उत्तर प्रदेश और बिहार में भारतीय जनता पार्टी को जोरदार झटका लगा है. यह झटका अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी के एक मंच पर आने मात्र से नहीं लगा, बल्कि उस की अपनी कलई खुलने से लगा है. भारतीय जनता पार्टी ने अपने पंडिताई मंसूबे पर राष्ट्रवाद, भ्रष्टाचारमुक्त भारत, स्वच्छ भारत, कालेधन की वापसी के जो चमाचम कवरिंग पेपर लगाए थे, वे फट गए हैं और अंदर से पार्टी की पाखंडभरी नीतियां निकल आई हैं.

भाजपा कार्यकर्ता भगवा दुपट्टा डाले देशभर में कानून तोड़ते नजर आ रहे हैं. वे कभी गौरक्षक बन कर, कभी लवजिहाद रोकने का नाम ले कर तो कभी देशभक्ति का नारा लगा कर आम व्यक्ति को धकियाने में लिप्त हैं. भारतीय जनता पार्टी ने स्पष्ट कर दिया है कि यह देश हिंदू वर्णव्यवस्था के अनुसार चलेगा, जहां जन्म से अधिकार तय होंगे और लोगों को पिछले जन्मों के पापों का फल भोगना ही होगा.

भाजपा में शामिल पिछड़ी जातियों के दबंगों को पहले तो लगा कि उनको कुबेर का खजाना मिल गया है और वे अपनी लाठियों के बल पर दलितों व मुसलमानों पर ही नहीं, महिलाओं, व्यापारियों और अफसरों तक को सीधा कर सकेंगे पर धीरेधीरे उन्हें समझ आने लगा किभाजपा की नीति केवल एक पार्टी का वर्चस्व स्थापित करने की नहीं, बल्कि केवल एक जाति का वर्चस्व स्थापित करने की है.

जिस तरह सवर्ण लोग दूसरी पार्टियां छोड़छोड़ कर भाजपा में जा रहे थे और जिस तरह भाजपा में पिछड़े व दलित नेताओं की उपेक्षा हो रही थी उस से साफ था कि पार्टी का उद्देश्य तो कुछ और ही है. वह तो पेशवाई युग की वापसी चाहती है पर अपनी सीमाएं जानते हुए चुनाव जीतने मात्र के लिए किसानों, पिछड़ों, दलितों से समझौते कर रही है. पार्टी ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में केवल ब्राह्मणों व बनियों को ऊंचे स्थान दिए हैं. यदि दूसरी जातियों के इक्कादुक्का नेता ऊंचे स्थान पर हैं तो वह रामायण महाभारत से प्रेरित लगता है कि जरूरत पड़ने पर निचलों को अवतारों के विशेष दास के रूप में स्वीकार कर लिया जाए.

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