रिहायशी इलाकों में दुकानें चलाने का चलन कोई नया नहीं है. सदियों से कामगारों व दुकानदारों के घर, दुकानें अथवा कारखाने एक ही जगह होते थे. जब तक अरबनाइजेशन तेज न थी, यह पद्धति सुविधाजनक भी थी और सुरक्षात्मक भी. धीरेधीरे व्यापार व उद्योगधंधे बढ़ने से कारखाने, मार्केटें अलग बनने लगीं और घरों को अलग करा जाने लगा ताकि औरतें और बच्चे बाजारों और मजदूरों से अलग रहें. प्राकृतिक संरक्षण से वंचित शहरियों को यह सुरक्षित लगा कि रिहायशी इलाकों में दूसरों का दखल न हो.

हाल के सालों में शहरी जमीन की बढ़ती किल्लत और कीमत के कारण दुकानदारी रिहायशी इलाकों में घुसपैठ करने लगी है. हमारी नौकरशाही को उस में चांदी ही चांदी नजर आई. उस ने दुकानों को कहीं भी खोलने की मूक इजाजत देनी शुरू कर दी ताकि हर महीने कुछ अतिरिक्त कमाई अफसर व इंस्पैक्टर कर सकें. दिल्ली शहर तो लगभग पूरा नष्ट ही हो गया है. कुछ इलाकों को छोड़ कर यहां विशुद्ध रिहायशी कालोनियां न के बराबर रह गई हैं. 20-25 साल पुरानी कालोनियों में ढेरों दफ्तर और दुकानें नजर आ जाएंगी.

यह औरतों और बच्चों के हकों पर हमला है. कुछ लोग पैसा कमाने के लिए अपना घर दुकान में बदल दें या दुकानदार को बेच दें तो यह उन के संपत्ति के हक का दुरुपयोग है. यह पड़ोसियों के सुख व शांति के साथ जीने के हक को छीनता है. सुप्रीम कोर्ट पिछले कई सालों से दुकानदारों की इस भयंकर बमबारी से शहरियों को बचाने की कोशिश कर रहा है पर दुकानदार एकजुट हो जाते हैं और अफसरों व नेताओं को खरीद कर वे मनमाने फैसले करा रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट ने अपनी निगरानी में एक कमेटी बना रखी है, जो दिल्ली जैसे विशाल शहर में लाखों दुकानों पर छापेमारी कर सीलिंग कर रही है पर हर तरह का हड़कंप मचाने के बावजूद अब तक मुश्किल से 3000 दुकानदफ्तर बंद कर पाई है.

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