Health Problems: गांवों को बीमार करता फास्ट फूड

Health Problems: उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद के कुंदरकी थाना क्षेत्र के शेखपुरा गांव में हर साल की तरह इस साल भी फूलडोल मेला लगा. इस में शेखपुरा के अलावा आसपास के और भी कई गांवों वालों ने जम कर चाटपकौड़ी और फास्ट फूड का स्वाद लिया. पर इसी बीच कई लोगों की तबीयत खराब होने लगी.

गांव वालों के मुताबिक, फूड पौइजनिंग के चलते 100 से ज्यादा लोगों में उलटीदस्त और तेज बुखार की शिकायत देखी गई. सब का अस्पताल में इलाज चला.

ऐसा नहीं है कि फूड पौइजनिंग की यह कोई पहली घटना है, पर एक बात जरूर देखी गई है कि हाल के कुछ सालों में शहरों की तरह गांवदेहात में भी फास्ट फूड घुस चुका है. आप को स्कूलकालेज के बाहर सड़क किनारे और भीतर कैंटीन में भी चाऊमीन, मोमो, बर्गर, स्प्रिंग रोल्स जैसी खाने की तलीभुनी चीजों की भरमार दिख जाएगी.

जैसा कि नाम से ही जाहिर है, फास्ट फूड एक ऐसा भोजन है, जो जल्दी तैयार होता है. इस में आमतौर पर नमक, चीनी और वसा की मात्रा ज्यादा होती है, जबकि फाइबर, विटामिन और खनिज जैसे पोषक तत्त्व कम होते हैं.

अगर कम उम्र से ही इसे खाने की आदत पड़ जाए तो बच्चों और नौजवानों में भी मोटापा, दिल से जुड़ी बीमारियों और डायबिटीज के लक्षण दिखने लगते हैं, जो समय के साथसाथ घातक होते जाते हैं.

ऐसा नहीं है कि गांवदेहात में पहले तलीभुनी या ज्यादा चीनी और मैदा की बनी चीजों का सेवन नहीं किया जाता है. तकरीबन हर गांव के आसपास एक छोटे हलवाई की दुकान दिख ही जाती है, जिस में पकौड़ा, समोसा और मिठाई न बनती हो. पर हलवाई को अपना काम करने का सलीका आता है.

हलवाई को पता होता है कि मावा बनाने के लिए दूध कितना काढ़ना है, मिठाई में चीनी कितनी डालनी है और चूंकि सारा सामान उस की दुकान पर बनता है तो खरीदार को भरोसा होता है कि जो सामान वह खरीद रहा है, वह इतना घटिया क्वालिटी का नहीं होगा और ढंग से बनाया हुआ है.

इस के उलट ठेले पर फास्ट फूड बेचने वाले को बर्गर बनाने का सही तरीका आता हो, यह जरूरी नहीं. बहुत बार तो उसे यह भी नहीं पता होता है कि उस में सामान क्या डला है और वह कितना बासी है.

यही वजह है कि यहां बिकने वाले चाऊमीन, मंचूरियन, मोमो और स्प्रिंग रोल्स जैसे फास्ट फूड में खराब सब्जियों का जम कर इस्तेमाल हो रहा है. ग्राहक को इस बात का अंदाजा तक नहीं होता, क्योंकि मसालों और सौस के स्वाद से यह गंध और खराबी छिप जाती है.

ठेले पर चाऊमीन बनाने वाले बहुत से लोग तो यह भी नहीं जानते हैं कि वे जिन नूडल्स का इस्तेमाल कर रहे हैं, वे कितने दिन पुराने हैं. उन में नमक, सौस, सिरका कितनी मात्रा में डालना है, यह भी उन्हें जानकारी नहीं होती है.

चूंकि ठेले वगैरह पर बिकने वाला फास्ट फूड सस्ता होता है और जल्दी मिल जाता है, तो ग्राहक ज्यादा मीनमेख नहीं निकालता है, पर वह भूल जाता है कि यह उस की सेहत से सरेआम खिलवाड़ है.

फास्ट फूड के ज्यादा सेवन से लिवर में सूजन, गैस की शिकायत, छाती में जलन, छाले, पथरी वगैरह बीमारियां धीरेधीरे जन्म लेने लगती हैं.

हाल की एक स्टडी में पाया गया है कि नौजवानों में कैंसर के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. इस के एक प्रमुख कारक के रूप में फास्ट फूड के रोल पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है.

फास्ट फूड से नर्वस सिस्टम पर भी बुरा असर पड़ता है. इस से दिमाग की काम करने की ताकत कम होने से याददाश्त भी कमजोर होती है. सिरदर्द और डिप्रैशन की समस्या बढ़ सकती है.

सब से बड़ी कमी यह है कि गांवदेहात के बच्चे और नौजवान भी अब शारीरिक कामों से दूर रहने लगे हैं. उन के खेत में मजदूर होते हैं और घर के सारे काम बिजली की मदद से पूरे कर दिए जाते हैं. रोजाना कसरत न करने से भी वे मोटापे की समस्या से जूझ रहे हैं. इस पर फास्ट फूड का कहर उन्हें बीमारियों का घर बना देता है, जो बेहद चिंता की बात है. Health Problems

जब गांव की लड़की को हुई पहली माहवारी, फिर हुआ ये

पहली माहवारी हर लड़की के लिए बड़ी उलझन और मुश्किल भरी होती है. किसी के लिए दर्द बरदाश्त से बाहर होता है तो कोई इस से पूरी तरह से अनजान इस बात से डरी होती है कि कहीं उसे किसी तरह की चोट या बीमारी तो नहीं हो गई जो उस के साथ यह सब हो रहा है.

यह वह सोच है, जो माहवारी से जुड़ी हुई है और जो अकसर स्कूल की किताबों में बच्चे कैसे पैदा होते हैं वाले पाठ में लिखी मिलती है. गैरसरकारी संस्था वाले जब कोई जानकारी देने आते हैं, तो वे कुछ इसी तरह से बच्चों को माहवारी के बारे में समझाते हैं.

लेकिन, माहवारी की यह परिभाषा असल में जगह और संसाधनों या कहें सुखसुविधाओं की तर्ज पर दी जाए तो बेहतर रहेगा. पर क्यों? क्योंकि जिन लड़कियों को सैनेटरी पैड या एक साफ कपड़ा भी नहीं मिल पाता, उन के लिए महीने के वे 5 दिन किसी बुरे सपने से कम नहीं होते.

लेकिन अगर सुविधाएं हों और तब भी बहुत सी लड़कियों का मुंह बंद रख कर परेशानियों को झेलते रहना भी यह सोचने पर मजबूर करता है.

84 फीसदी लड़कियों को पहली माहवारी होती है तो पता नहीं होता कि क्या हो रहा है. 15 फीसदी लड़कियां ही सैनेटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं.

माहवारी को धर्म से भी जोड़ा जा चुका है. कहा जाता है कि जब इंद्र देवता ने ब्राह्मणों को मारा था और इंद्र का पाप औरतों ने अपने सिर ले लिया जो हर महीने आता है.

इस बेसिरपैर की कहानी की वजह से औरतों को माहवारी के दिनों में अछूत मान लिया जाता है.

पंडेपुजारी यह भी बता देते हैं कि गलत सोच के चलते हर महीने खून की शक्ल में निकलती है. इस तरह की बातें सुनसुन कर लड़कियां अपनेआप को पापिन समझती हैं.

माहवारी, जिसे अकसर लोग पीरियड्स, महीना या डेट कह कर पुकारते हैं, असल में वह मुद्दा है, जिस पर बात तो की जाने लगी है, लेकिन बात असल में किस तरह की और क्या बात होनी चाहिए, इस पर शायद ही कोई ध्यान देता है.

गांव और कसबों की लड़कियां शहरी लड़कियों से इस मामले में बहुत अलग हैं. हर लड़की ही इस मामले में बहुत अलग है, यह कहना ज्यादा बेहतर रहेगा. पहली माहवारी का दर्द, घबराहट, चिंता जैसी परेशानियां भी सब की एकजैसी नहीं होती हैं.

नाम दिया ‘लीच’ अलीगढ़ की रहने वाली खुशबू

16 साल की है. उस से यह सवाल पूछने पर कि जब उसे पहली बार माहवारी आई थी, तो उस ने क्या किया था, तो वह हंसते हुए कहती है, ‘‘इस में बताने वाला क्या है. सब के साथ एकजैसा ही होता है.’’

खुशबू पर थोड़ा जोर डाल कर पूछने पर उस ने आगे बताया, ‘‘दीदी, मुझे तो स्कूल में बता दिया गया था कि कैसे क्या होता है, तो मुझे तो सब पता था. मम्मी ने भी कहा था कि यह दिक्कत होती है लड़कियों को.

‘‘दिक्कत…?’’ मैं ने पूछा.

खुशबू फिर जोर से हंस कर कहने लगी और बोली, ‘‘हां, मतलब वही.

‘‘तुम पीरियड्स को क्या कहती हो?’’

‘‘दीदी, मैं अपनी सहेली को बुलाती हूं. वह आप को बता देगी अच्छे से,’’ कह कर खुशबू बगल के घर से अपनी सहेली रोली को बुला लाई.

‘‘हां, क्या बताना है?’’ रोली ने खुशबू की ही तरह हंसते हुए पूछा.

‘‘पहली माहवारी आई थी, तो क्या हुआ था?’’

यह सुनते ही रोली खिलखिला कर हंसने लगी, ‘‘मुझे तो मेरी चाची ने बताया था कि यह हो तो क्या होता है.’’

‘‘यह मतलब?’’ मैं ने एक बार फिर सवाल किया.

‘‘हां, मतलब यही,’’ कह कर वह हंस पड़ी.

‘‘तुम माहवारी को क्या कहती हो?’’

‘‘कहते तो हम लीच यानी जोंक हैं,’’ रोली ने कहा और यह बताए बिना कि असल में पहली बार माहवारी आई थी तो क्या हुआ था, खुशबू को देख हंसने दी.

इस के बाद वे सिर्फ हंस रही थीं और माहवारी के बारे में बात करने से कतरा रही थीं. यह कतराना, हंसना, मजाक बनाना वह समस्या है, जिस पर बात करने की जरूरत है. क्यों? क्योंकि इस हंसी के पीछे माहवारी लड़कियों के लिए माहमारी बन जाती है और इसी हंसी के पीछे दब कर रह जाती है.

चुप रहना पड़ा महंगा 8 महीने पहले इसी गांव की रहने वाली सुनीता को अनियमित माहवारी की समस्या हुई थी. उसे 2 महीने तक 13 दिन माहवारी हुई. उस ने अपनी मां को बताया तो उन्होंने समझाया कि शुरूशुरू में ऐसा होता है. पर कोई दिक्कत नहीं.

13 दिन पीरियड्स होने पर सुनीता ने सैनेटरी पैड का इस्तेमाल किया था, लेकिन बारबार ले कर कौन आता, इस उलझन में वह एक ही पैड पूरा दिन इस्तेमाल करती. इस वजह से उस की जांघों पर दाने निकल आए. उस ने मां से दानों का जिक्र किया तो उन्होंने उसे क्रीम लगा लेने के लिए कहा.

माहवारी तो नियमित हो गई, लेकिन दाने बढ़ते गए. एक जांघ से शुरू हुए दाने अब दोनों पर फैलने लगे. सुनीता और उस की मां दोनों को ही समझ नहीं आया कि जांघें दिखा कर तो दवा ले नहीं सकते और बोलने में भी उन्हें शर्म आ रही थी, तो सुनीता की मां ने अपने पति से कह कर फैल रहे दानों की दवा मंगाई. जांघ पर हुए ये दाने अब बड़ेबड़े निशान बनने लगे और सुनीता की जांघों की चमड़ी ढीली पड़ने लगी.

अगले महीने जब पीरियड आया, तो पैड या कपड़ा कुछ भी लगाने पर वह जांघों पर बुरी तरह चुभने लगा. इस के चलते ढीली पड़ी जांघ की चमड़ी पर गहरा कट लग गया. अब न सुनीता उठ पा रही थी, न चल पा रही थी. आखिरकार सुनीता ने भाई से फोन मांग कर जांघों का फोटो खींचा और डाक्टर के पास गई.

डाक्टर ने देखते ही बताया कि सुनीता की जांघों पर दाद हुआ है और जांघों की ढीली हुई चमड़ी जिस पर खिंचाव के निशान आ गए हैं, अब कभी ठीक नहीं होगी, ये निशान कभी नहीं जाएंगे.

जाहिर तौर पर दाद की वजह से सुनीता का माहवारी के समय सफाई न रखने पर इंफैक्शन की चपेट में आना था, जिस ने बाद में दाद का रूप ले लिया.

साफतौर पर लड़कियों के लिए बहुत जरूरी है कि वे इस बात को समझें कि पहली माहवारी के बारे में सीख लेना या जान लेना ही काफी नहीं है, बल्कि तीसरी, चौथी, 5वीं और हर एक माहवारी में यह ध्यान रखना जरूरी है कि साफसफाई जरूरी है.

पैड हो या कपड़ा समय पर बदलना जरूरी है. जिस तरह से खीखी और हंसीठिठोली में इस बारे में बात होती है, उसी तरह माहवारी से हो रही तमाम बीमारियों के बारे में खुल कर बोलना भी जरूरी है.

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