रेव पार्टीज का बढ़ता क्रेज

आज युवाओं में पार्टी देने या लेने का शगल तेजी से बढ़ता जा रहा है. वे बातबात पर पार्टियां आयोजित करते हैं जिन में भरपूर मस्ती होती है. ये पार्टियां देर तक चलती हैं. ऐसी ही एक पार्टी है रेव पार्टी. रेव पार्टियों की शुरुआत 20वीं सदी के छठे दशक में लंदन में हुई थी. पहले इस प्रकार की पार्टियां जंगल में आयोजित की जाती थीं, लेकिन 1960 के बाद इन्हें शहर के गुमनाम पबों और गैराजों में आयोजित किया जाने लगा. इस दौरान इन पार्टियों के लिए एक विशेष संगीत तैयार किया गया जिस में इलैक्ट्रौनिक वा-यंत्रों का प्रयोग भी किया गया. जिस का 28, जनवरी 1967 को राउंड हाउस में सार्वजनिक प्रदर्शन किया गया था. 1970 के दशक में यह संगीत काफी लोकप्रिय हुआ था.

1970 में जब कुछ हिप्पी गोआ घूमने आए तो उन के द्वारा गुपचुप तरीके से इन पार्टियों की शुरुआत गोआ के पबों में भी कर दी गई.

धीरेधीरे इन पार्टियों में हिप्पियों के साथ कुछ स्थानीय युवा भी जुड़ने लगे, क्योंकि हिप्पियों द्वारा शुरू की गई इन रेव पार्टियों में शराब, ड्रग्स, म्यूजिक, नाचगाना और सैक्स का कौकटैल परोसा जाता था.

धीरेधीरे भारत के धनकुबेरों में इन पार्टियों का क्रेज बढ़ता जा रहा है. इन पार्टियों का विस्तार मैट्रो शहरों के साथ ही जयपुर, नोएडा व गुड़गांव जैसे शहरों में भी हो चुका है.

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रेव पार्टी का शाब्दिक अर्थ है मौजमस्ती की पार्टी. रेव का अर्थ मदमस्त और उत्तेजित होना भी है. मदमस्त और उत्तेजित होने के लिए अमीर अपनी गर्लफ्रैंड व बौयफ्रैंड्स के साथ एसिड, एक्सटैसी, हशीश, गांजा, हेरोइन, अफीम, चरस, साथ ही शराब का भी भरपूर प्रयोग करते हैं.

दिल्ली स्थित एक डिएडिक्शन सैंटर की वरिष्ठ डा. अनीता चौधरी का कहना था कि आधुनिक धनकुबेरों की बिगड़ी संतानें रेव पार्टियों के प्रति जनूनी बन रही हैं. यह बात दीगर है कि ड्रग्स लेने से कुछ समय के लिए उत्तेजना और शक्ति बढ़ जाती है. इसलिए वे ड्रग्स लेने के बाद काफी समय तक थिरकते और मटकते रहते हैं, लेकिन ये ड्रग्स युवाओं में आक्रामकता भी पैदा करते हैं. बचपन बचाओ आंदोलन के प्रमुख कैलाश सत्यार्थी की मानें तो हमारे देश के लगभग 19 फीसदी किशोर व युवा किसी न किसी नशे के आदी हैं.

रेव पार्टियों के शौकीन युवा फ्री सैक्स में विश्वास रखते हैं. इसलिए इन पार्टियों में सैक्स है, नशा है, खुमार है और मस्ती के नाम पर अश्लीलता है.

इस संस्कृति को दिन के उजाले से नफरत और रात के अंधेरे से बेइंतहा प्यार होता है. कमाओ, ऐश करो और मरो या मारो, इस अपसंस्कृति का मूलमंत्र है. कुछ लोग इसे निशाचर संस्कृति भी कहते हैं.

20वीं सदी के अंत तक केवल कुछ बिगड़े हुए युवा ही रात रंगीन किया करते थे, लेकिन वर्तमान में युवतियां भी ऐश व रात रंगीन करने के इस जश्न में बराबर की भागीदार हैं. रेव पार्टियों की रंगबिरंगी रोशनी और मदहोश करने वाले संगीत में ये आधुनिक युवतियां भी पूरी तरह मदमस्त हो जाती हैं. वे अपने जीवन की सार्थकता उन्मुक्त आनंद और मौजमस्ती को ही मान रही हैं. इन रेव पार्टियों का प्रवेश शुल्क 5 से 10 हजार रुपए तक होता है.

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इस प्रकार की रेव पार्टियां पांचसितारा होटल, क्लब व आधुनिक फौर्म हाउसों में आयोजित की जाती हैं, जहां पर नृत्य व संगीत के आनंद के साथ ही लेजर तकनीक के जरिए साइकेडेलिक रोशनियों से चकाचौंध पैदा की जाती है और रंगबिरंगे इस माहौल में युवा मैसमेराइज होने लगते हैं.

एक कड़वा सच यह भी है कि इन रेव पार्टियों में जबरदस्त कानफोड़ू म्यूजिक, लाइट शो के साथ ही नशीले पदार्थों का भी भरपूर प्रयोग होता है. इन नशीले पदार्थों में जो सब से फेवरिट और डिमांड वाले हैं वे हैं, एसिड और एक्टैसी. इन्हें लेने के बाद युवा लगातार 8 घंटे तक डांस कर सकते हैं.

ये ड्रग्स उन में लगातार नाचने का जनून पैदा करते हैं. इन पदार्थों को लंबे समय तक सैक्स करने के लिए भी युवाओं द्वारा उपयोग में लाया जाता है. इन रेव पार्टियों में धोखे से युवतियों को डेट रेप ड्रग दे कर उन का बलात्कार तक किया जाता है.

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शराब का शबाब

ड्रग्स और सिगरेट की तरह शराब भी जानलेवा होती है पर शराब के व्यापारियों को इस साजिश में विशेषज्ञता हासिल है कि उन्होंने लगभग सारी दुनिया में इस जानलेवा नशे को रोजमर्रा के जीवन की जरूरत बनवा दिया है. हाल यह है कि भारत जैसे पुरातनपंथी देश में भी बच्चों के जन्मदिन के मौकों पर अब बड़ों को खुलेआम शराब परोसना फैशन या शान नहीं, बल्कि जरूरत समझी जाती है.

आयरलैंड ने शराब के कुप्रभावों के प्रति अपने देशवासियों में जागरूकता फैलाने की मुहिम शुरू की है. वहां शराब के विज्ञापनों पर पाबंदी लगा दी गई है. दुकानों में शराब का सैक्शन अलग बनाया जा रहा है और शराब की बोतल पर हैल्थ वार्निंग का स्टिकर चिपकाया जाना जरूरी कर दिया गया है. शराब न केवल कैंसर, किडनी के रोगों के लिए जिम्मेदार है, बल्कि शराब पी कर गाड़ी चलाने यानी ड्रंक ड्राइविंग करने के कारण दुर्घटना हाने की आशंका प्रबल हो जाती है.

सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में कहा था कि देश में हाईवे के दोनों तरफ 500 मीटर के भीतर शराब की दुकान न हो ताकि सड़क पर वाहन चलाते समय शराब के ठेके ड्राइवरों को ललचाएं नहीं. इस से कोई बड़ा फर्क पड़ा हो, इस का आंकड़ा तो नहीं है पर कम से कम शराब की लटकी बोतलें अब रास्ते में नहीं दिखतीं. कहने वाले कहते रहें कि शराब जोशीला ड्रिंक है पर असल में इस में कुछ भी जोश नहीं है. यह शरीर के लिए किसी तरह भी लाभदायक नहीं.

शराब कंपनियों ने जबरदस्त प्रचार के बल पर इसे घरघर पहुंचाया है. उन्होंने फिल्म कंपनियों को मुफ्त शराब दे कर, उन्हें हर मौके पर शराब की बोतलें खुलवाते दिखा कर, इसे मान्यता दिला दी है. पानी की जगह शराब को पीते दिखा कर शराब कंपनियां भरपूर कमाई कर रही हैं. सरकार चुप है क्योंकि उसे टैक्स मिलता है और सरकारी कर्मचारियों को रिश्वत.

शराब का शिकार इस का सेवन करने वाले ही नहीं, बल्कि उन के परिवार की औरतें और बच्चे भी होते हैं. परिवार की आमदनी शराब में बह जाती है और घर की शांति भी. शराब के चलते दुर्घटना होने या गंभीर बीमारी होने से मौत हो जाए, तो और ही मुसीबत होती है. आयरलैंड की सरकार ने एक एनजीओ के दबाव में अपने देश में अच्छा कदम उठाया है पर शराब कंपनियों से टकराना आसान नहीं है. शराब आज तकरीबन सारी दुनिया में शबाब पर है.

शराब पीने का बहाना चाहिए

कहते हैं कि पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए. चाहे सुख हो या दुख, शादीब्याह हो या जन्मदिन की दावत, शराब पीने वालों को पीने का बहाना मिल ही जाता है.

आजकल तो यह अकसर ही देखने को मिलता है कि होलीदीवाली जैसे तीजत्योहारों या दूसरी तरह के उत्सवों में कुछ लोग शराब पी कर नशे में धुत्त हो जाते हैं.

यहां आदतन शराब पीने वालों की चर्चा नहीं की जा रही है, बल्कि उन नौसिखियों या बहानेबाजों की बात हो रही है जो हर तरह के मौकों को शराब से जोड़ देते हैं.

हमारे समाज में आजकल किसी न किसी बहाने शराब पीनेपिलाने का चलन जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, वह ठीक नहीं है.

पुराने समय से है चलन

हमारे समाज में एक दंतकथा सुनीसुनाई जाती है कि शराब (मदिरा) समुद्र मंथन से देवों और असुरों द्वारा निकाली गई थी और उस समय इस का नाम ‘सुरा’ रखा गया था. तब से लोग इस का सेवन करते आ रहे हैं.

कुछ प्राचीन ग्रंथों में देवों द्वारा ‘सोम’ नामक नशीले पेय का सेवन करने और असुरों द्वारा ‘सुरा’ का सेवन किए जाने की बात लिखी हुई है यानी शराब दोनों वर्गों में अलगअलग नाम से पसंदीदा रही है.

सचाई क्या है, यह अलग बात है, पर इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि ‘सुरा’ या ‘सोम’ के नाम से शराब का सेवन पुराने समय में भी होता था, लेकिन उस समय भी इस का सेवन अच्छा नहीं माना जाता था. प्राचीन ग्रंथों में इन के सेवन से बचने की बातों के जिक्र से इस बात की तसदीक होती है.

स्टेटस सिंबल है पीना

वर्तमान समय में शराब एक फैशन की तरह समाज में अपनी हैसियत बना चुकी है. बस, इस हैसियत को और हवा देने के लिए कोई बहाना मिलना चाहिए. बात तो यहां तक आ पहुंची है कि कुछ लोगों को कोई महफिल, जश्न या गम शराब के बिना अधूरा या फीकाफीका सा महसूस होता है.

अब तो ‘कौकटेल पार्टी’ भी हमारे समाज में अपनी अच्छीखासी जगह बना चुकी है. इस पार्टी की अपनी एक अलग खासीयत है. यह अमीरी की निशानी मानी जा रही है.

क्या शराब का इस तरह समाज पर हावी होना इनसान और समाज के लिए अच्छा है? यकीनन, इस सोच को अच्छा नहीं माना जा सकता.

लोग शादीब्याह में शराब पीते हैं. दावतों व त्योहारों पर शराब पीते हैं. यहां तक कि बहुत से अपने बड़ेबुजुर्गों व मातापिता का भी लिहाज नहीं करते हैं.

शराब अपने शबाब पर आते ही माहौल को बड़ा दुखद या मजेदार बना देती है. पीने वालों की हरकतों को देख कर हंसी के साथ गुस्सा भी आता है, वे कैसीकैसी गैरवाजिब हरकतें करते हैं और नशा हिरन होते ही दो लफ्जों में बड़ी बेशर्मी से ‘सौरी’ या ‘ज्यादा हो गई’ कह कर अपनी घटिया हरकतों से नजात पा लेते हैं.

लेकिन क्या चंद लोगों की बुरी आदत की वजह से औरों का भी मजा किरकिरा कर दिया जाए? अगर ‘अंगूर की बेटी’ की चाहत वालों का यह मानना है कि शराब के बिना कोई जश्न या त्योहार फीका है, तो उन्हें चाहिए कि वे किसी शराबखाने में बैठें और जी भर कर शराब पीएं.

होती हैं बीमारियां

आज पहले के बजाय लोग ज्यादा पढ़ेलिखे और समझदार हो गए हैं. उन्हें मालूम है कि शराब जहां हमारा माली नुकसान करती है, वहीं इस के सेवन से अनेक घातक रोग भी होते हैं.

शराब पीने से इनसान का नैतिक पतन तो होता ही है, साथ ही आने वाली पीढ़ी उन से अच्छी प्रेरणा के बजाय गलत आदतें सीखती है.

आज की नौजवान पीढ़ी व किशोरों में शराब फैशन की तरह अपनाई जा रही है. शादीब्याह में तो लोग शराब के नशे में घंटों नाचते देखे जा सकते हैं.

यह ठीक है कि शादीब्याह खुशी के मौके होते हैं. उन में नाचनागाना और खुशी का इजहार करना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन बिना शराब के यह मुमकिन है क्या?

शौकिया पीने वालों में एक अफवाह और प्रचलित है कि शराब भूख अच्छी लगाती है, सेहत बनाती है, इस से सर्दीजुकाम दूर होता है. ये सब तर्कसंगत बातें नहीं हैं, बल्कि शेखचिल्ली वाली बातों से मिलतीजुलती भ्रांतियां हैं.

त्योहार या उत्सव ऐसे मौके होते हैं, जब हर आदमी अपने परिचितों से मिलताजुलता है. ऐसे में कोई शराब जैसी घटिया चीज पी कर ‘कार्टून’ बन कर ऊधम मचाए, क्या यह अच्छा लगेगा? कभी नहीं.

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