कोरोना अवसाद और हमारी समझदारी

छत्तीसगढ़ सहित संपूर्ण देश में कोराना कोविड-19 से हालात बदतर होते दिखाई दे रहे हैं. छत्तीसगढ़ के भिलाई में एक कोरोना मरीज ने अवसाद में  आकर के आत्महत्या कर ली. इसी तरह एक युवती ने भी आर्थिक हालातों को देखते हुए  कोरोनावायरस पाज़िटिव होने के बाद आत्महत्या कर ली.

कोरोना के भयावह  हालात  की खबरें टीवी, सोशल मीडिया पर गैरजिम्मेदाराना रवैये के साथ  दिखाई जा रही है. जबकि इस सशक्त माध्यम का उपयोग लोगों को साहस बंधाने और जागरूक करने के लिए किया जा सकता है.

दरअसल, आत्महत्या की जो घटनाएं सामने आ रही है, उसका कारण है लोग अवसाद ग्रस्त हो ऐसे कदम उठा रहे हैं. जो समाज के लिए चिंता का सबब  है.

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इस समय में हमें किस तरह अवसाद से बचना हैऔर बचाना है और लोगों को अवसाद से निकालना है….  इस गंभीर मसले पर, इस रिपोर्ट में हम चर्चा कर रहे हैं.

कोरोना काल के इस संक्रमण कारी समय में देखा जा रहा है कि समस्या निरंतर गंभीर होती जा रही है. लॉकडाउन को ही लीजिए, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस तरह की पाबंदियां कोरोना- 2 के इस समय काल में लगाई गई हैं वैसी पिछली दफा नहीं थी. चिकित्सालय और सरकारी व्यवस्था भी धीरे धीरे तार तार होते दिखाई दे रहे हैं.

ऐसी परिस्थितियों में जब आज अमानवीयता का दौर है. हर एक जागरूक व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने आसपास सकारात्मक उर्जा का संचार करें और लोगों के लिए सहायक बन कर उदाहरण बन जाए.

यह घटना एक सबक है

छत्तीसगढ़ के इस्पात नगरी कहे जाने वाले भिलाई के एक अस्पताल में भर्ती कोरोना के एक मरीज ने अस्पताल की खिड़की से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली.

घटना भिलाई स्थित जामुल थाना क्षेत्र के अंतर्गत एक अस्पताल में घटित हुई. 14 अप्रैल 2021की बीती रात   अस्पताल के  कोविड मरीज ने “बीमारी” से तंग आकर आत्मघाती कदम उठा लिया. घटना की सूचना मिलते ही पुलिस मौके पर पहुंची और मामले की विवेचना कर रही है  जामुल पुलिस ने हमारे संवाददाता को बताया कि आत्महत्या करने वाला  शख्स जामुल के एक अस्पताल में 11 अप्रैल से भर्ती था.उसकी कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई थी और इलाज चल रहा था. मृतक का नाम ईश्वर विश्वकर्मा है और वह धमधा नगर का रहने वाला है. उसने  अपने वार्ड की खिड़की से छलांग लगाकर आत्महत्या कर ली. पुलिस ने बताया कि अस्पताल प्रबंधन से घटना की सूचना मिली. इसके बाद अस्पताल पहुंचकर मर्ग कायम कर स्वास्थ्य कर्मियों और डॉक्टर से पूछताछ जारी है.

जैसा कि हम जानते हैं ऐसे गंभीर आत्मघात  के मामलों में भी पुलिस की अपनी एक सीमा है. पुलिस औपचारिकता निभाते हुए मामले  की फाइल को आगे  बंद कर देगी. मगर विवेक शील समाज में यह प्रश्न तो उठना ही चाहिए कि आखिर ईश्वर विश्वकर्मा ने आत्महत्या क्यों की क्या ऐसे कारण थे जो उसे आत्म घाट का कदम उठाना पड़ा और ऐसा क्या हो आगामी समय में कोई कोरोना पेशेंट आत्महत्या न करें. समाज और सरकार दोनों की ही जिम्मेदारी है कि हम संवेदनशील हो और अपने आसपास सकारात्मक कार्य अवश्य करें, हो सकता है आप के इस कदम से किसी को संबल मिले और जीने का हौसला भी.

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मीडिया की ताकत को दिशा !

कोरोना कोविड19 के इस समय काल में देश का राष्ट्रीय और स्थानीय मीडिया चाहे वह इलेक्ट्रॉनिक हो अथवा प्रिंट मीडिया ऐसा प्रतीत होता है कि अपने दायित्व से पीछे हट गया है. अथवा वह भूल चुका है कि उसकी ताकत आखिर कहां है.

जिस तरह आज राष्ट्रीय और स्थानीय मीडिया में इस समय खबरें दिखाई जा रहे हैं… और हर पल बार-बार भयावह रूप में दिखाई जा रही है. जिसके कारण लोगों में एक भय का वातावरण निर्मित होता चला जा रहा है. मीडिया का यह परम कर्तव्य है कि खराब से खराब समय में भी अच्छाई को सामने लाते हुए उसे विस्तार से दिखाएं ताकि लोगों में जनचेतना जागता का वातावरण बने. हिंदी और तेलुगु कि कवि डॉक्टर टी. महादेव राव के मुताबिक पूर्व में मीडिया का ऐसा रुख नहीं था, आज मीडिया जिस तरह अपनी ताकत को भूल कर रास्ते से भटक गई है वह समाज के लिए गंभीर चिंता का विषय है. आज मीडिया को चाहिए कि वह लोगों में यह जागरूकता पैदा करें कि हम किस तरह इस महामारी से बच सकते हैं, इसकी जगह लोगों को मौत के आंकड़े और श्मशान घाट के भयावह हालत दिखाकर अखिर मीडिया कैसी भूमिका निभा रहा है.

चिकित्सक डॉक्टर जी आर पंजवानी के मुताबिक महामारी के इस समय में हम जितना हो सके बेहतर से बेहतर काम करें और लोगों को सकारात्मक ऊर्जा से भर दें यही हमारा प्रथम दायित्व होना चाहिए.

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Lockdown Returns: आखिर पिछले बुरे अनुभव से सरकार कुछ सीख क्यों नहीं रहीं?

भले अभी साल 2020 जैसी स्थितियां न पैदा हुई हों, सड़कों, बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों में भले अभी पिछले साल जैसी अफरा तफरी न दिख रही हो. लेकिन प्रवासी मजदूरों को न सिर्फ लाॅकडाउन की दोबारा से लगने की शंका ने परेशान कर रखा है बल्कि मुंबई और दिल्ली से देश के दूसरे हिस्सों की तरफ जाने वाली ट्रेनों में देखें तो तमाम कोविड प्रोटोकाॅल को तोड़ते हुए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी है. पिछले एक हफ्ते के अंदर गुड़गांव, दिल्ली, गाजियाबाद से ही करीब 20 हजार से ज्यादा मजदूर फिर से लाॅकडाउन लग जाने की आशंका के चलते अपने गांवों की तरफ कूच कर गये हैं. मुंबई, पुणे, लुधियाना और भोपाल से भी बड़े पैमाने पर मजदूरों का फिर से पलायन शुरु हो गया है. माना जा रहा है कि अभी तक यानी 1 अप्रैल से 10 अप्रैल 2021 के बीच मंुबई से बाहर करीब 3200 लोग गये हैं, जो कोरोना के पहले से सामान्य दिनों से कम, लेकिन कोरोना के बाद के दिनों से करीब 20 फीसदी ज्यादा है. इससे साफ पता चल रहा है कि मुंबई से पलायन शुरु हो गया है. सूरत, बड़ौदा और अहमदाबाद में आशंकाएं इससे कहीं ज्यादा गहरी हैं.

सवाल है जब पिछले साल का बेहद हृदयविदारक अनुभव सरकार के पास है तो फिर उस रोशनी में कोई सबक क्यों सीख रही? इस बार भी वैसी ही स्थितियां क्यों बनायी जा रही हैं? क्यों आगे आकर प्रधानमंत्री स्पष्टता के साथ यह नहीं कह रहे कि लाॅकडाउन नहीं लगेगा, चाहे प्रतिबंध और कितने ही कड़े क्यों न करने पड़ंे? लोगों को लगता है कि अब लाॅकडाउन लगना मुश्किल है, लेकिन जब महाराष्ट्र और दिल्ली के खुद मुख्यमंत्री कह रहे हों कि स्थितियां बिगड़ी तो इसके अलावा और कोई चारा नहीं हैं, तो फिर लोगों में दहशत क्यों न पैदा हो? जिस तरह पिछले साल लाॅकडाउन में प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा हुई थी, उसको देखते हुए क्यों न प्रवासी मजदूर डरें ?

पिछले साल इन दिनों लाखों की तादाद में प्रवासी मजदूर तपती धूप व गर्मी में भूखे-प्यासे पैदल ही अपने गांवों की तरफ भागे जा रहे थे, इनके हृदयविदारक पलायन की ये तस्वीरें अभी भी जहन से निकली नहीं हैं. पिछले साल मजदूरों ने लाॅकडाउन में क्या क्या नहीं झेला. ट्रेन की पटरियों में ही थककर सो जाने की निराशा से लेकर गाजर मूली की तरह कट जाने की हृदयविदारक हादसों का वह हिस्सा बनीं. हालांकि लग रहा था जिस तरह उन्होंने यह सब भुगता है, शायद कई सालों तक वापस शहर न आएं, लेकिन मजदूरों के पास इस तरह की सुविधा नहीं होती. यही वजह है कि दिसम्बर 2020 व जनवरी 2021 में शहरों में एक बार फिर से प्रवासी मजदूर लौटने लगे या इसके लिए विवश हो गये. लेकिन इतना जल्दी उन्हें अपना फैसला गलत लगने लगा है. एक बार फिर से वे पलायन के लिए विवश हो रहे हैं.

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प्रवासी मजदूरों के इस पलायन को हर हाल में रोकना होगा. अगर हम ऐसा नहीं कर पाये किसी भी वजह से तो चकनाचूर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना सालों के लिए मुश्किल हो जायेगा. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के अनुसार लगातार छह सप्ताह से कोविड-19 संक्रमण व मौतों में ग्लोबल वृद्धि हो रही है, पिछले 11 दिनों में पहले के मुकाबले 11 से 12 फीसदी मौतों में इजाफा हुआ है. नये कोरोना वायरस के नये स्ट्रेन से विश्व का कोई क्षेत्र नहीं बचा, जो इसकी चपेट में न आ गया हो. पहली लहर में जो कई देश इससे आंशिक रूप से बचे हुए थे, अब वहां भी इसका प्रकोप जबरदस्त रूप से बढ़ गया है, मसलन थाईलैंड और न्यूजीलैंड. भारत में भी केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के डाटा के अनुसार संक्रमण के एक्टिव केस लगभग 13 लाख हो गये हैं और कुछ दिनों से तो रोजाना ही संक्रमण के एक लाख से अधिक नये मामले सामने आ रहे हैं.

जिन देशों में टीकाकरण ने कुछ गति पकड़ी है, उनमें भी संक्रमण, अस्पतालों में भर्ती होने और मौतों का ग्राफ निरंतर ऊपर जा रहा है, इसलिए उन देशों में स्थितियां और चिंताजनक हैं जिनमें टीकाकरण अभी दूर का स्वप्न है. कोविड-19 संक्रमितों से अस्पताल इतने भर गये हैं कि अन्य रोगियों को जगह नहीं मिल पा रही है. साथ ही हिंदुस्तान में कई प्रांतों दुर्भाग्य से जो कि गैर भाजपा शासित हैं, वैक्सीन किल्लत झेल रहे हैं. हालांकि सरकार इस बात को मानने को तैयार नहीं. लेकिन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उधव ठाकरे तक सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि उनके यहां महज दो दिन के लिए वैक्सीन बची है और नया कोटा 15 के बाद जारी होगा.

हालांकि सरकार ने इस बीच न सिर्फ कोरोना वैक्सीनों के फिलहाल निर्यात पर रोक लगा दी है बल्कि कई ऐसी दूसरी सहायक दवाईयों पर भी निर्यात पर प्रतिबंध लग रहा है, जिनके बारे में समझा जाता है कि वे कोरोना से इलाज में सहायक हैं. हालांकि भारत में टीकाकरण शुरुआत के पहले 85 दिनों में 10 करोड़ लोगों को कोविड-19 के टीके लगाये गये हैं. लेकिन अभी भी 80 फीसदी भारतीयों को टीके की जद में लाने के लिए अगले साल जुलाई, अगस्त तक यह कवायद बिना रोक टोक के जारी रखनी पड़ेगी. हालांकि हमारे यहां कोरोना वैक्सीनों को लेकर चिंता की बात यह भी है कि टीकाकरण के बाद भी लोग न केवल संक्रमित हुए हैं बल्कि मर भी रहे हैं.

31 मार्च को नेशनल एईएफआई (एडवर्स इवेंट फोलोइंग इम्यूनाइजेश्न) कमेटी के समक्ष दिए गये प्रेजेंटेशन में कहा गया है कि उस समय तक टीकाकरण के बाद 180 मौतें हुईं, जिनमें से तीन-चैथाई मौतें शॉट लेने के तीन दिन के भीतर हुईं. बहरहाल, इस बढ़ती लहर को रोकने के लिए तीन टी (टेस्ट, ट्रैक, ट्रीट), सावधानी (मास्क, देह से दूरी व नियमित हाथ धोने) और टीकाकरण के अतिरिक्त जो तरीके अपनाये जा रहे हैं, उनमें धारा 144 (सार्वजनिक स्थलों पर चार या उससे अधिक व्यक्तियों का एकत्र न होना), नाईट कर्फ्यू सप्ताहांत पर लॉकडाउन, विवाह व मय्यतों में निर्धारित संख्या में लोगों की उपस्थिति, स्कूल व कॉलेजों को बंद करना आदि शामिल हैं. लेकिन खुद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन का बयान है कि नाईट कफर््यू से कोरोनावायरस नियंत्रित नहीं होता है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे ‘कोरोना कफर््यू’ का नाम दे रहे हैं ताकि लोग कोरोना से डरें व लापरवाह होना बंद करें (यह खैर अलग बहस है कि यही बात चुनावी रैलियों व रोड शो पर लागू नहीं है).

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महाराष्ट्र के स्वास्थ्य मंत्री राजेश टोपे का कहना है कि राज्य का स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर बेहतर करने के लिए दो या तीन सप्ताह का ‘पूर्ण लॉकडाउन’ बहुत आवश्यक है. जबकि डब्लूएचओ की प्रवक्ता डा. मार्गरेट हैरिस का कहना है कि कोविड-19 के नये वैरिएंटस और देशों व लोगों के लॉकडाउन से जल्द निकल आने की वजह से संक्रमण दर में वृद्धि हो रही है. दरअसल, नाईट कफर््यू व लॉकडाउन का भय ही प्रवासी मजदूरों को फिर से पलायन करने के लिए मजबूर कर रहा है. नया कोरोनावायरस महामारी को बेहतर स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर और मंत्रियों से लेकर आम नागरिक तक कोविड प्रोटोकॉल्स का पालन करने से ही नियंत्रित किया जा सकता है.

लेकिन सरकारें लोगों के मूवमेंट पर पाबंदी लगाकर इसे रोकना चाहती हैं, जोकि संभव नहीं है जैसा कि पिछले साल के असफल अनुभव से जाहिर है. अतार्किक पाबंदियों से कोविड तो नियंत्रित होता नहीं है, उल्टे गंभीर आर्थिक संकट उत्पन्न हो जाते हैं, खासकर गरीब व मध्यवर्ग के लिए. लॉकडाउन के पाखंड तो प्रवासी मजदूरों के लिए जुल्म हैं, क्रूर हैं. कार्यस्थलों के बंद हो जाने से गरीब प्रवासी मजदूरों का शहरों में रहना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाता है, खासकर इसलिए कि उनकी आय के स्रोत बंद हो जाते हैं और जिन ढाबों पर वह भोजन करते हैं उनके बंद होने से वह दाल-रोटी के लिए भी तरसने लगते हैं.

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