कांग्रेस को सीख बड़े काम के हैं छोटे चुनाव

उत्तर प्रदेश की 9 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में कांग्रेस ने किसी सीट पर चुनाव नहीं लड़ा. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन है, जिस को ‘इंडिया ब्लौक’ के नाम से जाना जाता है. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में सपाकांग्रेस गठबंधन ने 43 सीटें जीती थीं, जिन में से सपा को 37 और कांग्रेस को 6 सीटें मिली थीं.

9 विधानसभा सीटों के उपचुनाव अलीगढ़ जिले की खैर, अंबेडकरनगर की कटेहरी, मुजफ्फरनगर की मीरापुर, कानपुर नगर की सीसामऊ, प्रयागराज की फूलपुर, गाजियाबाद की गाजियाबाद, मिर्जापुर की मझवां, मुरादाबाद की कुंदरकी और मैनपुरी की करहल विधानसभा सीटें शामिल हैं.

उत्तर प्रदेश की इन 9 विधानसभा सीटों पर साल 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने सब से ज्यादा 4 सीटें जीती थीं. भाजपा ने इन में से 3 सीटें जीती थीं. राष्ट्रीय लोकदल और निषाद पार्टी के एकएक उम्मीदवार इन सीटों पर विजयी हुए थे. कानपुर नगर की सीसामऊ सीट साल 2022 में यहां से जीते समाजवादी पार्टी के इरफान सोलंकी को अयोग्य करार दिए जाने से खाली हुई थी.

समाजवादी पार्टी ने सभी 9 सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं. कांग्रेस पहले इस चुनाव में 5 सीटों को अपने लिए मांग रही थी. समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस के लिए महज 2 सीटें छोड़ी थीं. कांग्रेस ने मनमुताबिक सीट नहीं मिलने के चलते उपचुनाव न लड़ने का फैसला लिया. उत्तर प्रदेश के कांग्रेस प्रभारी अविनाश पांडेय ने साफ कहा कि कांग्रेस पार्टी चुनाव नहीं लड़ेगी.

अविनाश पांडेय ने कहा कि आज सब दलों को मिल कर संविधान को बचाना है. अगर भाजपा को नहीं रोका गया, तो आने वाले समय में संविधान, भाईचारा और आपसी सम?ा और भी कमजोर हो जाएगी.

हरियाणा की हार से कांग्रेस में निराशा का माहौल है. राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल उठने लगे हैं. उत्तर प्रदेश के उपचुनाव में कांग्रेस हार जाती, तो उन के लिए एक और मुश्किल खड़ी हो जाती.

नरेंद्र मोदी और भाजपा से लड़ने के लिए कांग्रेस अपनी जमीन छोड़ती जा रही है, जिस का असर आने वाले समय पर पड़ेगा खासकर हिंदी बोली वाले इलाकों में, जहां पर कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला है, वहां कांग्रेस को कोई चुनाव छोटा सम?ा कर छोड़ना नहीं चाहिए.

केवल विधानसभा और लोकसभा चुनाव लड़ने से ही काम नहीं चलने वाला है. कांग्रेस को अगर अपने को मजबूत करना है, तो उसे पंचायत चुनाव और शहरी निकाय चुनाव भी लड़ने पड़ेंगे, तभी उस का संगठन मजबूत होगा और बूथ लैवल तक कार्यकर्ता तैयार हो सकेंगे.

मजबूत करते हैं छोटे चुनाव पंचायत और शहरी निकाय के चुनाव हर 5 साल में पंचायती राज कानून के तहत होते हैं. इन में जातीय आरक्षण और महिला आरक्षण दोनों शामिल हैं. इन चुनाव में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिया गया है.

पंचायती राज कानून प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय में साल 1984 में लागू हुआ था. पंचायत और निकाय चुनाव विधानसभा और लोकसभा चुनाव की नर्सरी जैसे हैं.

राजनीति में नेताओं की पौध पहले छात्रसंघ चुनावों से तैयार होती थी. आज के नेताओं में तमाम नेता ऐसे हैं, जो छात्रसंघ चुनाव से आगे बढ़ कर नेता बने. इन में वामदल और कांग्रेस दोनों शामिल हैं. छात्रसंघ चुनावों पर रोक लगने के बाद से पंचायत और निकाय चुनाव राजनीति की नर्सरी बन गए हैं.

कांग्रेस ने पिछले कुछ सालों से पंचायत और निकाय चुनाव में गंभीरता से लड़ना बंद कर दिया है, जिस के चलते उन का संगठन बूथ लैवल तक नहीं पहुंच रहा और नए नेताओं की पौध भी वहां तैयार नहीं हो पा रही है. पंचायत चुनाव और शहरी निकाय चुनाव का माहौल विधानसभा और लोकसभा चुनाव जैसा होने लगा है.

पंचायत चुनावों में राजनीतिक दल अपनी पार्टी के चिह्न पर चुनाव भले ही नहीं लड़ते हैं, लेकिन उन्हें किसी न किसी पार्टी का समर्थन होता है. शहरी निकाय चुनाव पार्टी के चिह्न पर लड़े जाते हैं.

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने पंचायत चुनाव की अहमियत को सम?ा और साल 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जो कामयाबी मिली, उसे रोकने के लिए पूरे दमखम से पंचायत और विधानसभा चुनाव लड़ कर साल 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को रोकने में कामयाबी हासिल कर ली.

पश्चिम बंगाल की 63,229 ग्राम पंचायत सीटों में से तृणमूल कांग्रेस ने 35,359 सीटें जीती थीं. वहीं दूसरे नंबर पर रही भाजपा ने 9,545 सीटों पर जीत हासिल की थी.

ममता बनर्जी ने पंचायत चुनाव के जरीए ही 16 साल पहले राज्य में अपनी पार्टी को मजबूत किया और विधानसभा चुनाव जीते थे. वहां से ही लोकसभा चुनाव में कामयाबी हासिल कर के पश्चिम बंगाल से कांग्रेस और वामदलों को राज्य से बेदखल कर दिया.

दूसरे राज्यों को देखें, तो जिन दलों ने पंचायत और निकाय चुनाव लड़ा, वे राज्य की राजनीति में असरदार साबित हुए. उत्तर प्रदेश और बिहार में समाजवादी पार्टी और राजद दोनों ही पंचायत चुनावों में सब से प्रभावी ढंग से हिस्सा लेती है, जिस की वजह से विधानसभा और लोकसभा चुनाव में भी सब से प्रमुख दल के रूप में चुनाव मैदान में होते हैं.

उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में जिला पंचायत सदस्य की 3,050 सीटें हैं. 3,047 सीटों पर हुए चुनाव में मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा के बीच था. भाजपा ने 768 और सपा ने 759 सीटें जीती थीं.

साल 2021 में उत्तर प्रदेश में हुए ग्राम पंचायत चुनाव में 58,176 ग्राम प्रधानों सहित 7 लाख, 31 हजार, 813 ग्राम पंचायत सदस्यों ने जीत हासिल की थी. वैसे तो ये चुनाव पार्टी चुनाव चिह्न पर नहीं लड़े गए थे, लेकिन ब्लौक प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव में क्षेत्र विकास समिति और जिला पंचायत सदस्य के साथ ग्राम प्रधान और पंचायत सदस्य वोट देते हैं. ऐसे में हर पार्टी ज्यादा से ज्यादा अपने लोगों को यह चुनाव जितवाना चाहती है.

पंचायत चुनाव की ही तरह से शहरी निकाय चुनाव होते हैं. इन चुनावों में पार्टी अपने उम्मीदवार खड़े करती हैं. इस में पार्षद, नगरपालिका, नगर पंचायत और मेयर का चुनाव होता है.

उत्तर प्रदेश के 75 जिलों में कुल 17 नगरनिगम यानी महापालिका, 199 नगरपालिका परिषद और 544 नगर पंचायत हैं. इन सभी के चुनाव स्थानीय निकाय चुनाव होते हैं. नगरनिगम सब से बड़ी स्थानीय निकाय होती है, उस के बाद नगरपालिका और फिर नगर पंचायत का नंबर आता है.

पंचायत चुनाव और निकाय चुनाव खास इसलिए भी होते हैं, क्योंकि ये कार्यकर्ताओं के चुनाव होते हैं, जो पार्टियों को लोकसभा और विधानसभा जिताने में खास रोल अदा करते हैं. यहां कार्यकर्ता और उम्मीदवार दोनों को अपने वोटरों का पता होता है.

देखा यह गया है कि पंचायत और निकाय चुनावों में जिस पार्टी का दबदबा होता है, लोकसभा या विधानसभा चुनावों में उस के अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद भी बढ़ जाती है.

बात केवल उत्तर प्रदेश की ही नहीं है, बल्कि बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और दिल्ली का भी यही हाल है. जिस प्रदेश में जो पार्टी पंचायत और निकाय चुनाव में मजबूत होती है, वह विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में भी अच्छा प्रदर्शन दिखाती है. उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल इस के सब से बड़े उदाहरण हैं. यहां भाजपा और तृणमूल कांग्रेस ने पंचायत चुनाव में सब से अच्छा प्रदर्शन किया था, तो विधानसभा और लोकसभा में भी उन का अच्छा प्रदर्शन रहा है.

बिहार में 8,053 ग्राम पंचायतें हैं, जबकि यहां गांवों की संख्या 45,103 हैं. मध्य प्रदेश के 52 जिलों में 55,000 से ज्यादा गांव हैं. 23,066 ग्राम पंचायतें हैं.

राजस्थान में 11,341 ग्राम पंचायतों के चुनाव है. वहां इन चुनाव की बड़ी राजनीतिक अहमियत है. विधानसभा चुनाव के बाद जनता की सब से ज्यादा दिलचस्पी इन चुनावों में होती है. राजस्थान और हरियाणा में सरपंच यानी मुखिया की बात की अहमियत उत्तर प्रदेश और बिहार से ज्यादा है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि राजस्थान और हरियाणा में खाप पंचायतों का असर रहा है. पंचायती राज कानून लागू होने के बाद खाप पंचायतों का असर खत्म हुआ और वहां चुने हुए मुखिया यानी सरपंच का असर होने लगा.

छोटे चुनावों का बड़ा आधार

पंचायत चुनावों में महिलाओं के लिए आरक्षण होने के चलते अब महिलाएं यहां मुखिया बनने लगी हैं. बहुत सारे पुरुष समाज को यह मंजूर नहीं था, लेकिन मजबूरी में सहन करना पड़ता है. एक ग्राम पंचायत में 7 से 17 सदस्य होते हैं. इन को गांव का वार्ड कहा जाता है. इस के चुने हुए सदस्य को पंच कहा जाता है.

पंचायत चुनाव में जनता 4 लोगों का चुनाव करती है. इन में प्रधान या सरपंच या मुखिया के नाम से जाना जाता है. इस के बाद पंच के लिए वोट पड़ता है. तीसरा वोट क्षेत्र पंचायत समिति और चौथा जिला पंचायत सदस्य के लिए होता है.

छोटे चुनाव का बड़ा आधार होता है. इस की 2 बड़ी वजहें हैं. पहली यह कि यहां चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार और वोटर के बीच जानपहचान सी होती है. फर्जी वोट और वोट में होने वाली गड़बड़ी को पकड़ना आसान होता है. इन चुनावों में आरक्षण होने के चलते हर जाति के वोट लेने पड़ते हैं. ऐसे में सभी को बराबर का हक देना पड़ता है.

यहां पार्टी की नीतियां नहीं चलती हैं. ऐसे में जो अच्छा उम्मीदवार होता है, वह चुनाव जीत लेता है. यह उम्मीदवार अगर विधानसभा और लोकसभा चुनाव तक जाएगा, तो चुनावी राजनीति की दिशा में बदलाव होगा.

‘ड्राइंगरूम पौलिटिक्स’ से चुनाव को जीतना आसान नहीं होता है. पंचायत और निकाय चुनाव लड़ने वाले नेता को मेहनत करने की आदत होती है. वह पार्टी के लिए मेहनत करेगा. कांग्रेस के लिए जरूरी है कि वह छोटे चुनावों की बड़ी अहमियत को समझे.

ज्यादा से ज्यादा तादाद में ज्यादा से ज्यादा चुनाव लड़ना कांग्रेस की सेहत को ठीक करने का काम करेगा. इस से गांवगांव, शहरशहर बूथ लैवल पर उस के पास कार्यकर्ताओं का संगठन तैयार होगा, जो विधानसभा और लोकसभा चुनाव को जीतने लायक बुनियादी ढांचा तैयार कर सकेगा.

नौजवानों में बढ़ रहा चुनावों का आकर्षण

जिस तरह से छात्रसंघ चुनाव लड़ने के लिए कालेज में पढ़ने वाले नौजवान पहले उतावले रहते थे, अब वे पंचायत और निकाय का चुनाव लड़ने के लिए तैयार रहते हैं.

पिछले 10 सालों को देखें, तो हर राज्य में औसतन 60 फीसदी पंचायत चुनाव लड़ने वालों की उम्र 40 साल से कम रही है. इन में से कई ने अपने कैरियर को छोड़ कर चुनाव लड़ा और जीते. कांग्रेस इन नौजवानों के जरीए राजनीति में बड़ी इबारत लिख सकती है. ये नौजवान जाति और धर्म से अलग हट कर राजनीति करते हैं.

प्रयागराज के फूलपुर विकासखंड के मुस्तफाबाद गांव के रहने वाले आदित्य ने एमबीए जैसी प्रोफैशनल डिगरी लेने के बाद नौकरी नहीं की, बल्कि अपने गांव की बदहाली को ठीक करने की ठानी. अपने अंदर एक जिद पाली कि गांव में ही बेहतर करेंगे. यहां की दशा सुधार कर ही दम लेंगे.

गांव में बिजली नहीं थी, तो आदित्य ने खुद के पैसे से विद्युतीकरण करा दिया. गांव में बिजली आई, तो सभी आदित्य के मुरीद हो गए. उसे अपना मुखिया चुनने का मन बनाया. आदित्य ने चुनाव जीत कर प्रयागराज के सब से कम उम्र के ग्राम प्रधान बनने में कामयाबी हासिल की.

हरियाणा पंचायत चुनाव में 21 साल की अंजू तंवर सरपंच बनीं. अंजू खुडाना गांव की रहने वाली हैं. खुडाना गांव के सरपंच की सीट महिला के लिए आरक्षित थी. गांव की ही बेटी अंजू तंवर को चुनाव लड़ाने का फैसला किया गया.

खुडाना गांव की आबादी तकरीबन 10,000 है. तकरीबन 3,600 वोट चुनाव के दौरान डाले गए थे, जिन में से सब से ज्यादा 1,300 वोट अंजू तंवर को मिले थे. अंजू के परिवार से कोई भी राजनीति में नहीं है. वे अपने परिवार से राजनीति में आने वाली पहली सदस्य हैं.

मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में निर्मला वल्के सब से कम उम्र की सरपंच बनी हैं. स्नातक की पढ़ाई करने के दौरान उन्होंने परसवाड़ा विकासखंड की आदिवासी ग्राम पंचायत खलोंडी से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. आदिवासी समाज से एक छात्रा को पढ़ाई की उम्र में गांव की सरपंच बनना समाज व गांव की जागरूकता का ही हिस्सा कहा जा सकता है.

पूरे देश में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, जहां नौजवानों ने पंचायत और निकाय चुनाव में जीत हासिल की है. ऐसे में नौजवान चेहरों को आगे लाने में कांग्रेस अहम रोल अदा कर सकती है.

कांग्रेस जाति और धर्म की राजनीति में फिट नहीं हो पाती है. पंचायत और निकाय चुनाव में जाति और धर्म का असर कम होता है. ऐसे में अगर इन चुनाव में कांग्रेस लड़े और नौजवानों को आगे बढ़ाए, तो देश की राजनीति से जाति और धर्म को खत्म करने मे मदद मिल सकेगी.

इस से कांग्रेस का अपना चुनावी ढांचा मजबूत होगा. छोटे चुनावों को कमतर आंकना ठीक नहीं होता है. जब कांग्रेस ताकतवर थी, तब वह इन चुनावों को लड़ती और जीतती थी.

पूरे देश में कांग्रेस अकेली ऐसी पार्टी है, जो भाजपा को रोक सकती है. इस के लिए उसे अपने अंदर बदलाव और आत्मविश्वास को बढ़ाना होगा. इस के लिए छोटे चुनाव बड़े काम के होते हैं.

नरेंद्र मोदी और अमित शाह की रणनीति चारों खाने चित

भा रतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की सत्ता आने के बाद जिस तरह से जम्मूकश्मीर और वहां की अवाम को दर्द ही दर्द मिला है, क्या उसे कोई भूल सकता है? यहां तक कि नागरिकों के अधिकार नहीं रहे और बंदूक के साए में अब देश की सब से बड़ी अदालत के आदेश के बाद चुनाव होने जा रहे हैं. यह एक ऐसा रास्ता है, जो लोकतांत्रिक की मृग मरीचिका का आभास देता है.

मगर सितंबर, 2024 में होने वाले विधानसभा चुनाव की जो रणनीति कांग्रेस बना रही है, उस में नरेंद्र मोदी और अमित शाह का पूरा खेल बिगड़ता दिखाई दे रहा है. भाजपा किसी भी हालत में यहां सत्ता में आती नहीं दिखाई दे रही है, जिस का आगाज लोकसभा चुनाव में भी नतीजे के रूप में हमारे सामने है.

इधर, फारूक अब्दुल्ला ने जिस तरह सामने आ कर मोरचा संभाला है और  विधानसभा चुनाव लड़ने की रणनीति बनाई है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी की रणनीति चारों खाने चित हो चुकी है.

कांग्रेस प्रमुख मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी श्रीनगर पहुंचे थे. मल्लिकार्जुन खड़गे ने जम्मूकश्मीर के आगामी विधानसभा चुनाव के लिए दूसरे विपक्षी दलों के साथ गठबंधन करने की इच्छा जताई और केंद्रशासित प्रदेश के लोगों से भारतीय जनता पार्टी के वादों को ‘जुमला’ करार दिया.

मल्लिकार्जुन खड़गे ने लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी के साथ श्रीनगर में कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं से विधानसभा चुनावों की जमीनी स्तर की तैयारियों के बारे में जानकारी ली. उन्होंने कहा कि ‘इंडी’ गठबंधन ने एक तानाशाह को पूरे बहुमत के साथ (केंद्र में) सत्ता में आने से रोका है. यह गठबंधन की सब से बड़ी कामयाबी है. कांग्रेस ने राज्य का दर्जा बहाल करने की पहल की है. हम इस दिशा में काम करने का वादा करते हैं. राहुल गांधी की जम्मूकश्मीर में चुनाव से पहले गठबंधन बनाने में दिलचस्पी है. वे दूसरी पार्टियों के साथ मिल कर चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं.

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने आगे कहा कि दरअसल, भाजपा लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद चिंतित है, क्योंकि वे लोग जिन विधेयकों को पास कराना चाहते थे, उन में करारी मात मिली है.

पूर्ण राज्य का दर्जा

कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के श्रीनगर दौरे से राजनीति में एक गरमाहट आ गई है. राहुल गांधी ने कहा कि जम्मूकश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन ‘इंडी’ की प्राथमिकता है. यह उन की पार्टी का लक्ष्य है कि जम्मूकश्मीर और लद्दाख के लोगों को उन के लोकतांत्रिक अधिकार वापस मिलें.

कांग्रेस और ‘इंडी’ गठबंधन की प्राथमिकता है कि जम्मूकश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा जल्द से जल्द बहाल किया जाए. हमें उम्मीद थी कि चुनाव से पहले ऐसा कर दिया जाएगा, लेकिन चुनाव घोषित हो गए हैं. हम उम्मीद कर रहे हैं कि जल्द से जल्द पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा और जम्मूकश्मीर के लोगों के अधिकार बहाल किए जाएंगे.

आजादी के बाद यह पहली बार है कि कोई राज्य केंद्रशासित प्रदेश बन गया है. यहां कोई विधानपरिषद, कोई पंचायत या नगरपालिका नहीं है. लोगों को लोकतंत्र से दूर रखा गया है.

मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के 30 सितंबर तक चुनाव कराने के निर्देश के चलते ही जम्मूकश्मीर में विधानसभा चुनाव की घोषणा की गई है.

चुनाव से पहले जम्मूकश्मीर के लोगों से किया गया एक भी वादा पूरा नहीं किया गया है. कुलमिला कर कांग्रेस नेताओं ने जिस तरह जम्मूकश्मीर में मोरचाबंदी की है, उस से नरेंद्र मोदी और अमित शाह के मनसूबे ध्वस्त होंगे, ऐसा लगता है.

फारूक अब्दुल्ला और कांग्रेस

जम्मूकश्मीर में जो नए राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं, उन से साफ दिखाई दे रहा है कि फारूक अब्दुल्ला, जो जम्मूकश्मीर के सब से बड़े नेता और चेहरे हैं, ने कांग्रेस के साथ मिल कर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है और यह गठबंधन अगर बन जाता है, तो इस की सरकार बनने की पूरी संभावना है, क्योंकि इन के सामने सारे नेता बौने हैं. वहीं राहुल गांधी और ‘इंडी’ गठबंधन का अब समय आ गया है, यह दिखाई देता है.

यहां चुनाव 18 सितंबर, 25 सितंबर और 1 अक्तूबर को होंगे. नतीजे 4 अक्तूबर को घोषित किए जाएंगे.

फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि कांग्रेस के साथ मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी (माकपा) के (एमवाई) तारिगामी भी हमारे साथ हैं. मुझे उम्मीद है कि हमें लोगों का साथ मिलेगा और हम लोगों

के जीवन को बेहतर बनाने के लिए भारी बहुमत से जीतेंगे. इस के पहले राहुल गांधी ने भरोसा दिया था कि जम्मूकश्मीर के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करना कांग्रेस और ‘इंडी’ गठबंधन की प्राथमिकता है.

फारूक अब्दुल्ला ने उम्मीद जताई कि सभी ताकतों के साथ पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल किया जाएगा. राज्य का दर्जा हम सभी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है. इस का हम से वादा किया गया है. इस राज्य ने बुरे दिन देखे हैं और हमें उम्मीद है कि इसे पूरी शक्तियों के साथ बहाल किया जाएगा. इस के लिए हम ‘इंडी’ गठबंधन के साथ एकजुट हैं.

महत्त्वपूर्ण तथ्य सामने आया है कि चुनाव से पहले या चुनाव के बाद गठबंधन में महबूबा मुफ्ती के नेतृत्व वाली पीडीपी की मौजूदगी से भी नैशनल कौंफ्रैंस के नेता फारूक अब्दुल्ला ने इनकार नहीं किया है.

लोकसभा चुनाव : मुसलिम वोटरों की खामोशी क्यों

सा ल 2024 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिए सभी दल एड़ीचोटी का जोर लगा रहे हैं, मगर जीत का सेहरा किस के सिर बंधेगा, यह बड़ेबड़े राजनीतिक जानकार भी नहीं भांप पा रहे हैं. दलितों और मुसलिमों को साधने की कोशिश तो

सब की है, लेकिन उन के मुद्दे सिरे से गायब हैं. तीन तलाक को खत्म कर के भाजपा की मोदी सरकार मुसलिम औरतों की नजर में हीरो बनी थी, लेकिन अब चुनाव के वक्त तीन तलाक खारिज करने का गुणगान कर के वह मुसलिम मर्दों को भी नाराज नहीं कर सकती.

औरतें वोट डालने जाएं या न जाएं, ज्यादातर मुसलिम परिवारों में यह बात मर्द ही तय करते हैं. यही वजह है कि भाजपा की चुनावी रैलियों में तीन तलाक किसी नेता के भाषण का हिस्सा नहीं है.

उधर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव मुसलिमों के दिल में जगह बनाने लिए पिछले दिनों  बाहुबली नेता मुख्तार अंसारी की मौत के बाद उन के घर तक जा पहुंचे थे. उन की मौत का गम मनाया था. उस के बाद मुसलिम वोट साधने के लिए लखनऊ के कई नवाबी खानदानों से भी मुलाकातें की थीं, ईद की सेवइयां चखी थीं, लेकिन इन कवायदों

का आम मुसलिम पर कितना असर होगा, वह जो बिरयानी का ठेला लगाता है या साइकिल का पंचर जोड़ता है या सब्जी बेचता है या फिर काश्तकारी करता है, इस का अंदाजा अखिलेश यादव खुद नहीं लगा पाए थे.

असल माने में तो वोट देने वाला यही तबका है. नवाबी खानदानों से तो एकाध कोई वोट डालने बूथ तक जाए तो जाए. अब कांग्रेस की बात करें तो वह अगर मुसलिमों के लिए कोई बात करती है, तो भाजपाई नेता सीधे गांधी परिवार पर हमलावर हो उठते हैं और उसे मुसलिम बताने लगते हैं, इसलिए कांग्रेस भी मुसलिमों और उन के मुद्दों को ले कर तेज आवाज में नहीं बोल रही है.

एक तरफ राजनीतिक दल पसोपेश में हैं कि मुसलिम किस के कितने करीब हैं, दूसरी तरफ मुसलिम अपने वोट को ले कर खामोशी ओढ़े हुए हैं.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलिम बहुल इलाकों में भी खामोशी पसरी हुई है. इस खामोशी में किस की जीत छिपी है, यह वोटिंग का नतीजा आने के बाद ही पता चल सकेगा.

कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने मदरसा शिक्षा पर रोक लगाने की कोशिश की थी और राज्यभर के सभी 16,000 मदरसों के लाइसैंस रद्द कर दिए थे. मामला हाईकोर्ट होता हुआ सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने ‘यूपी बोर्ड औफ मदरसा ऐजूकेशन ऐक्ट 2004’ को असंवैधानिक करार देने वाले इलाहाबाद हाईकोर्ट के 22 मार्च, 2024 के फैसले पर रोक लगा दी.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट के फैसले से 17 लाख मदरसा छात्रों पर असर पड़ेगा और छात्रों को दूसरे स्कूल में ट्रांसफर करने का निर्देश देना उचित नहीं है.

मदरसे बंद करने के योगी सरकार की कोशिश पर सरकार में मंत्री दानिश आजाद अंसारी ने सफाई पेश की. उन्होंने कहा कि सरकार चाहती थी कि मुसलिम बच्चों को भी उसी तरह सरकारी स्कूलों में हिंदी, इंगलिश, साइंस, भूगोल, इतिहास, कंप्यूटर वगैरह की तालीम मिले, जैसी हिंदू और दूसरे धर्मों के बच्चों को मिलती है. बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए मदरसा तालीम को कमतर किया जा रहा था.

बेहतर तालीम मुसलिम नौजवानों को मिले, इस के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में योगी सरकार हमेशा पौजिटिव काम करती रही है. मगर सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करेगी.

सरकार की एकतरफा कार्यवाही

वहीं दूसरी ओर इस मामले में मुसलिम धर्मगुरुओं और नेताओं की कई प्रतिक्रियाएं आईं. मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली ने कोर्ट के फैसले का स्वागत किया. मुसलिमों के कई बड़े रहनुमाओं ने सुप्रीम कोर्ट का शुक्रिया अदा किया कि उस ने मदरसा तालीम को बरकरार रखा.

केंद्रीय स्कूल के शिक्षक मोहम्मद अकील कहते हैं, ‘‘मदरसों में बहुत गरीब मुसलिम परिवारों के बच्चे पढ़ने जाते हैं. मुसलिम यतीमखानों के बच्चे भी वहां पढ़ते हैं. वहां उन को दोपहर का भोजन मिल जाता है. किताबें और कपड़े मिल जाते हैं.

‘‘ज्यादातर बच्चों के परिवार इतने पिछड़े, गरीब और अनपढ़ हैं कि वे अपने बच्चों को दीनी तालीम और एक वक्त की रोटी के नाम पर मसजिदमदरसों में तो भेज देंगे, मगर किसी सरकारी स्कूल में नहीं भेजेंगे.

‘‘वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजने को तैयार हों, इस के लिए पहले सरकार इन परिवारों की काउंसलिंग करे, इन की जिंदगी को सुधारे, उन में तालीम की जरूरत की सम?ा पैदा करे, फिर उन के बच्चों को मदरसा जाने से रोके और सरकारी स्कूल में दाखिला दे.

‘‘ऐसे ही एक आदेश पर मदरसे बंद कर देने से आप इन बच्चों के मुंह से एक वक्त की रोटी भी छीने ले रहे हैं. सरकार का यह कदम बहुत ही गलत है. उस

को पहले हिंदुओं के गुरुकुल बंद करने चाहिए, फिर मदरसों की ओर देखना चाहिए.’’

भाजपा सरकार की मदरसा नीति पर भी मुसलिम तबका बंटा हुआ है. हो सकता है कि सरकार की मंशा मुसलिम बच्चों को बेहतर तालीम देने की हो मगर ज्यादातर इस कदम को मुसलिमों पर हमले के तौर पर ही देख रहे हैं. ऐसे में भाजपा से मुसलिम तबका इस वजह से भी छिटक गया है.

बीते रमजान के आखिरी पखवारे में हिंदुओं का नवरात्र भी शुरू हो गया था. उन के भी व्रत थे. लिहाजा, सरकार ने मीटमछली की दुकानें बंद करवा दीं. यहां तक कि ठेलों पर बिरयानी बेचने वालों को भी घर बिठा दिया गया. ईद के दिन 90 फीसदी मीट की दुकानें बंद थीं. कई मुसलिम घरों में बिना नौनवैज के ईद मनी.

मुसलिम तबके ने कोई शिकायत नहीं की, मगर कांग्रेस के समय को जरूर याद किया. ऐसा अनेक बार हुआ होगा, जब ईद और नवरात्र इकट्ठे पड़े, लेकिन कांग्रेस के वक्त ईद के रोज मीट की दुकानें बंद नहीं हुईं.

पश्चिम बंगाल में सालोंसाल मछली बिकती है, फिर चाहे नवरात्र हों या दीवाली, क्योंकि वहां के हिंदुओं का मुख्य भोजन मछली है. आखिर जिस का जैसा खानपान है, वह तो वही खाएगा, उस पर रोकटोक करने वाली सरकार कौन होती है?

मगर भाजपा सरकार मुसलिमों के खानपान पर बैन लगाने में उस्ताद है. हलाल और झटके के मामले में भी उस ने मुसलिमों को परेशान किया. ऐसे में उन के वोट भाजपा को कैसे मिल सकते हैं.

कम होते मुसलिम नुमाइंदे पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जहां से सब से ज्यादा मुसलिम प्रतिनिधि संसद पहुंचते रहे हैं, उस मुसलिम बहुल इलाके में भी खामोशी है. साल 2013 के सांप्रदायिक दंगों के बाद हुए ध्रुवीकरण के माहौल

में साल 2014 के चुनाव में इस इलाके से एक भी मुसलिम प्रतिनिधि नहीं चुना गया.

साल 2019 में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल ने मिल कर चुनाव लड़ा, तो 5 मुसलिम सांसद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीटों से जीत कर संसद पहुंचे थे. सहारनपुर से हाजी फजलुर रहमान, अमरोहा से दानिश अली, संभल से

डा. शफीकुर्रहमान बर्क, मुरादाबाद से एसटी हसन और रामपुर से आजम खान ने जीत दर्ज की थी.

लेकिन साल 2024 का चुनाव आतेआते राजनीतिक समीकरण बदल गए हैं. समाजवादी पार्टी कांग्रेस के साथ ‘इंडिया’ गठबंधन में है, राष्ट्रीय लोकदल अब भाजपा के साथ है और बहुजन समाज पार्टी अकेले चुनाव लड़ रही है.

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या नए बदले समीकरणों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से मुसलिम सांसद फिर से चुन कर संसद पहुंच पाएंगे? यह सवाल और गंभीर तब हो जाता है, जब कई मुसलिम बहुल सीटों पर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के मुसलिम उम्मीदवार आमनेसामने हैं.

सहारनपुर में कांग्रेस के उम्मीदवार इमरान मसूद हैं, तो बहुजन समाज पार्टी ने माजिद अली को टिकट दिया है. वहीं, अमरोहा में मौजूदा सांसद दानिश अली इस बार कांग्रेस के टिकट पर मैदान में हैं और बसपा ने मुजाहिद हुसैन को उम्मीदवार बनाया है.

संभल में सांसद रह चुके और अब इस दुनिया में नहीं रहे डा. शफीकुर्रहमान बर्क के पोते जियाउर्रहमान बर्क को समाजवादी पार्टी ने टिकट दिया है, तो बसपा ने यहां सौलत अली को उम्मीदवार बनाया है.

मुरादाबाद से समाजवादी पार्टी ने मौजूदा सांसद एसटी हसन का टिकट काट कर रुचि वीरा को उम्मीदवार बनाया है, जबकि यहां बसपा ने इरफान सैफी को टिकट दिया है.

रामपुर में आजम खान जेल में हैं. समाजवादी पार्टी ने यहां मौलाना मोहिबुल्लाह नदवी को टिकट दिया है, जबकि बसपा से जीशान खां मैदान में हैं. कई सीटों पर मुसलिम उम्मीदवारों के आमनेसामने होने की वजह से यह सवाल उठा है कि क्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश से एक बार फिर मुसलिम प्रतिनिधि चुन कर संसद पहुंच सकेंगे?

संसद में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व लगातार घटता जा रहा है, क्योंकि पिछले कुछ सालों में ऐसा माहौल बनाया गया है कि जहां कोई मुसलिम उम्मीदवार होता है, वहां सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की साजिश की जाती है. यह बड़ा सवाल है कि देश की एक बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व लगातार घट रहा है.

भारतीय जनता पार्टी नारा देती है कि ‘कांग्रेस मुक्त भारत’, लेकिन असल में इस का मतलब है ‘विपक्ष मुक्त भारत’ और ‘मुसलिम मुक्त विधायिका’. मुसलिम भाजपा की सोच से वाकिफ हैं. वे खामोश हैं, मगर उन की खामोशी का यह मतलब नहीं कि सरकार बनाने या बिगाड़ने में उस का रोल नहीं होगा.

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