आई एम नाॅट ब्लाइंड : प्रेरणा दायक कथा

रेटिंगः ढाई स्टार

निर्माता: मदारी आर्ट्स

लेखक व निर्देशक: गोविंद मिश्रा

कलाकार: आनंद गुप्ता, शिखा इतकान, अमित घोष, विनय अम्बष्ठ,कृष्णा नंद तिवारी, गोपा सान्याल, उपासना वैष्णव व अन्य.

अवधिः एक घंटा 41 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्मः एम एक्स प्लेअर

शारीरिक अपंगता के शिकार लोगों के साथ समाज दया का भाव रखता है. वह उनकी क्षमता को देखने का प्रयास ही नही करता. पर अब फिल्मकार गोविंद मिश्रा एक फिल्म ‘‘आई एम नाॅट ब्लाइंड’’ लेकर आए हैं, जो कि‘‘हमारी दिव्यांगता को नही हमारी क्षमता को देखिए’’का संदेश देने वाली प्रेरणा दायक फिल्म है.आंखों से दिव्यांग एक इंसान के सफल आई ए एस अफसर बनने की कहानी वाली यह फिल्म छह सितंबर से ओटीटी प्लेटफार्म‘‘एम एक्स प्लेअर’’पर देखी जा सकती है.

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यह फिल्म अमरीका के फिल्म फेस्टिवल ‘ग्रेट सिनेमा नाउ‘ में दूसरे नंबर पर थी. विश्व के कई फिल्म फेस्टिवल में इसे सराहा जा चुका है. अमरीका के एक फेस्टिवल निदेशक निक मिल्स ने इस फिल्म को अमेरिका में प्रदर्शन करने की बात की थी, पर इस फिल्म के निर्माता पहले इसे भारत में प्रदर्शन करना चाहते थे,जो कि अब ओटीटी प्लेटफार्म ‘एम एक्स प्लेअर’पर आयी है.

किसी इंसान का अंधापन उसकी क्षमता को नष्ट नहीं करता.बल्कि आंख से न देख पाने के बावजूद वह इंसान काफी प्रगति करता है. यह कटु सत्य है. हमारे देश में राजेश कुमार सिंह,अजय अरोड़ा,रवि प्रकाश गुप्ता और प्रांजली पाटिल सहित तकरीबन डेढ़ दर्जन दिव्यांग आई ए एस अफसर हैं,जो कि आॅंखांे से देख नहीं सकते, मगर आई ए एस अफसर के रूप में बेहतरीन काम कर रहे हैं.

कहानीः

यह एक सत्य कथा पर आधारित फिल्म है.इसकी कहानी शुरू होती है छत्तीसगढ़ के एक गाॅंव से,जहां एक विधवा अपने दो बेटों विमल कुमार(आनंद गुप्ता )  और पंकज के साथ रहती है.उसने अपने बेटों को अपनी तरफ से अच्छी शिक्षा दिलाने की कोशिश की. विमल कुमार जन्म से ही अंधे हैं, जिसकी वजह सेे 12वीं कक्षा के बाद उनकी शिक्षा बंद हो गयी, जबकि वह पढ़ लिखकर आई ए एस अफसर बनने का सपना देख रहे हैं. उधर पंकज अय्याश है और उसे अपना बड़ा भाई विमल फूटी आंख नहीं सुहाता.

एक दिन जब पंकज के बीमार मौसा को देखने दूसरे गांव के अस्पताल पंकज की मां जाती है,जबकि उस वक्त विमल कुमार एक मंदिर में भजन में शामिल होने गया होता है,तो पंकज उसे मंदिर से वापस लेने जाने की बजाय घर में ताला डालकर पूरी रात अपने दोस्त के साथ अय्याशी करने चला जाता है.विमल कुमार परेशान होकर सड़क किनारे रात गुजारते हैं. सुबह वहां से गुजर रही ‘शीतल फाउंडेशन’ की शीतल (शिखा इतकान) की नजर पडती है, तो वह पूरी कहानी जानकर विमल को लेकर अपने फांउडेशन में जाती है.

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जहां वह उसकी पढ़ाई आगे शुरू करवाती है. इस बीच शीतल को विमल कुमार से प्यार हो जाता है.मगर शीतल के पिता को यह बात पसंद नहीं आती. वह एक डाॅन को दो लाख रूपए देकर विमल कुमार को रास्ते से हटाने के लिए कहते हैं.डाॅन के कहने पर विमल कुमार आई ए एस का इंटरव्यू नहीं देना चाहता, मगर एक दूसरा इंसान उसे समझाता है और वह इंटरव्यू देता है.

जब शीतल को सच पता चलता है,तो वह अपने पिता से सवाल करती है- ‘‘अगर आपकी मर्जी के युवक से मैं शादी कर लूं, और शादी के बाद उसकी आंखें चली जाएं,तो क्या आप उसे छोड़ने के लिए कहेंगे?’ तब शीतल के पिता उसकी शादी विमल कुमार से करा देते हैं.विमल कुमार आई ए एस अफसर के रूप में अपने काम को अंजाम देना शुरू करते हैं,जनता उनके काम से खुश होती है.

लेखन व निर्देशनः

एक बेहतरीन प्रेरणा दायक सत्यकथा पर लेखक व निर्देशक गोविंद मिश्रा ने यथार्थ परक फिल्म बनाने का बीड़ा तो उठा लिया,मगर वह पटकथा पर मेहनत नही कर पाए.परिणामतः फिल्म धीमी गति से आगे बढ़ती है.इसके अलावा फिल्मकार ने एक आंखों से अंधे दिव्यांग के जीवन में आने वाली छोटी छोटी कठिनाइयों, उसने आई एस एस की पढ़ाई के दौरान किस तरह की मुसीबतें झेली, आदि पर ज्यादा रोशनी डालने की बजाय प्रेम कहानी को महत्व दिया,मगर वह रोमांस को भी ठीक से चित्रित नही कर पाए. शायद वह फिल्म को यथार्थ परक बनाने के चक्कर में सिनेमा की जरुरत के बीच तालमेल नही बैठा पाए.

फिल्म के कुछ संवाद अवष्य बेहतर बन पाए हैं..मसलन-‘‘‘हमारी दिव्यांगता को नही हमारी क्षमता को देखिए.’’ अथवा ‘‘मेहनत करके हार जाना अच्छी बात है,लेकिन विना मेहनत के हार नही माननी चाहिए.’’

फिल्म को बेहतरीन लोकेशन पर फिल्माया गया है.

कुछ कमियों के बावजूद यह फिल्म न सिर्फ प्रेरणा दायक है,बल्कि हर दिव्यांग के हौसले को भी बढ़ाती है.

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अभिनयः

आंखों से दिव्यांग विमल कुमार के किरदार में आनंद गुप्ता ने शानदार अभिनय किया है.आनंद गुप्ता ने निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के आर्थिक संकट और अंध व्यक्तियों के लिए स्कूलों द्वारा अपनाए जाने वाले उपेक्षापूर्ण रवैए के चलते अपनी शिक्षा को जारी न रख पाने की बेबसी को अपने चेहरे के आव भाव से बेहतर तरीके से उकेरने में सफल रहे हैं.शीतल के किरदार में शिखा इतकान भी प्रभावित करती हैं. अन्य कलाकारों ने ठीक ठाक अभिनय किया है.

डेंजरस : सेक्स से सराबोर प्रभावहीन

रेटिंग :  डेढ़ स्टार

निर्माता : मीका सिंह और विक्रम भट्ट

लेखक : विक्रम भट्ट

निर्देशक:  भूषण पटेल

कलाकार : बिपाशा बसु, करण सिंह ग्रोवर, नताशा सूरी,  सुयश रॉय, सोनाली राउत, नितिन राउत

अवधि : 2 घंटे 4 मिनट, 7 चैप्टर

ओटीटी प्लेटफॉर्म : एमएक्स प्लेयर

सेक्स और पैसे की हवस के चलते गरीब ही नहीं अमीर से अमीर इंसान भी किस हद तक गिर सकते हैं, उसी पर विक्रम भट्ट (Vikram Bhatt) और भूषण पटेल अपराध व रोमांच प्रधान वेब सीरीज “डेंजरस” (Dangerous) लेकर आए हैं. यह बोल्ड वेब सीरीज 14 अगस्त से ओटीटी प्लेटफॉर्म ‘एमएक्स प्लेयर’ पर मुफ्त में देखी जा सकती हैं.

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कहानी :

यह कहानी है लंदन में रह रहे उद्योगपति आदित्य धनराज (करण सिंह ग्रोवर) की. एक  दिन उनकी पत्नी दिया (सोनाली राउत) का अपरहण हो जाता है. पुलिस में आदित्य धनराज द्वारा शिकायत दर्ज कराने के बाद पुलिस हरकत में आती है. पुलिस अधिकारी नेहा (बिपाशा बसु) इसकी जांच शुरू करती हैं .नेहा, आदित्य धनराज की पूर्व प्रेमिका है .जांच शुरू होती  है ,तो पता चलता है कि आदित्य व दिया के बीच आए दिन झगड़े हुआ करते थे. दिया को अपने पिता के पैसे का घमंड है . आदित्य की ‘बैंकरप्ट’ कंपनी को दिया ने ही बचाया. दिया ड्रग्स व्हाट डिप्रेशन की शिकार है. उधर आदित्य ने अपने मित्र विशाल को दिया की कार का ड्राइवर बनाकर दिया पर नजर रखने के लिए नियुक्त किया है .पर दिया और विशाल एक साथ गायब होते हैं.जांच के दौरान सेक्स, डिप्रेशन, हत्याओं के कई घटनाक्रमों के बाद अंततः दिया के अलावा अपहरणकर्ता भी मारा जाता है.

लेखन:

रहस्य, रोमांच और हॉरर कहानियों को गढ़ने और ऐसी फिल्मों के निर्माण व निर्देशन में विक्रम भट्ट को महारत हासिल है. मगर बतौर लेखक विक्रम भट्ट ‘डेंजरस’ में बुरी तरह से मात खा गए हैं. पटकथा काफी गड़बड़ है. पहले एपिसोड/ चैप्टर में ही दर्शक समझ जाता है कि इसका अंत क्या होगा? तीन एपिसोड तक तो कहानी कसी हुई है, पर इसके बाद लेखक व निर्देशक की पकड़ ढीली हो जाती है. कहानी व दृश्यों के स्तर पर कुछ भी  नयापन नहीं है.

निर्देशन:

भूषण पटेल का निर्देशन कसा हुआ है. मगर पटकथा की कमजोरी के चलते उनके हाथ बंधे हुए नजर आते हैं. कहानी करण सिंह ग्रोवर व बिपाशा बसु के ही ईद गिर्द घूमती है.निर्देशक ने बोल्ड के नाम पर भरपूर सेक्स परोसा है.हर किरदार सिर्फ सेक्स और पैसे के पीछे भागते नजर आ रहा है .अफसोस ऐसा नहीं हो सकता. पूरी सीरीज देखने के बाद अहसास होता है कि यह 2 घंटे की बॉलीवुड मसाला फिल्म थी, जिसे 15 से 20 मिनट के साात भागों में विभाजित कर वेब सीरीज के रूप में ‘एमएक्स प्लेयर’ पर रिलीज किया गया है.

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लंदन की खूबसूरत लोकेशन  लोगों को पसंद आ सकती है. तो वही बोल्ड दृश्यों के शौकीन ही इसे देखना चाहेंगे, अन्यथा यह वेब सीरीज टॉर्चर है. इसके अलावा बच्चों या परिवार के साथ न देखने में ही समझदारी है.

अभिनय :

बिपाशा बसु और करण सिंह ग्रोवर दोनों निजी जीवन में पति पत्नी है और लंबे समय बाद यह जोड़ी पर्दे पर आयी है. मगर लोगों का ध्यान इन दोनों के बीच की ‘हॉट केमिस्ट्री’ ही खींचती है . विशाल के किरदार में अभिनेता सुयश राय  लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं. नवोदित अभिनेता सुयश राय एक परिपक्व अभिनेता के रूप में उभरते हैं. दीया के छोटे से किरदार में सोनाली राउत के हिस्से कुछ खास करने को रहा ही नहीं. आदित्य धनराज की सेक्रेटरी गौरी के किरदार में नताशा सूरी अपने अभिनय का प्रभाव छोड़ने में असफल रही हैं .

व्हाय चीट इंडिया : आत्मा विहीन फिल्म

रेटिंग : डेढ़ स्टार

भारतीय शिक्षा प्रणाली को लेकर अब तक कई फिल्में बन चुकी हैं, जिनमें बच्चों को किस तरह की शिक्षा दी जानी चाहिए, इस पर बातें की जा चुकी हैं. फिर चाहे ‘थ्री इडीयट्स’हो या ‘तारे जमीन पर हो’ या ‘निल बटे सन्नाटा’. मगर शिक्षा तंत्र को चीटिंग माफिया किस तरह से खोखला कर रहा है, इस मुद्दे पर अभिनेता से निर्माता बने इमरान हाशमी फिल्म ‘‘व्हाय चीट इंडिया’’ लेकर आए हैं. कहानी के स्तर पर फिल्म में कुछ भी नया नही है. फिल्म में जो कुछ दिखाया गया है, उससे हर आम इंसान परिचित है. माना कि फिल्म हमारे देश की शिक्षा प्रणाली में व्याप्त कुप्रथा, घोटाले, भ्रष्टाचार आदि को उजागर करती है, इमरान हाशमी ने इस अहम मुद्दे पर एक असरहीन फिल्म बनाई है. यह व्यंगात्मक फिल्म पूरे सिस्टम व शिक्षा प्रणाली के दांत खट्टे कर सकती थी. यह फिल्म शिक्षा संस्थानों को चलाने वालो के परखच्चे उड़ा सकती थी, मगर फिल्म ऐसा करने में पूरी तरह से असफल रही है.

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फिल्म की कहानी झांसी निवासी राकेश सिंह उर्फ रौकी (इमरान हाशमी) के इर्द गिर्द घूमती है. रौकी का अपना एक शालीन व सभ्य परिवार है. मगर रौकी अपने पिता व परिवार के सपनों के बोझ तले दबकर झांसी से जौनपुर आकर कोचिंग क्लास खोलकर शिक्षा तंत्र में चीटिंग के ऐसे व्यवसाय पर चल पड़ता है, जिसे वह सिर्फ अपने लिए ही नहीं, बल्कि दूसरों के लिए भी सही मानता है. रौकी पूरे उत्तर प्रदेश का बहुत बड़ा चीटिंग माफिया बन चुका है. उसने शिक्षा तंत्र में अपनी अंदर तक गहरी पैठ बना ली है और अब शिक्षा तंत्र की खामियों का भरपूर फायदा उठा रहा है. उसके संबंध विधायकों से लेकर मंत्रियों तक हैं. अपने चीटिंग के व्यवसाय में वह गरीब और मेधावी छात्रों का उपयोग करता है. इन छात्रों को एक धनराशि देकर खुद को अपराधमुक्त मान लेता है. फिर यह गरीब मेधावी छात्र अपनी बुद्धि व अपनी पढ़ाई के आधार पर नकारा व अमीर छात्रों के बदले परीक्षा देते हैं. रौकी इन्ही नकारा व अमीर बच्चों के माता पिता से एक मोटी रकम वसूलता रहता है.

एक दिन उसे पता चलता है कि उसके शहर का एक लड़का सत्येंद्र दुबे उर्फ सत्तू (स्निग्धादीप चटर्जी) कोटा से पढ़ाई करके इंजीनियिंरंग प्रवेश परीक्षा में काफी बेहतरीन नंबर लाता है. अब पूरे शहर में उसका जलवा हो जाता है. रौकी तुरंत सत्तू से मिलता है और उसे सुनहरे सपने दिखाते हुए एक लड़के के लिए इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षा देने के लिए उसे पचास हजार रूपए देने की बात करता है. परिवार की आर्थिक हालत देखते हुए सत्तू उसकी बातों में फंस जाता है. धीरे धीर सत्तू की बहन नुपुर (श्रेया धनवंतरी) भी राकेश सिंह से प्रभावित हो जाती है और उसे अपने भावी पति के रूप में देखने लगती है. उधर रौकी धीरे धीरे सत्तू में ड्रग्स व लड़की सहित हर बुरी आदत का शिकार बना देता है. एक दिन कुछ अमीर लोगों की शिकायत पर पुलिस अफसर कुरैशी उसे पकड़ते हैं, मगर विधायक जी उसे छुड़ा लेते हैं. इसी बीच ड्रग्स लेने के चक्कर में सत्तू को कौलेज से निकाल दिया जाता है, तब रौकी उसे फर्जी डिग्री देकर भारत से बाहर कतार में नौकरी करने के लिए भेजकर सत्तू व उसके परिवार से संबंध खत्म कर लेता है. कतार में सत्तू की डिग्री फर्जी है यह राज खुल जाता है. सत्तू किसी तरह अपने घर वापस आकर घर के अंदर ही आत्महत्या कर लेता है. इसी बीच पुलिस अफसर कुरैशी की मुलाकात नुपुर से होती है. दोनों राकेश सिंह को सबक सिखाने की ठान लेते हैं. इधर राकेश सिंह ने अपने चीटिंग के व्यवसाय का जाल मुंबई में फैला लिया है. अब वह एमबीए का पर्चा लीक कर करोड़ो कमा रहा है. नुपर नौकरी करने के लिए मुंबई पहुंचती है और राकेश के संपर्क में आती है, दोनों के बीच प्रेम संबंध शुरू होते हैं. पर एक दिन नुपुर की ही मदद से कुरैशी, राकेश सिंह उर्फ रौकी को सबूत के साथ गिरफ्तार करता है. अदालत में रौकी खुद को रौबिनहुड साबित करने का प्रयास करते हुए शिक्षा तंत्र की बुराइयों पर भाषणबाजी करता है. रौकी को सजा हो जाती है. जेल में विधायक जी मिलते हैं. अंत में पता चलता है कि रौकी ने अपने पिता के नाम पर बहुत बड़ा इंजीनियरिंग कौलेज खोल दिया है. अब उसके पिता खुश हैं. तथा रौकी का धंधा उसी गति से चल रहा है.

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कमजोर पटकथा व विषय के घटिया सिनेमाई कारण के चलते पूरी फिल्म मूल मुद्दे को सही परिप्रेक्ष्य में पेश नहीं कर पाती है. निर्देशक सौमिक सेन ने फिल्म के हीरो इमरान हाशमी की एंट्री एक सिनेमाघर में गुंडों से मारपीट के साथ दिखायी है, जो कि बहुत ही घटिया है और यह काम उसके व्यवसाय से भी परे है. जबकि बिना मारपीट के भी इस दृश्य में एक धूर्त ,कमीने, चालाक व विधायकों से संबंध रखने वाले इंसान रौकी का परिचय दिया जा सकता था. पर सिनेमा की सही समझ न रखने वाले सौमिक सेन से इस तरह की उम्मीद करना ही गलत है. बतौर लेखक सौमिक सेन पुलिस औफिसर कुरैशी के किरदार को भी ठीक से चित्रित नहीं कर पाए. कितनी अजीब सी बात है कि फिल्म हर इंसान को चालाक होने यानी कि गलत काम करने की प्रेरणा देती है. फिल्म के अंत में जिस तरह रौकी अपने पिता के नाम पर कौलेज खोलकर अपना काम करता हुआ दिखाया गया है, उससे यही बात उभरती है कि बुरे काम का बुरा नतीजा नहीं होता. फिल्म में लालच व लालची होने का महिमा मंडन किया गया है. फिल्मकार इस बात के लिए अपनी पीठ थपथपा सकते हैं कि उन्होंने आम फिल्मों की तरह अपनी फिल्म ‘‘व्हाय चीट इंडिया’’ में गलत इंसान का मानवीयकरण करते हुए उसे प्रायश्चित करते नहीं दिखाया.

फिल्मकार चीटिंग करने वालों के पकड़े जाने पर उनकी मानसिकता को गहराई से पकड़ने में बुरी तरह से नाकाम रहे हैं.

कथानक के स्तर पर काफी विरोधाभास है. रौकी के पिता का किरदार भी आत्मविरोधाभासी बनकर उभरता है, पूरी फिल्म में वह अपने बेटे के खिलाफ हैं, पर अंत में उनके नाम पर कौलेज के खुलते ही वह रौकी के सबसे बड़े प्रशंसक बन जाते हैं. कम से कम भारत जैसे देश में पुराने समय के लोगों की सोच इस तरह नही बदलती है. कुल मिलाकर पटकथा के स्तर पर इतनी कमियां हैं कि उन्हें गिनाने में कई पन्ने भर जाएंगे. फिल्मकार ने शिक्षा जगत की खामियों व चीटिंग माफिया जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को बहुत ही गलत ढंग से पेशकर इस मुद्दे की अहमियत को ही खत्म कर दिया.

जहां तक अभिनय का सवाल है, तो सत्तू के किरदार में स्निग्धदीप चटर्जी ने काफी अच्छा अभिनय किया है और उससे काफी उम्मीदें जगती हैं.. इमरान हाशमी बहुत प्रभावित नहीं करते, इसके लिए कुछ हद तक लेखक व निर्देशक भी जिम्मेदार हैं. वेब सीरीज ‘‘लेडीज रूम’’से अपनी प्रतिभा को साबित कर चुकीं अभिनेत्री श्रेया धनवंतरी को इस फिल्म में सिर्फ मुस्कुराने के अलावा कुछ करने का अवसर ही नहीं दिया गया, यह भी लेखक व निर्देशक की कमजोरियों के चलते ही हुआ. फिल्म खत्म होने के बाद सवाल उठता है कि फिल्मों में करियर शुरू करने के लिए श्रेया धनवंतरी ने ‘व्हाय चीट इंडिया’को क्या सोचकर चुना. छोटे किरदारों में कुछ कलाकारों ने बेहतरीन अभिनय किया है.

दो घंटे एक मिनट की अवधि वाली फिल्म  ‘‘व्हाय चीट इंडिया’’ का निर्माण इमरान हाशमी, भूषण कुमार, किशन कुमार, तनुज गर्ग, अतुल कस्बेकर और प्रवीण हाशमी ने किया है. फिल्म के लेखक व निर्देशक सौमिक सेन, संगीतकार रोचक कोहली, गुरू रंधावा, अग्नि सौमिक सेन, कुणाल रंगून, कैमरामैन वाय अल्फांसो रौय तथा फिल्म को अभिनय से संवारने वाले कलाकार हैं- इमरान हाशमी, श्रेया धनवंतरी, स्निग्धदीप चटर्जी.

सिंबा: रणवीर सिंह की ओवरएक्टिंग…

किसी भी सफल फिल्म का रीमेक बनाते समय फिल्मकार उसे तहस नहस कर देते हैं. इससे पहले मराठी फिल्म ‘सैराट’ की जब हिंदी रीमेक ‘धड़क’ आयी, तो बात नहीं जमी थी. अब रोहित शेट्टी 2015 में प्रदर्षित तेलुगू की सुपर हिट फिल्म ‘‘टेम्पर’’ का हिंदी रीमेक एक्शन व हास्य प्रधान फिल्म ‘‘सिंबा’’ लेकर आए हैं, पर इस बार वह भी मात खा गए.

फिल्म ‘‘टेंम्पर’’ में जिस तरह का अभिनय जूनियर एनटीआर ने किया है, उसके सामने रणवीर सिंह फीके पड़ जाते हैं. जिन लोगों ने तेलुगू फिल्म ‘टेम्पर’ या हिंदी में डब इस फिल्म को देखा है, उन्हे ‘सिंबा’ पसंद नहीं आएगी. अन्यथा यह मनोरंजक मसाला फिल्म है, जिसमें एक्शन, हास्य, रोमांस, इमोशंस के साथ ऐसा हीरो है, जो कि वक्त पड़ने पर बीस पच्चीस लोगों को धूल चटा देता है.

संग्राम भालेराव उर्फ सिंबा (रणवीर सिंह) एक अनाथ बालक से शिवगढ़ के एसीपी बने हैं, जो कि भ्रष्ट पुलिस आफिसर है. यह वही शहर है, जहां डीसीपी बाजीराव सिंघम (अजय देवगन) की परवरिश हुई थी. बाजीराव इमानदार पुलिस अफसर रहा है, जबकि सिंबा को भ्रष्ट तरीके से जिंदगी का आनंद उठाते दिखाया गया है. वास्तव में बचपन में ही सिनेमाघर के सामने ब्लैक में टिकट बेचते हुए सिंबा समझ जाता है कि पैसा कमाने के लिए पावर चाहिए, इसीलिए वह पुलिस अफसर बनना चाहता है. पुलिस अफसर बनने के बाद सिंबा बेईमानी पूरी इमानदारी से करता है. पुलिस अफसर की ड्यूटी निभाते हुए उसका ध्यान सिर्फ जायज व नाजायज ढंग से पैसा कमाने पर ही होता है. कुल मिलाकर संग्राम उर्फ सिंबा को भ्रष्ट पुलिस अफसर की जीवनशैली जीने में ज्यादा आनंद आता है. उसे प्रदेश के गृहमंत्री का वरदहस्त हासिल है.

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संग्राम भालेराव, गृहमंत्री को अपना पिता और उनकी बेटी को बहन मानता है. गृहमंत्री उसका तबादला गोवा में मीरा मार पुलिस स्टेशन में इस हिदायत के साथ करते हैं कि वह वहां पर दुर्वा रानाडे (सोनू सूद) को क्रास नही करेगा. मीरा मार पुलिस स्टेशन पहुंचने पर सिंबा का सामना हेड कांस्टेबल मोहिले (आशुतोष राणा) से होती है, जोकि बहुत इमानदार है, उसने सिंबा के बारे में सब कुछ सुन रखा है, इसलिए वह उन्हे सलाम नहीं करता है. गुस्से में सिंबा उसे अपनी गाड़ी का ड्राइवर बना लेता है. पर सब इंस्पेक्टर संतोष तावड़े (सिद्धार्थ जाधव) से सिंबा की जमती है और दोनों मिलकर हर नाजायज काम को अंजाम देते हैं. पुलिस स्टेशन के सामने ही कैटरिंग चलाने वाली शगुन (सारा अली खान) पर सिंबा लट्टू हो जाता है.

तो वहीं वह शगुन की सहेली आकृति को अपनी बहन बना लेता है. एक दिन शगुन भी सिंबा से प्यार करने की बात कबूल कर लेती है.दु र्वा रानाडे के ड्रग्स के अवैध व्यापार से अनभिज्ञ सिंबा, दुर्वा के हर अपराध में उसका साथ देता है, जिसके बदले में उसे एक बड़ी रकम मिलती रहती है. दुर्वा के ड्रग्स का व्यापार उसके दो भाई संभालते हैं. यह छोटे स्कूल जाने वाले बच्चे के बैग में ड्रग्स के पैकेट भरकर एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाते रहते हैं. जब इसकी भनक आकृति को लगती है, तो वह उनके अड्डे पर पहुंच जाती है, जिसके साथ बलात्कार करने के बाद दुर्वा के भाई उसकी हत्या कर देते हैं. आकृति के साथ जो कुछ होता है, वह जानकर सिंबा में परिवर्तन आता है और वह सही राह पर चलना शुरू कर देता है.अं ततः दुर्वा के दोनो भाईयों का पुलिस स्टेशन के ही अंदर इनकाउंटर होता है. मामला अदालत में पहुंचता है. डीसीपी बाजीराव सिंघम भी आते हैं और अंत में सिंबा बरी और दुर्वा को सजा हो जाती है.

तेलगू फिल्म ‘टेम्पर’ की यह आधिकारिक रीमेक है, मगर रोहित शेट्टी ने थोड़ा सा बदलाव करते हुए इसे मसालेदार बनाने की कोशिश की है. फिल्म में गाने काफी डाले गए हैं. इंटरवल से पहले फिल्म की कहानी ह्यूमर व हास्य के साथ एक भ्रष्ट पुलिस अफसर की कहानी है. इंटरवल से पहले हास्य का तगड़ा डोज है. मगर इंटरवल के बाद कहानी का केंद्र लड़की के साथ बलात्कार व बलात्कारियों को सजा देने की तरफ मुड़ जाता है. इंटरवल के बाद फिल्म निर्देशक रोहित शेट्टी के हाथ से फिसल सी जाती है. क्योंकि उन्होंने देश के लोगों के मिजाज को भुनाने का ही प्रयास किया है.

जिसके चलते फिल्म काफी बोरिंग हो जाती है. फिल्म में अदालत के दृष्य प्रभाव नहीं डालते. निर्भया केस के साथ फिल्म को जोड़कर उपदेशात्मक बना दिया है, जो कि बहुत बोर करता है. यह एक बलात्कार पर आधारित मैलोड्रैमेटिक फिल्म बनकर रह गयी है.

बौलीवुड की सबसे बड़ी कमजोरी है कि कोई भी फिल्मकार फिल्म में मनोरंजन के साथ उपदेश नहीं परोस पाते हैं. इस कमजोरी के शिकार रोहित शेट्टी भी नजर आए. समस्या का निराकरण तलाशने की बजाय हवाई समाधान देना इनका हक बन गया है. पुलिस स्टेशन में एनकाउंटर/मुठभेड़ का दृष्य अवास्तविक लगता है. अंत में अजय देवगन को लाकर एक्शन दृष्यों की मदद से निर्देशक ने फिल्म को संभालने का असफल प्रयास किया है.

पटकथा के स्तर पर तमाम कमियां हैं. कई दृष्यों में अजीब सा विरोधाभास है. एक तरफ बलात्कार की शिकार आकृति का पिता दुःखी व सदमे में है, तो उसी क्षण वह एक कप चाय की मांग करता है. अदालती दृष्य तो बेवकूफी से भरे हैं. जिस तरह की भाषणबाजी अदालती दृष्य मे है, वह गले नहीं उतरती. जज के चैंबर में अपराधी, पुलिस व वकीलों के साथ ही राज्य के गृहमंत्री की मौजूदगी तो लेखक के दिमागी सोच की पराकास्ठा है.

जहां तक अभिनय का सवाल है तो इंटरवल से पहले हास्य के दृश्यों में रणवीर सिंह ने पूरा जोश दिखाया है, मगर वह खुद को दोहराते हुए ही नजर आए हैं. कई दृश्यों में उनका अभिनय देखकर फिल्म ‘बाजीराव मस्तानी’ की याद आ जाती हैं. कई दृष्यों में रणवीर सिंह ने जूनियर एनटीआर की नकल की है, तो कई जगह वह ओवरएक्टिंग करते हुए नजर आते हैं. शगुन के किरदार में सारा अली खान सिर्फ सुंदर लगी हैं, अन्यथा उनके हिस्से में करने के लिए कुछ है ही नहीं. दुर्वा रानाडे के किरदार में सोनू सूद जरुर प्रभावित करते हैं. एक अति ईमानदार हेड पुलिस कौंस्टेबल की भ्रष्ट अधिकारी के साथ काम करने की बेबसी को पेश करने में आशुतोष राणा काफी हद तक कामयाब रहे हैं. संतोष तावड़े के किरदार में सिद्धार्थ जाधव भी अपना असर छोड़ जाते हैं.

फिल्म में गीतों की भरमार है, मगर वह गीत संगीत असरदार नहीं है. फिल्म देखकर अहसास होता है कि अब धर्मा प्रोडकशन मौलिक बेहतरीन गीत संगीत रचने में असमर्थ हो गया है.

दो घंटे 40 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘सिंबा’’ का निर्माण करण जौहर, हीरू जौहर, अपूर्वा मेहता व रोहित शेट्टी ने किया है. फिल्म के निर्देशक रोहित शेट्टी हैं. तेलुगू फिल्म ‘‘टेम्पर’’ की हिंदी रीमेक वाली इस फिल्म के पटकथा लेखक युनूस सेजावल व साजिद सामजी, संवाद लेखक फरहाद सामजी, संगीतकार तनिष्क बागची, कैमरामैन जोमोन टी जौन तथा इसे अभिनय से संवारने वाले कलाकार हैं – रणवीर सिंह, सारा अली खान, सोनू सूद, अजय देवगन, वृजेष हीरजी, आषुतोष राणा, सिद्धार्थ जाधव, अरूण नलावड़े, सुलभा आर्या, अष्विनी कलसेकर, विजय पाटकर, सौरभ गोखले, अषोक समर्थ, वैदेही परषुरामी, सुचित्रा बांदेकर के अलावा मेहमान कलाकार के तौर पर तुषार कपूर, कुणाल खेमू, श्रेयस तलपड़े, अरशद वारसी व करण जौहर.

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