नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि उन का करिश्मा 1971 की इंदिरा गांधी की तरह का सा है और वे अपनी ही पार्टी के पुराने नेताओं को छोड़ कर अकेले मुश्किल इलाकों में भी जीत सकते हैं. सब की आंखें वैसे उत्तर प्रदेश की ओर ही लगी थीं और नरेंद्र मोदी ने अकेले धुआंधार प्रचार कर के समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी को धराशायी कर दिया. बिहार वाली कहानी नहीं दोहराई जा सकी.

भाजपा की उत्तर प्रदेश में जीत का मतलब है कि उत्तर प्रदेश शायद जातियों के मकड़जाल से निकल रहा है. भाजपा ने न गरीबों की बात की, न मंडल कमीशन की, न अंबेडकर की, फिर भी जीत गई, तो मतलब है कि अब सिर्फ इसलिए वोट नहीं डाले जाएंगे कि कोई उन की बात कर रहा है.

उत्तर प्रदेश की गरीबी की वजह उस की जाति है. यहां की जनता सैकड़ों जातियों में बंटी है. बहुजन समाज पार्टी ने दलितों को मुहरा बना कर कई बार सत्ता पाई, पर दलित वैसे के वैसे ही रहे. पिछड़े यादवों की सरकारें बनीं, पर यादव व दूसरे पिछड़े वैसे के वैसे ही रहे. कांग्रेस जब तक जीतती रही, वह इन जातियों का हल्ला मचा कर जीतती रही. अब अगर भारतीय जनता पार्टी बिना राम मंदिर जैसे मुद्दे की नाव पर सवार हो कर ही जीती है, तो साफ है कि माहौल बदल रहा है.

भाजपा सरकार पिछली सरकारों से खास अलग है, ऐसा सोचना कुछ ठीक नहीं होगा. हर सरकार लगभग एक सा काम करती है. कुछ भी करो यदि हल्ला ज्यादा हो तो सरकार हाथ खींच लेती है. भाजपा का भगवा रंग तो वैसे भी सभी पार्टियां अपनाती ही हैं. पिछले कुंभ में इलाहाबाद में अखिलेश यादव ने खुद लग कर ऐसा इंतजाम किया था, जो कोई धार्मिक पार्टी करती.

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