दिल्ली के पास बसा गुड़गांव देश का सब से अमीर इलाका है. यहां जाओ तो ऊंचेऊंचे शीशों से चमचमाते भवन हैं जिन में बड़ी गाडि़यों में आते लोग हैं, जो 100 रुपए की बोतल का पानी पीते हैं और एक खाने पर 1,000 रुपए खर्चते हैं. करोड़ों से कम के मकानों में ये लोग नहीं रहते. इन में कुछ मालिक, कुछ मैनेजर, कुछ एक नई किस्म के लोग कंसल्टैंट हैं. इन पर पैसा बरसता है. मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री इन्हें दिखा कर फूले नहीं समाते. हम अमेरिका, चीन से कोई कम थोड़े हैं.
इसी गुड़गांव में अप्रैल के पहले सप्ताह में एक गांव के पास बसी झुग्गियों की बस्ती में आग लग गई. कुछ ही देर में 700 घर जल गए. 1,000 से ज्यादा लोग बेघर हो गए. उन के कपड़े जल गए. घर का खाने का सामान जल गया. बरतन जल गए. जो रुपयापैसा रखा था वह जल गया. उन के सर्टिफिकेट, आधारकार्ड, पैनकार्ड, राशनकार्ड जल गए.
सवाल है कि उस शहर में जहां 30-30 मंजिले भवन हैं जो संगमरमर से चमचमा रहे हैं, वहां मजदूरों के लिए मैले से, बदबूदार ही सही, मधुमक्खियों के छत्तों की तरह भिनभिनाते ही सही, पर पक्के मकान क्यों नहीं बन सकते? देश की सरकारें मजदूरों के लिए हैं या मालिकों के लिए? मालिकों को, अमीरों को 5,000 गज, 10,000 गज, 20,000 गज के प्लाट दिए जा रहे हैं, मजदूरों को बसाने के लिए 20 गज के प्लाट या बने मकान भी दे नहीं सकती सरकारें. ऐसी सरकार किस काम की.
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राम मंदिर के नाम पर होहल्ला मचाया जा रहा है. अरबों रुपया जमा करा जा रहा है. मजदूरों के लिए क्यों नहीं? प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री हाईवे की बातें करते हैं जिन पर 50 लाख की गाडि़यां दौड़ती हैं, पर मजदूरों के मकानों की नहीं. हर शहर में कच्ची बस्तियां ही बस्तियां दिखती हैं. गांवों में 2000 साल पुरानी तकनीक के बने मकानों के नीचे बसे लोग दिखते हैं. एक फूस के छप्पर और उस पर तनी फटी हुई तिरपाल के नीचे घरौंदे बसे होते हैं.
देश के पास इतनी सीमेंट, ईंट, लोहा है कि दुनिया की सब से ऊंची मूर्ति ऐसे नेता की बनवाई जा सके जिस की पार्टी उस के मरने के 60 साल बाद बदलवा दी गई, पर उन लोगों के लिए 200 फुट के मकान के लिए सामान नहीं जो 60 साल से इंतजार कर रहे हैं और कांवड़ भी ढोते हैं, विधर्मी का सिर भी फोड़ते हैं कि भगवान खुश हो जाए.
हर देश का फर्ज है कि अपने सब से गरीब का भी खयाल रखे. हरेक को बराबर का सा मिले, यह तो शायद नहीं हो सकता पर हरेक को पक्की छत तो मिले ताकि बारिश, गरमी, रात और आग से तो बच सके. ये सरकारें कैसे चौड़ी सड़कों को बनवा डालने के इश्तिहार सारे देश में लगवा सकती हैं, जबकि आम मजदूर चाहे गांव का हो या शहर का पक्के मकान, पानी और सीवर से जुड़े शौचालय का हकदार नहीं है. यह कमजोरी उन अरब भर मजदूरों की है कि उन्होंने अपना आज और अपने बच्चों का कल ऐसे लोगों के हाथ गिरवी रख दिया है जो कभी संसद में, कभी विधानसभा में, कभी मंदिर में बैठ कर वादे करते हैं पर मलाई हजम कर के डकार भी नहीं लेते.
आम मजदूर तो जल रहा है, कभी आग में, कभी बेकारी में, कभी भूख में और कभी पुलिस के डंडों की मार से.