस कला के माध्यम से लाखों लोगों को रोजगार मिल सकता है.

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“कोरोना से लोग डरे हुए हैं पर इस की वजह से हम आज कुछ कमा भी रहे हैं वरना तो घर चलाना भी मुश्किल होता था.”

वहीं समस्तीपुर के रहने वाले कलाकार अजय कुमार बताते हैं कि एक मास्क तैयार करने में करीब ₹35-50 की लागत आ रही है. एक कलाकार प्रतिदिन 25-30 मास्क तैयार कर लेता है. इस से रोज  ₹1-2 हजार की आमदनी जरूर हो जा रही है.

मधुबनी के ही रहने वाले हीरानंद को खुशी है कि वे मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क लगा कर बाहर निकलते हैं.

वे कहते हैं,”मिथिला की अपनी एक खास पहचान है. फिर मधुबनी पेंटिंग का तो जवाब ही नहीं.

“कोरोना वायरस से बचाव के लिए मास्क पहन कर बाहर निकलने से संक्रमण का खतरा कम होता है. मैं मधुबनी पेंटिंग वाला खास डिजाइनर मास्क पहनता हूं. इस से मैं मिथिला कल्चर से जुङाव महसूस करता हूं.”

दिल्ली सरकार ने मिथिला को नई पहचान दी है

दिल्ली सरकार में मैथिली भोजपुरी अकादमी के वाइस चेयरमैन, नीरज पाठक ने बताया,”दिल्ली सरकार शुरू से ही, चाहे वह लोकसंगीत हो या फिर लोककला, इस क्षेत्र से जुङे लोगों को तवज्जो देती आई है. सरकार समयसमय पर मैथिलीभोजपुरी गीतसंगीत व कला का आयोजन भी करती आई है और यह आगे भी जारी रहेगा. दिल्ली सरकार हाल ही में कई लोगों को सम्मानित भी कर चुकी है.”

नीरज कहते हैं,”मधुबनी पेंटिंग दुनियाभर में मशहूर है. अब तो विदेशों में भी इस कला को नाम और दाम दोनों मिल रहे हैं.

“मधुबनी पेंटिंग कलाकारों द्वारा बनाए जा रहे मास्क फैशन में शुमार हो चुका है. मास्क की लोकप्रियता से इस काम से जुङे लोगों के लिए न सिर्फ रोजगार के अवसर बढेंगे, बल्कि इस से इस पेंटिंग को नई पहचान मिलेगी.”

चौपट रोजगार बेहाल व्यवसायी

यों नोटबंदी, जीएसटी लागू करने और फिर कोरोनाकाल में लागू लौकडाउन के बाद व्यवसायिक क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित है.

एक तो जीएसटी ने व्यवसायियों की कमर तोङ दी व फिर कोरोना वायरस महामारी के बाद बाजार पूरी तरह चौपट हो गया है.

लेकिन सुखद बात यह है कि इसी कोरोनाकाल में मधुबनी पेंटिंग के कलाकारों द्वारा तैयार किए मास्क की बाजार में धूम है.

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पहले से कङकी में जूझ रहे कलाकारों के लिए यह काफी सुखद है कि अब उन के पास नाम और पैसा दोनों है. वैश्विक विपदा यहां के कलाकारों के लिए बङा अवसर बन कर आई है और इस से इस लोककला को भी नई पहचान मिल रही है.

लोकल बाजार से अमेजन तक

मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस की पहुंच आज लोकल बाजार से निकल कर अमेजन तक जा पहुंचा है.

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औनलाइन साइट्स पर मौजूद यह मास्क लोकप्रिय हो चुका है और लोग इसे औनलाइन खरीद भी रहे हैं.

उधर, बिहार में चुनाव है और सियासी पार्टियों के नेता व कार्यकर्ता भी मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क में नजर आने लगे हैं.

क्योंकि अब चुनाव है

हाल ही में जब बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री व राजद नेता तेजस्वी यादव मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क में नजर आए तो उन की देखादेखी लोजपा के नेता भी इन मास्कों को लगा कर घूमते हुए देखे जा रहे हैं.

लोजपा के युवा नेता व रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान भी इस मास्क में अकसर नजर आने लगे हैं और इतना ही नहीं लोजपा अपने कार्यकर्ताओं के लिए 2 लाख मास्क भी बनवा रही है. लोजपा ने इस बार के चुनाव में नारा दिया है,’बिहार फर्स्ट बिहारी फर्स्ट.’

राजनीति के जानकार, समाजसेवी अजीत कुमार कहते हैं,”देशदुनिया में लगभग 7 करोङ लोग मैथिली बोलते हैं. दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, पुर्णिया, सहरसा, सुपौल आदि जिलों को मिथिलांचल कहा जाता है और यहां की जनता वोटिंग में निर्णायक भूमिका निभाती है. लिहाजा, राजनीतिक दलों के लोगों को लगता है कि इस से वे यहां की जनता से खास जुङाव महसूस करेंगे.

“वैसे, न सिर्फ मास्क बल्कि मिथिला या मधुबनी पेंटिंग का अपना खास इतिहास भी रहा है. अब तो देश के अलगअलग जगहों पर रहने वाले लोग भी मधुबनी पेंटिंग से खूब नाम कमा रहे हैं.”

मधुबनी पेंटिंग का जवाब नहीं

नोएडा की रहने वाली अर्चना झा इन में से ही एक हैं. उन्होंने पश्चिम बंगाल से फाइन आर्ट्स में डिप्लोमा की डिग्री हासिल की है.

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वे कहती हैं,”मैं झारखंड की रहने वाली हूं लेकिन मधुबनी पेंटिंग से गहरा जुङाव रखती हूं. मेरी मां ने मुझे इस पेंटिंग को करना सिखाया और वे ही मेरी गुरू हैं.

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“मैं शुरू से ही देश के कई शहरों में पेंटिंग प्रदर्शनी लगाती रही हूं और इस वजह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी औनलाइन प्रदर्शनी कर मैं ने खूब वाहवाही बटोरी है.

“मुझे खुशी है कि अब मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क बाजार में खूब बिक रहे हैं. इस से मिथिला के गरीब बुनकरों को नई पहचान जरूर मिलेगी.”

जो भी हो, बिहार विधानसभा चुनाव में भले ही मधुबनी पेंटिंग वाले मास्क की मांग में इजाफा हो गया है और नेता व कार्यकर्ता इसे पहन कर गलीगली घूम रहे हैं, मगर इतना जरूर है कि इस मास्क की धमक से यहां के कलाकारों, बुनकरों का हौसला काफी बुलंद है.

सरकार भी कोरोना की गिरफ्त में

मध्यप्रदेश में भाजपा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने धार्मिक आडंबरों के बहाने कभी नर्मदा यात्रा, तो कभी आदि शंकराचार्य की पादुका पूजन करके भगवा ब्रिगेड की कमान संभालते रहे हैं. यही बजह है कि अब उनके कोविड 19 से प्रभावित होने पर उनके भक्तों द्वारा भी हवन ,पूजन,पाठ का सिलसिला शुरू कर दिया गया है.

देश की भोली भाली जनता को भावनाओं में बहलाकर कभी हिन्दू मुस्लिम रंग देकर, तो कभी कश्मीर में धारा 370 और अयोध्या में राम मंदिर बनाने की दुहाई देने वाले भगवा ब्रिगेड के लोग असली मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाना बखूबी जानते हैं.

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जब कोरोना ने भारत में कदम रखा ,तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार को गिराने के चक्कर में इसकी परवाह किसी ने नहीं की.22 मार्च को कोरोना वायरस की चैन तोड़ने के लिए प्रधानमंत्री ने जनता कर्फू का ऐलान कर जनता को यह दकियानूसी संदेश दिया  कि अपने घरों की बालकनी में खड़े होकर ताली और थाली पीटने से कोरोना भाग जायेगा. इतने ढोंग करने के बाद भी जब कोरोना का संक्रमण नहीं थमा ,तो  घरो की लाईट बुझा कर दिया जलाने का टोटका भी कर डाला.  भगवा ब्रिगेड ने तर्क दिया कि दिये की लौ से कोविड19 समाप्त हो जाएगा. मुख्यमंत्री के कोरोना से प्रभावित होने के बाद भोपाल की सांसद साध्वी  प्रज्ञा ठाकुर  हनुमान चालीसा के पाठ से वायरस भगाने की सलाह भक्तो को देती नजर आईं. कोरोना वायरस   यदि किसी धर्म,जाति, संप्रदाय में आस्था रखने वाला होता,तो इन टोने टोटकों से कभी का भाग गया होता.

कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से बचने के लिए दी गई डब्लूएचओ की गाइडलाइंस और डाक्टरी सलाह मानने की बजाय सरकार में बैठे जनता के चुने हुए प्रतिनिधि रोज नये नये जुमले उछालते रहे हैं , जबकि यह एक यैसी संक्रामक बीमारी है जो नेताओं के जुमलों से दूर होने वाली नहीं है.

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी रोज टीवी चैनलों पर किसी पंडे पुजारी की तरह कोरोना से सावधान रहने के प्रवचन तो देते रहे , लेकिन खुद उन पर अमल करना भूल गए.इसी बजह से वे 25 जुलाई को आई रिपोर्ट में  कोविड 19 पाज़ीटिव पाये गए हैं. हालांकि यह अप्रत्याशित खबर  नहीं है. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री जिस तरह कोरोना के बचाव की गाइडलाइंस को दरकिनार कर रोज ‌क‌ई विधायकों और मंत्रियों से मिलते रहे हैं.

मंत्री अरविंद भदौरिया , भाजपा अध्यक्ष बीडी शर्मा के साथ मुख्यमंत्री 21 जुलाई को प्रदेश के राज्यपाल लालजी टंडन को श्रृद्धांजलि देने लखनऊ गये थे. 21 से 24 जुलाई तक मुख्यमंत्री प्रदेश के 33 मंत्रियों से वन टू वन चर्चा में शामिल रहे .जिस तरह से मुख्यमंत्री और उनके करीबियों द्वारा गाइड लाइन का खुला उल्लंघन किया जा रहा था,उससे यह पहले ही तय हो गया था कि कोरोना के संक्रमण को सीएम हाउस तक पहुंचने में देर नहीं लगेगी.  अब हालात ये हैं कि दर्जनों विधायक और मंत्री भी कोरोना की चपेट में आ चुके हैं.

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25 जुलाई को  शिवराज सिंह चौहान भोपाल के प्राइवेट हास्पिटल चिरायु में एडमिट हुए तो सोशल मीडिया पर खूब ट्रोल भी हुए. वजह साफ थी कि प्रदेश में कोरोना से निपटने के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं का गुणगान तो करते रहे,मगर खुद के कोरोना पाज़ीटिव होने पर कोई सरकारी अस्पताल उन्हें इलाज के लिए उपयुक्त नहीं लगा.

जमीनी हकीकत यही है कि चार महिने से भी अधिक समय बीतने के बाद पूरे प्रदेश में कोरोना की जंग सुबिधाओं की बजाय भाषणों से लड़ी जा रही है. आज भी कोविड टेस्ट के लिए पर्याप्त संख्या में किट या मशीन और‌ वेंटिलेटर की कमी से अस्पताल जूझ रहे हैं.

डब्लूएचओ की नई एडवायजरी में कोरोना के लक्षण पाये गए व्यक्ति को कम से कम 10 दिन की गहन चिकित्सकीय देखभाल में रखा जाता है. इस पीरियड में कोविड पाज़ीटिव को किसी से मिलने और छूने की इजाजत नहीं होती है. यैसे में सियासी हलकों में यह चर्चा भी  जोरों पर थी कि आगामी दिनों तक मध्यप्रदेश के शासन प्रशासन की जिम्मेदारी  कौन संभालेगा?वह भी जब प्रदेश में पूर्णकालिक राज्यपाल भी नहीं है.मुख्यमंत्री को कई अहम् दस्तावेजी फैसलों पर दस्तखत करने होते हैं.कई गोपनीय प्रतिवेदनों पर  टीप लिखनी होती है,साथ ही कानून व्यवस्था के मामले पर हस्तक्षेप करना होता है.

कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनने के सपने टूटे

कोरोना बीमारी से संक्रमित हुए शिवराज सिंह चौहान देश के पहले मुख्यमंत्री हैं,लिहाजा प्रदेश में भाजपा के कुछ नेता कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनने के सपने भी देखने लगे थे.  सत्ता के खेल के चतुर खिलाड़ी और अपने आपको जनता का मामा कहने वाले शिवराज सिंह चौहान ने पिछले 13 वर्षों के दौरान भी देश से बाहर रहने पर भी किसी भी अपने सहयोगियों को कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनाने की मुसीबत मोल नही ली थी. कांग्रेस के हाथों से सत्ता छीनने वाले शिवराज को इस वार मुख्यमंत्री बनने से लेकर , मंत्री मंडल के गठन और विभागों के बंटवारे में  भारी अंतर्विरोध और सिंधिया खेमे का दबाव झेलना पड़ा  है.

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प्रदेश के एक कद्दावर नेता नरोत्तम मिश्रा, नरेंद्र सिंह तोमर ने भी मुख्यमंत्री बनने लाबिंग की थी. यही कारण है कि शिवराज अपने इसी डर की वजह से ही किसी को कार्यवाहक मुख्यमंत्री नहीं बनाना चाहते.वैसे भी उमा  भारती की गद्दी को बाबूलाल गौर  को सौंपने के बाद हुए राजनैतिक बदलाव के घटनाक्रम से शिवराज भी वाकिफ हैं,शायद इसी नियति को टालने वे चूकने के मूड में दिखाई नहीं दिखाई दे रहे. तभी तो चिरायु हास्पिटल से भी अपना कामकाज संभाल रहे हैं. उन्होंने  अस्पताल से ही आला अधिकारियों के साथ न‌ई शिक्षा नीति की समीक्षा भी  कर ली .मौजूदा दौर में मध्यप्रदेश में जिस तरह की राजनीतिक उठा-पटक और विधायकों की अदला-बदली हो रही है,यैसे में  सत्ता के लोभी नेताओं से घिरे शिवराज को कोविड 19 से बड़ा खतरा अपनों से ही लग रहा है.इसलिए कोरोना को भूलकर वे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजर गड़ाए अपने को फिटफाट साबित करने में लगे हुए हैं.

वायरसी मार के शिकार कुम्हार

लेखक- डा. सत्यवान सौरभ

नोवल कोरोना वायरस  के चलते लागू किए गए लौकडाउन ने  मिट्‌टी बरतन बनाने वाले कारीगरों के सपनों को भी चकनाचूर कर दिया है. इन कारीगरों ने मिट्टी के बरतन बना कर रखे लेकिन बिक्री न होने की वजह से इन के लिए खाने के लाले पड़ गए हैं. लौकडाउन के चलते न तो चाक (बरतन बनाने का उपकरण) चल रहा है और न ही दुकानें खुल रही हैं. घर व चाक पर बिक्री के लिए पड़े मिट्टी के बरतनों की इन्हें रखवाली अलग करनी पड़ रही है. देशभर में प्रजापति समाज के लोग मिट्टी के बरतन बनाने का काम करते हैं.

लौकडाउन ने इन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है. इन के बरतनों की बिक्री नहीं हो रही है. महीनों की मेहनत घर के बाहर पड़ी है. इन हालात में परिवार का गुजारा करना मुश्किल हो गया है. गरमी के सीजन को देखते हुए बरतन बनाने वालों ने बड़ी संख्या में मटके बनाए. डिजाइनर टोंटी लगे मटकों के साथ छोटी मटकी और गुल्लक, गमले भी तैयार किए. दरअसल,  आज भी ऐसे लोग हैं जो मटके के पानी को प्राथमिकता देते हैं. मगर इस बार इन को घाटा हो गया. इन का परिवार कैसे गुजरबसर करेगा. कोई भी मटके खरीदने नहीं आ रहा है. धंधे से जुड़े लोगों ने ठेले पर रख कर मटके बेचने भी बंद कर दिए हैं.

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मिट्टी के बरतनों के जरिए अपनी आजीविका चलने वाले कुशल श्रमिकों के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल से देशभर के प्रजापति समाज के लोगों के लिए एक आस जगी है, जिस के अनुसार राज्य के हर प्रभाग में एक माइक्रो माटी कला कौमन फैसिलिटी सेंटर (सीएफसी) का गठन किया जाएगा.  सीएफसी की लागत 12.5 लाख रुपए होगी, जिस में सरकार का योगदान 10 लाख रुपए का होगा. शेष राशि समाज या संबंधित संस्था को वहन करनी होगी. भूमि, यदि संस्था या समाज के पास उपलब्ध नहीं है, तो ग्रामसभा द्वारा प्रदान की जाएगी. हर केंद्र में गैसचालित भट्टियां, पगमिल, बिजली के बरतनों की चक और पृथ्वी में मिट्टी को संसाधित करने के लिए अन्य उपकरण होंगे. श्रमिकों को एक छत के नीचे अपने उत्पादों को विकसित करने के लिए सभी सुविधाएं उपलब्ध होंगी. इन केंद्रों के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों को रोजगार उपलब्ध कराया जाएगा.

खादी और ग्रामोद्योग विभाग का यह बहुत अच्छा प्रयास है. यदि उत्पाद गुणवत्ता के हैं और उन की कीमतें उचित हैं, तो बाजार में उन के लिए अच्छी मांग होगी. इस से व्यापार से जुड़े लोगों के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर बढ़ेंगे. इस के अलावा, तालाबों से मिट्टी उठाने से बाद की जलसंग्रहण क्षमता बढ़ जाएगी. इन उत्पादों को पौलिथीन का विकल्प बनने से पौलिथीन संदूषण को भी रोका जा सकेगा. कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए किए गए लौकडाउन से लगभग हर क्षेत्र में कामकाज बिलकुल ठप पड़ा है.

केंद्र सरकार छोटे, मझोले और कुटीर उद्योगों के लिए स्पेशल पैकेज की घोषणा कर के उन को जीवित रखने का प्रयास भले कर रही है. लेकिन, अस्पष्टता और सही दिशानिर्देश के अभाव में बहुत राहत मिलती नहीं दिख रही है. देश में बहुत से ऐसे वर्ग हैं जिन पुश्तैनी धंधा रहा है और कई जातियां ऐसी भी है जो विशेष तरह का काम कर के अपना जीवनयापन करती हैं, जैसे माली, लोहार, कु्म्हार, दूध बेचने वाले ग्वाला, दर्जी, बढ़ई, नाई, पत्तलदोने का काम कर के जीवनयापन करने वाले मुशहर जाति के लोग. ये ऐसे लोग हैं जिन का कामकाज लौकडाउन से सब से अधिक प्रभावित हुआ है. सरकार ने बड़े व मझोले कारोबारियों के लिए तो काफी कुछ दे दिया है, लेकिन उपर्युक्त लोगों के लिए सरकार की तरफ से कोई विशेष राहत का ऐलान नहीं किया गया है.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र ने मोदी देश को संबोधित करते हुए आत्मनिर्भर भारत बनाने पर जो दिया. उन्होंने देश को आगे बढ़ाने के लिए एमएसएमई को फौरीतौर पर राहत देने की घोषणा की. लेकिन, बजट का निर्धारण करना वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण पर छोड़ दिया. साथ ही, उन्होंने लोकल के प्रति वोकल होने की बात जरूर की लेकिन लौकडाउन से प्रभावित होने वाले ऐसे लोगों के बारे में जिक्र नहीं किया जिन की रोजीरोटी खुद के कारोबार और हुनर पर निर्भर है. लौकडाउन से उन के ऊपर गहरा असर हुआ है. ऐसे लोगों के पास बचत भी बहुत अधिक नहीं होती है कि वे अपनी जमापूंजी खर्च कर के घरखर्च चला सकें. ऐसे लोग हर रोज कमाते हैं, जिस से उन के खाने का इंतजाम हो पाता है. अब लौकडाउन हो जाने से उन का कामकाज बिलकुल बंद हो गया है. ऐसे में सरकार को इन लोगों के लिए कुछ न कुछ अलग से उपाय करना चाहिए, ताकि उन का जीवन भी सुचारु रूप से चल सके.

आज जब भारत के गांव बदलाव के दौर से गुजर रहे हैं तो गांवों के परंपरागत व्यवसायों को भी नया रूप दिए जाने की जरूरत है. गुजरात के राजकोट निवासी मनसुख भाई ने कुछ ऐसा ही नया करने का बीड़ा उठाया है. पेशे से कुम्हार मनसुख ने अपने हुनर और इनोवेटिव आइडिया का इस्तेमाल कर के न सिर्फ अच्छा बिजनेस स्थापित किया, बल्कि नेशनल अवार्ड भी हासिल किया. आज उन के नाम और काम की तारीफ भारत ही नहीं, दुनिया में हो रही है. उन के मिट्टी के बरतन विदेशों में भी बिक रहे हैं. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने उन्हें ‘ग्रामीण भारत का सच्चा वैज्ञानिक’ कहा था. एक अन्य पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने उन्हें सम्मानित करते हुए कहा था कि ग्रामीण भारत के विकास के लिए उन के जैसे साहसी और नवप्रयोगी लोगों की जरूरत है. आज वे उद्यमियों के लिए एक मिसाल हैं.

कुछ लोग गांवों के परंपरागत व्यवसाय के खत्म होने की बात करते हैं, जो गलत है. अभी भी हम ग्रामीण व्यवसाय को जिंदा रख सकते हैं, बस, उस में थोड़ी सी तबदीली करने की जरूरत है. भारत के गांव अब नई तकनीक और नई सुविधाओं से लैस हो गए हैं. भारत के गांव बदल रहे हैं, इसलिए अपने कारोबार में थोड़ा सा बदलाव करने की जरूरत है. नई सोच और नए प्रयोग के जरिए ग्रामीण कारोबार को बरकरार रखा जा सकता है और उस के जरिए अपनी जीविका चलाई जा सकती है.

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जब हम गांव में कोई कारोबार शुरू करते हैं, उस से सिर्फ हमें ही फायदा नहीं मिलता, बल्कि हमारी सामाजिक जिम्मेदारी भी पूरी होती है. हम आत्मनिर्भर बनते हैं और तमाम बेरोजगारों को रोजगार देते हैं. हर व्यक्ति की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने साथ ही दूसरे लोगों को भी प्रोत्साहित करे. उन्हें काम करने के प्रति जागरूक करे. इसी से ग्रामीण भारत के सशक्तीकरण का सपना पूरा होगा.

गहरी पैठ

देशभर से करोड़ों मजदूर जो दूसरे शहरों में काम कर रहे थे कोरोना की वजह से पैदल, बसों, ट्रकों, ट्रैक्टरों, साइकिलों, ट्रेनों में सैकड़ों से हजारों किलोमीटर चल कर अपने घर पहुंचे हैं. इन में ज्यादातर बीसीएससी हैं जो इस समाज में धर्म की वजह से हमेशा दुत्कारेफटकारे जाते रहे हैं. इस देश की ऊंची जातियां इन्हीं के बल पर चलती हैं. इस का नमूना इन के लौटने के तुरंत बाद दिखने लगा, जब कुछ लोग बसों को भेज कर इन्हें वापस बुलाने लगे और लौटने पर हार से स्वागत करते दिखे.

देश का बीसीएससी समाज जाति व्यवस्था का शिकार रहा है. बारबार उन्हें समझाया गया है कि वे पिछले जन्मों के पापों की वजह से नीची जाति में पैदा हुए हैं और अगर ऊंचों की सेवा करेंगे तो उन्हें अगले जन्म में फल मिलेगा. ऊंची जातियां जो धर्म के पाखंड को मानने का नाटक करती हैं उस का मतलब सिर्फ यह समझाना होता है कि देखो हम तो ऊंचे जन्म में पैदा हो कर भगवान का पूजापाठ कर सकते हैं और इसीलिए सुख पा रहे हैं.

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अब कोरोना ने बताया है कि यह सेवा भी न भगवान की दी हुई है, न जाति का सुख. यह तो धार्मिक चालबाजी है. ऐसा ही यूएन व अमेरिका के गोरों ने किया था. उन्होंने बाइबिल का सहारा ले कर गुलामों को मन से गोरों का हुक्म मानने को तैयार कर लिया था. जैसे हमारे बीसीएससी अपने गांव तक नहीं छोड़ सकते थे वैसे ही काले भी यूरोप, अमेरिका में बिना मालिक के अकेले नहीं घूम सकते थे. अगर अमेरिका में कालों पर और भारत में बीसीएससी पर आज भी जुल्म ढाए जाते हैं तो इस तरह के बिना लिखे कानूनों की वजह से. हमारे देश की पुलिस इन के साथ उसी वहशीपन के साथ बरताव करती है जैसी अमेरिका की गोरी पुलिस कालों के साथ करती है.

कोरोना ने मौका दिया है कि ऊंची जातियों को अपने काम खुद करने का पूरा एहसास हो. आज बहुत से वे काम जो पहले बीसीएससी ही करते थे, ऊंची जातियां कर रही हैं. अगर बीसीएससी अपने काम का सही मुआवजा और समाज में सही इज्जत और बराबरी चाहते हैं तो उन्हें कोरोना के मौके को हाथ से नहीं निकलने देना चाहिए.

कोरोना की वजह से आज करोड़ों थोड़ा पढ़ेलिखे, थोड़ा हुनर वाले लोग, थोड़ी शहरी समझ वाले बीसीएससी लोग गांवों में पहुंच गए हैं. ये चाहें तो गांवों में सदियों से चल रहे भेदभाव के बरताव को खत्म कर सकते हैं. इस के लिए किसी जुलूस, नारों की जरूरत नहीं. इस के लिए बस जो सही है वही मांगने की जरूरत है. इस के लिए उन्हें उतना ही समझदार होना होगा जितना वे तब होते हैं जब बाजार में कुछ सामान खरीदते या बेचते हैं. उन्हें बस यह तय करना होगा कि वे हांके न जाएं, न ऊंची जातियों के नाम पर, न धर्म के नाम पर, न पूजापाठ के नाम पर, न ‘हम एक हैं’ के नारों के नाम पर.

आज कोई भी देश तभी असल में आगे बढ़ सकता है जब सब को अपने हक मिलें. सरकार ने अपनी मंशा दिखा दी है. यह सरकार खासतौर पर दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार व केंद्र की सरकार इन मजदूरों को गाय से भी कम समझती हैं. इतनी गाएं अगर इधर से उधर जातीं तो ये सरकारें रास्ते में खाना खिलातीं, पानी देतीं. मजदूरों को तो इन्होंने टिड्डी दल समझा जिन पर डंडे बरसाए जा सकते हैं. विषैला कैमिकल डाला जा सकता है.

जैसे देश के मुसलमानों को कई बार भगवा अंधभक्त पाकिस्तानी, बंगलादेशी कह कर भलाबुरा कहते हैं, डर है कि कल को नेपाली से दिखने वालों को भी भक्त गालियां बकने लगें. हमारे भक्तों को गालियां कहना पहले ही दिन से सिखा दिया जाता है. कोई लंगड़ा है, कोई चिकना है, कोई लूला है, कोई काला है, कोई भूरा है. हमारे अंधभक्तों की बोली जो अब तक गलियों और चौराहों तक ही रहती थी, अब सोशल मीडिया की वजह से मोबाइलों के जरीए घरघर पहुंचने लगी है.

सदियों से नेपाल के लोग भारतीय समाज का हिस्सा रहे हैं. उस का अलग राजा होते हुए भी नेपाल एक तरह से भारत का हिस्सा था, बस शासन दूसरे के हाथ में था जिस पर दिल्ली का लंबाचौड़ा कंट्रोल न था. अभी हाल तक भारतीय नागरिक नेपाल ऐसे ही घूमनेफिरने जा सकते थे. आतंकवाद की वजह से कुछ रोकटोक हुई थी.

अब नरेंद्र मोदी सरकार जो हरेक को नाराज करने में महारत हासिल कर चुकी है, नेपाल से भी झगड़ने लगी है. नेपाल ने बदले में भारत के कुछ इलाके को नेपाली बता कर एक नक्शा जारी कर दिया है. इन में कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधुरा शामिल हैं जो हमारे उत्तराखंड में हैं.

नेपाल चीन की शह पर कर रहा है, यह साफ दिखता है, पर यह तो हमारी सरकार का काम था, न कि वह नेपाल की सरकार को मना कर रखती. नेपाल की कम्यूनिस्ट पार्टी हमारी भारतीय जनता पार्टी की तरह अपनी संसद का इस्तेमाल दूसरे देशों को नीचा दिखाने के लिए कर रही है.

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दिल्ली और काठमांडू लड़तेभिड़ते रहें, फर्क नहीं पड़ता, पर डर यह है कि सरकार की जान तो उस की भक्त मंडली में है जो न जाने किस दिन नेपाली बोलने वालों या उस जैसे दिखने वालों के खिलाफ मोरचा खोल ले. ये कभी पाकिस्तान के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ भड़काऊ बातें करते रहते हैं, कभी उत्तरपूर्व के लोगों को चिंकी कह कर चिढ़ाते हैं, कभी कश्मीरियों को अपनी जायदाद बताने लगते हैं, कभी पत्रकारों के पीछे अपने कपड़े उतार कर पड़ जाते हैं. ये नेपाली लोगों को बैरी मान लें तो बड़ी बात नहीं.

आज देश में बदले का राज चल रहा है. बदला लेने के लिए सरकार भी तैयार है, आम भक्त भी और बदला गुनाहगार से लिया जाए, यह जरूरी नहीं. कश्मीरी आतंकवादी जम्मू में बम फोड़ेंगे तो भक्त दिल्ली में कश्मीरी की दुकान जला सकते हैं. चीन की बीजिंग सरकार लद्दाख में घुसेगी तो चीन की फैक्टरी में बने सामान को बेचने वाली दुकान पर हमला कर सकते हैं.

इन पर न मुकदमे चलते हैं, न ये गिरफ्तार होते हैं. उलटे इन भक्त शैतानी वीरों को पुलिस वाले बचाव के लिए दे दिए जाते हैं. कल यही सब एक और तरह के लोगों के साथ होने लगे तो मुंह न खोलें कि यह क्या हो रहा है!

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भारतमाला परियोजना: बेतरतीब योजनाओं के शिकार किसान

भारतमाता की माला के मोती ही बिखर जाएं वो कैसी भारतमाला? इस पूंजीवादी मॉडल की बेतरतीब योजनाओं में भारत की बुनियाद का तिनकातिनका धरा पर बिखरता जा रहा है. किसान नेमत का नहीं, बल्कि सत्ता की नीयत का मारा है.

भारतमाला परियोजना के तहत बन रही सड़कें किसानों में बगावत के सुर पैदा कर रही है. इस योजना के तहत 6 लेन का एक हाईवे गुजरात के जामनगर से पंजाब के अमृतसर तक बन रहा है, फिर आगे हिमालयी राज्यों तक निर्मित किया जाएगा.

दरअसल बिना ठोस तैयारी के सरकारें योजना तो शुरू कर देती है, मगर बाद में जब इस के दुष्परिणाम सामने आने लगते है तो फिर सरकार सख्ती पर उतरती है और किसान बगावत पर.

जो भूमि अधिग्रहण बिल संसद में पारित किया था, उस के तहत सरकार जमीन का अधिग्रहण करने के बजाय उस मे संशोधन करने पर आमादा है और जब तक संशोधन कर नहीं दिया जाता तब तक इन परियोजनाओं को पूरा करने का सरकार के पास एक ही विकल्प है कि जोरजबरदस्ती के साथ किसानों को दबाया जाएं.

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फरवरी, 2020  में राजस्थान में जालोर के बागोड़ा में किसानों ने इस के खिलाफ स्थायी धरना शुरू किया था. 14 मार्च को इन किसानों ने राजस्थान के सीएम से बात की थी और सीएम ने आश्वस्त किया कि आप की मांगे कानूनन सही है और आप को इंसाफ दिलवाया जाएगा. कोरोना के कारण किसानों ने धरना खत्म कर दिया.

यही काम जालोर से ले कर बीकानेर-हनुमानगढ़ के किसानों ने भी किया था. लॉकडाउन के संकट के बीच किसान तो चुप हो गए,  मगर परियोजना का कार्य कर रही कंपनियों ने जबरदस्ती कब्जा करना शुरू कर दिया.

केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने इस परियोजना के संबंध में कहा था कि किसानों को बाजार दर से चार गुना मुआवजा दिया जाएगा. जालोर व बीकानेर के किसान कह रहे है कि हमे मुआवजा 40 से 50 हजार रूपए प्रति बीघा दिया जा रहा है, जब कि बाजार दर 2 लाख रुपये प्रति बीघा है.जिन किसानों ने सहमति पत्र भी नहीं दिया और मुआवजा तक नहीं मिला, उन की भी जमीने जबरदस्ती छीनी जा रही है!

इस योजना का ठेका दो कंपनियों को दिया गया. जामनगर से बाड़मेर तक जो कंपनी यह हाईवे बना रही है, उस को 20 जुलाई तक कार्य पूरा करना है और बाड़मेर से अमृतसर का कार्य जो कंपनी देख रही है, उस को यह कार्य सितंबर 2020 तक पूरा करना है. एक तरफ कंपनियों की समयसीमा है तो दूसरी तरफ किसान है.

समस्या विकास नहीं है, बल्कि असल समस्या बेतरतीब योजनाएं है, गलत नीतियां है, सरकारों की नीयत है.  साल 1951 में भारत की जीडीपी में किसानों का योगदान 57% था और कुल रोजगार का 85% हिस्सा खेती पर निर्भर था.  2011 में जीडीपी में खेती का कुल योगदान 14% रहा और कुल रोजगार का 50% हिस्सा खेती पर निर्भर रहा.

जिस गति से खेती का जीडीपी में योगदान घटा व दूसरे क्षेत्रों ने जगह बनाई, उस हिसाब से रोजगार सृजन नहीं हुए अर्थात खेती घाटे का सौदा बनता गया और खेती पर जो लोग निर्भर थे वो इस सरंचनात्मक बेरोजगारी के शिकार हो गए.

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किसानों के बच्चे कुछ शिक्षित हुए और गांवों से शहरों में रोजगार पाना चाहते थे,  मगर उन को रोजगार मिला नहीं और खुली बेरोजगारी के शिकार हो कर नशे व अपराध की दुनिया में जाने लगे.

भारत की ज्यादातर खेती मानसून पर निर्भर है इसलिए मौसमी बेरोजगारी की मार भी किसानों पर बहुत बुरे तरीके से पड़ी. शहरों में कुछ महीनों के लिए रोजगार तलाशते है और बारिश होती है तो वापिस गांवों में पलायन करना पड़ता है.

किसानों में बेरोजगारी का एक स्वरूप भयानक रूप से नजर आ रहा है, वो छिपी बेरोजगारी है. किसानों के संयुक्त परिवार है और जितने भी लोग है वो खेती पर ही निर्भर है. जहां दो लोगों का काम है वहां 5 लोग खेती में लगे हुए है क्योंकि दूसरी जगह रोजगार मिलता नहीं है.

जब भी किसी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की जाती है तो किसानों में भय का वातावरण फैल जाता है. दूसरी जगह रोजगार मिलता नहीं है व वर्तमान में जिस तरह की वो खेती कर रहे होते है उस के हिसाब से वो कर्ज में दबे हुए ही होते है तो बच्चों को ऐसी तालीम नहीं दिलवा सकते जो कठिन प्रतियोगिताओं में मुकाबला कर सके.

कुल मिलाकर जमीन किसान के जीवनमरण का बिंदु बन जाता है. आग में घी का काम करती है सरकार द्वारा घोषित मुआवजे व पुनर्वास की प्रक्रियाओं को दरकिनार करना. देशभर में किसानों व परियोजना निर्माण में लगी कंपनियों के बीच हमेशा हिंसक झड़पें होती रहती है और आखिर में सरकार सख्ती से कब्जा लेती है और फिर बगावत के सुर शुरू हो जाते है.

किसान नेता अक्सर अपना रोजगार शिफ्ट कर चुके होते है, इसलिए भाषणबाजी के अलावा इन किसानों से उन का सरोकार होता नहीं है. जो नीतियां बनाते है व विधानसभाओं व संसद में पास करते है उन लोगों के पूरे परिवार अपना रोजगार खेती से अन्य क्षेत्रों में स्थानांतरित कर लिया है. ऐसे लग रहा है कि भारत की राजनीतिक जमात की बुनियाद इसी पर टिकी है कि देश के पुरुषार्थ को लूटो और अपने टापू बना लो.

आज कोरोना का संकट है और पूरी दुनिया जूझ रही है. भारत मे इस समय उद्योग/धंधे बंद हो गए. हर तरह का सामान बिकना बंद हो गया, मगर एक बात हम सभी ने गौर से देखी होगी कि सामान सस्ता होने के बजाय महंगा होता गया. कई गुना दाम हो गए मगर अन्न व सब्जियां उसी दर पर मिल रही है क्योंकि इसे किसान पैदा करता है.

आज भी 50% से ज्यादा लोग खेती पर निर्भर है और उन की क्रय शक्ति ही डूबती अर्थव्यवस्था को जिंदा कर सकती है, मगर सत्ता में बैठे लोगों की नीयत देशहित के बजाय निजहित तक सीमित है.  इसलिए देश की बुनियाद बर्बाद करने पर तुले हुए है.

उचित मुआवजा, पुनर्वास जब तक कार्य शुरू करने से पहले नहीं करोगे, तब तक सत्तासीन लोग भविष्य के लिए नागरिक नहीं बगावती तैयार कर रहे है. बंगाल के जलपाई गुड़ी जिले के एक छोटे से गांव नक्सलबाड़ी में 1967 में कान्हू सान्याल व मजूमदार नाम के दो युवाओं ने भूमि सुधार को ले कर बगावत की थी और आज 14 राज्यों में इसी देश के नागरिक सत्ता के खिलाफ हथियार उठा कर लड़ रहे है.

समस्या को नजरअंदाज कर के सत्ता की  दादागिरी का खामियाजा यह देश पिछले 5 दशक से ज्यादा समय से भुगत रहा है. जब लोकसभा में यूपीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण बिल पारित किया था तब यह समझ जरूर थी कि चाहे विकास की गति धीमी हो मगर ऐसी समस्या देश के सामने भविष्य में निर्मित न हो. अब लगता है कि शाम को टीवी पर भाषण दो और अगली सुबह सबकुछ उसी अनुरूप चलने लगेगा. अक्सर लोकतंत्र में ऐसा नहीं होता है.

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बीकानेर के किसान आज बहुत परेशान है.सांसद से ले कर विधायक तक सुविधाभोगी है इसलिए अकेले नजर आ रहे है. किसान देश का है मगर किसान का कोई नहीं. अभी तक किसान टूटा नहीं है इसलिए व्यवस्था बदरंग ही सही मगर चल रही है. जिस दिन किसान टूट गए तो समझ लीजिएगा कि देश वापिस देशी एजेंटों के माध्यम से ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों जा चुका है.

यह परियोजना मात्र 14 सौ किमी की चमचमाती सड़क नहीं है, बल्कि जहां से गुजरेगी वहाँ के व आसपास के किसानों के सीने में जख्म दे जायेगी जिसे भविष्य में भरा न जा सकेगा.

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