गुजरात के युवा दलित नेता जिग्नेश मेवाणी जैसे पाखंडवाद के खिलाफ आवाज को बुलंद कर पाएंगे इस में शक है और जब तक हर तरह के पाखंड की पोल और चाल का भंडाफोड़ न होगा, समाज वर्गों व वर्णों में बंटा रहेगा. दलितों पर अत्याचार होते ही इसलिए हैं कि पाखंडवाद के चलते हर बच्चे को एक धर्म, एक जाति, एक गोत्र पकड़ा दिया जाता है जिसे उसे जीवनभर ढोना होता है. उस की जिंदगी इसी बंधन के सहारे बीतेगी यह जन्म के दिन ही तय हो जाता है.

वह पढ़े या न पढ़े, सफल हो या असफल, गरीब हो या अमीर उस की जिंदगी जन्मकुंडली से तय रहती है. उसी के हिसाब से उसे मंदिरों में जाने की इजाजत होती है. उसी के हिसाब से उस का काम तय हो जाता है. उसी के हिसाब से उस को पत्नी मिलती है. उसी के हिसाब से उसे आरक्षण मिलता है या नहीं मिलता.
जन्म के साथ जुड़े इस पाखंड का न कांशीराम ने विरोध किया, न उन की वारिस मायावती ने. न जिग्नेश कर रहे हैं, न रामविलास पासवान. उलटे सब इस पाखंड को पाल रहे हैं और इस की आड़ में अपनी राजनीति चमका रहे हैं.

दलितों के नेता यह सवाल नहीं पूछ रहे कि वे आखिर जन्म से ही दलित क्यों हैं? सुप्रीम कोर्ट उन की बदहाली पर आंसू बहाता है, पर यह नहीं पूछता कि यह तमगा उन्हें क्यों दिया गया और क्यों इस पाखंड पर रोक लगाने की बात नहीं की जाती?

भीमा कोरेगांव का हुजूम दलितों की इज्जत को ले कर जमा हुआ पर वे दलित कहे ही क्यों गए, यह सवाल नहीं पूछा जा रहा. उन मराठों को ऊंची पदवी किस ने दी जिन्होंने इन दलितों को निशाना बनाया. आपस में भाईचारे की बात होती है पर इस भेदभाव की खाई को कौन कैसे खोद रहा है इस की जिम्मेदारी कौन ले रहा है. जो यह कर रहा है वह दलित या भगवा नेताओं से ज्यादा बड़ा गुनाहगार है और उसे रोकना होगा.
रोकने से पहले तो यह तय करना होगा कि हम यह करना भी चाहते हैं या नहीं. अगर ऊंची जातियां आज अपने उच्च कुल में जन्म लेने पर रोब से रहती हैं तो नीची से नीची जाति भी अपनी जाति इसी पाखंडवाद की पट्टी के कारण छोड़ने को तैयार नहीं. हाल के सालों में पाकिस्तान का बहाना ले कर इस पाखंड का जम कर बाजारीकरण हुआ है. गली का पाखंडबाज आज कईकई शहरों में मौल से पाखंड केंद्र बना बैठा है. इस पाखंड की फ्रैंचाइजी दी जाने लगी हैं.

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