सरकार अब व्हाट्सएप ग्रुपों में उतनी ही भयभीत नजर आ रही है जितनी समाचारपत्रों और न्यूज चैनलों से है. ललितपुर जिले के डिस्ट्रीक्ट मजिस्ट्रेट मानवेंद्र सिंह का तुगलकी आदेश कि न्यूज चैनलों व पत्रकारों द्वारा चलाए जा रहे व्हाट्सएप ग्रुपों को अब रजिस्टर कराना पड़ेगा और 31 अगस्त 2018 के बाद उस में कोई नंबर नहीं जोड़ा जाएगा.

ग्रुप एडमिन को अपना नाम, परिचयपत्र, आधारकार्ड, फोटो, घर का पता, दफ्तर का पता आदि फार्म में भर कर देना होगा. कहने को तो यह सांप्रदायिक सौहार्द के लिए किया जा रहा है पर साफ है कि सरकार समाचारपत्रों की तरह व्हाट्सएप गु्रपों से भी डर रही है. इसी तरह की बंदिशें जिला अधिकारियों ने देशभर के भाषाई समाचारपत्रों पर जानबूझ कर लगा रखी है जबकि संबंधित प्रैस एवं रजिस्ट्रेशन औफ बुक्स एक्ट 1807 में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है.

कठिनाई यह है कि हमारा देश का आम नागरिक और यहां तक कि पत्रकार, विचारक, इतिहासकार स्वत: ही अपने को सरकार का गुलाम मानते हैं. सरकारी प्रक्रियाएं चाहे जितनी कठिन हों, उन का अवैधानिक व असंवैधानिक होने पर भी विरोध करने की जगह सिफारिशें लगा कर प्रक्रिया पूरी करने में लग जाते हैं.

पुलिस व प्रशासन को आदत पड़ जाती है कि चाहे जैसे कदम वे उठा लेंगे, 90-95 प्रतिशत लोग तो उन की बात पत्थर की लकीर मान कर सहज मान लेंगे. कुछ ले दे कर सिफारिश लगा कर हर तरह की प्रक्रिया पूरी कर डालेंगे चाहे उस से उन की मौलिक स्वतंत्रताएं गिरभी हो जाएं.

आम नागरिक पर लगाई जाने वाली बंदिशों के आदी हो चुके प्रशासन के अफसर आमतौर पर मान कर चलते हैं कि वे राजा हैं, कानूनों के ऊपर है. पूना का प्रकरण उसी का नमूना है. ललितपुर का भी मामला ऐसा ही है. यह पक्का है. अवैधानिक होते हुए भी कुछ तो सिर आंखों पर ले लेंगे.

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