ब्रायलर की उन्नत नस्लों से अच्छा मुनाफा

लेखक-भानु प्रकाश राणा

इस प्रजाति के मुरगे (चूजे) व मुरगी अंडे से निकलने के बाद तकरीबन 40 ग्राम वजन के होते हैं जिन की सही प्रकार से देखरेख की जाए और उन्हें सही समय पर दानापानी दिया जाए तो वे 6 हफ्ते में तकरीबन 1.5 से 2 किलोग्राम वजन तक के हो जाते हैं.

ब्रायलरपालन करने से पहले इस के बारे में तकनीकी जानकारी जरूर ले लें और ब्रायलर की सही प्रजाति का चयन करें.

सीएआरआई द्वारा विकसित की गई ब्रायलर प्रजातियां

कैरी विशाल (सफेद ब्रायलर) : यह सफेद रंग की एक ऐसी ब्रायलर मुरगी प्रजाति है जो मांस गुणवत्ता के?क्षेत्र में अच्छी नस्ल साबित हो रही है.

इसे उष्णकटिबंधीय जलवायु के मुताबिक अच्छी खूबियों के साथसाथ रंगीन नस्ल वाली मुरगी के रूप में भी विकसित किया गया है. यह नस्ल भारतीय जलवायु और प्रबंधन स्थितियों के अनुरूप है और बेहतर बढ़ोतरी दर और रोग प्रतिरोधक क्षमता वाली नस्ल है.

उत्पादन की खासीयतें

* एक दिन के चूजे का वजन 43 ग्राम.

* 6 हफ्ते पर शरीर का?वजन 1650 से 1700 ग्राम तक.

* 7 हफ्ते पर शरीर का वजन 2100 से 2150 ग्राम तक.

कैरी धनराज (रंगीन ब्रायलर) : चमकदार, रंगीन एकल कलगी कैरी धनराज की खूबी है. अधिक वजनदार, अच्छी शारीरिक बनावट और उम्दा आहार इस की खास विशेषताएं?हैं. इस का मांस स्वादिष्ठ और अच्छी गुणवत्ता वाला है. अनेक रंगों में होने के कारण इन पक्षियों की मांग बाजार में बहुत ज्यादा है. इस से मुनाफा भी अच्छा मिलता है.

उत्पादन की खासीयतें

* एक दिन के चूजे का वजन 46 ग्राम.

* 6 हफ्ते पर शरीर का वजन

1500 से 1700 ग्राम.

* 7 हफ्ते पर शरीर का वजन

2000 से 2125 ग्राम.

इन नस्लों की अधिक जानकारी के लिए आप भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, केंद्रीय पक्षी अनुसंधान संस्थान, इज्जतनगर, उत्तर प्रदेश के इन फोन नंबरों 91-581-2300204, 2301220, 2303223 पर संपर्क कर सकते हैं.

गन्ना रस का कारोबार किसानों को मिले फायदा

लेखक- बृहस्पति कुमार पांडेय

गन्ने के रस को बेच कर इस कारोबार को करने वाले अच्छाखासा मुनाफा कमा रहे हैं. गन्ने के रस का कारोबार गरमियों में काफी मुनाफा देने वाला होता है क्योंकि गरमी से बेहाल व्यक्ति गन्ने के रस से न केवल अपनी प्यास बुझाना चाहता है, बल्कि यह सेहत के लिहाज से भी काफी अच्छा होता है.

ऐसे करें शुरुआत

अगर आप गन्ना किसान हैं और चीनी मिलों द्वारा भुगतान न किए जाने से परेशान हैं तो गन्ने के रस का कारोबार आप के लिए फायदेमंद साबित होगा. साथ ही, चीनी मिलों की अपेक्षा आप को ज्यादा मुनाफा भी मिलेगा.

अगर आप के पास खेती की जमीन नहीं?है या आप गन्ने की खेती नहीं करते हैं तब भी इस कारोबार को अपना सकते?हैं. इस के लिए या तो आप किराए की जमीन ले कर गन्ने की खेती कर सकते हैं या गन्ना किसानों से सीधे गन्ना खरीद कर गन्ने के रस का कामधंधा शुरू कर सकते हैं.

गन्ने के रस का काम शुरू करने के लिए जिन चीजों की जरूरत होती है, उन में छोटा इंजन, गन्ना पेराई के लिए छोटी गन्ना पेराई मशीन, कुछ बरतन, चाकू सहित अन्य छोटेमोटे सामान शामिल हैं.

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बस्ती जिले के गांव सबदेईया कला के बाशिंदे सुक्खू ने बताया कि गन्ने रस का कारोबार शुरू करने के लिए 50,000 रुपए से ले कर 1 लाख रुपए तक में सभी जरूरी चीजें आ जाती?हैं. लखनऊ और बाराबंकी जैसे शहरों में जुगाड़ वाहन सहित पूरी तरह से तैयार गन्ने का रस तैयार करने वाली मशीनें मिलती हैं.

 इसे हम दूसरे वाहनों की तरह चला

कर एक जगह से दूसरी जगह तक न केवल आसानी से ले जा सकते हैं, बल्कि मशीन को भी बारबार फिट करने की परेशानी से नजात मिल जाती है. गन्ने से रस निकालने वाली ये मशीनें औनलाइन भी खरीदी जा सकती हैं.

सुक्खू ने आगे बताया कि गन्ने की मशीन के अलावा जिन चीजों की हमें रोज जरूरत होती है, उन में गन्ने के रस की मांग के मुताबिक गन्ना, काला नमक, नीबू, पुदीना, बर्फ के?टुकड़े, कांच, प्लास्टिक व कागज के गिलास शामिल हैं.

गन्ने के रस को मशीन से निकालते समय नीबू और पुदीना की पेराई भी कर ली जाती है, जिस से रस का स्वाद बढ़ जाता है.

क्वालिटी का रखेंगे खयाल तो हो सकते हैं मालामाल

खानेपीने की किसी भी चीज की साफसफाई व बेहतर क्वालिटी न केवल मांग बढ़ाती है, बल्कि ग्राहक अच्छी कीमत देने से भी नहीं हिचकता है इसलिए गन्ने का रस निकालते समय उस की क्वालिटी का खयाल जरूर रखें.

इस के लिए सब से पहले गन्ने से शुरुआत करनी होगी, जब आप खेत से गन्ने की कटाई कर लें तो गन्ने के?ऊपरी हिस्से को खूब अच्छी तरह से छील दें और साफ पानी में अच्छी तरह से धो लें.

यह भी कोशिश करें कि गन्ना खेत से ताजा काटा गया हो या जितनी मात्रा में गन्ने की जरूरत हो उतनी ही गन्ने की कटाई करें, क्योंकि कई दिनों के कटे गए गन्ने का?स्वाद खराब होने लगता है.

जहां पर आप अपने गन्ने की दुकान या ठेला लगाते हैं, वहां की साफसफाई का भी खयाल रखें. गन्ने की पेराई के दौरान मीठे की वजह से अकसर मक्खियां जमा होने लगती हैं ऐसे में इन की रोकथाम के लिए धूपबत्ती वगैरह का धुआं भी कर सकते हैं.

जब आप गन्ने का रस निकाल रहे हों तो आप अपने हाथों को साफसुथरा रखें. अगर हो सके तो प्लास्टिक की पन्नी के दस्ताने पहन लें. आप जिन गिलासों का इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें हमेशा साफ रखें, क्योंकि गंदगी देख कर ग्राहक दूर?भागने लगते हैं.

गन्ने के रस को पैक करने की सामग्री भी हमेशा अपनी ठेली में साथ रखें. आप की यह सावधानी ग्राहकों को आप की दुकान की ओर आकर्षित करने में बेहद मददगार साबित हो सकती है जिस से आप को रोज का मुनाफा भी ज्यादा हो सकता है. आप के गन्ने की रस की क्वालिटी आप के नियमित ग्राहकों की तादाद में इजाफा करने के लिए काफी है.

चीनी मिलों के बंद होने पर किसानों को मिला सहारा

वैसे भी लोगों की जिंदगी में मिठास घोलने वाले देश में कई हिस्सों के गन्ना किसानों की हालत किसी से छिपी नहीं है. किसान चीनी मिलों को अपना गन्ना बेच कर खुद के फसल के?भुगतान के लिए धरनाप्रदर्शन कर रहे हैं, पुलिस की लाठियां खा रहे हैं और सरकार किसानों की सुनने के बजाय मिल मालिकों को संरक्षण देने में लगी है. ऐसे में किसान या तो गन्ने की खेती छोड़ दूसरी फसलों की तरफ मुड़ रहे हैं या गन्ने से जुड़े व्यवसाय का दूसरा विकल्प खोज रहे हैं.

चूंकि गन्ने की फसल नकदी फसलों में गिनी जाती?है, ऐसे में जो किसान गन्ने की फसल लेते रहे हैं, उन्हीं में से कुछ किसानों ने चीनी मीलों के ऊपर निर्भरता को कम कर खुद का काम शुरू करने की ठानी है, जो बेहद कामयाब रहे हैं.

उत्तर प्रदेश का बस्ती जिला गन्ने की खेती का मुख्य केंद्र है. यहां पर कुल 5 चीनी मिलें थीं, जिस में से एकएक कर 3 मिलें बंद होती गईं. इस से यहां के किसानों के बेचे गए गन्ने का?भुगतान भी फंस गया.

ऐसे में कई किसानों ने तो गन्ने की खेती से तोबा कर ली. लेकिन कुछ किसान ऐसे भी थे, जिन्होंने हार नहीं मानी और न ही गन्ने की खेती से मुंह मोड़ा बल्कि इन किसानों ने बोए गए गन्ने से खुद के व्यवसाय शुरू किए जाने का निर्णय लिया और हाटबाजारों के साथ मुख्य रास्तों पर गन्ने के रस की ठेली लगाना शुरू किया. इस का नतीजा यह रहा कि इन किसानों को चीनी मिलों की अपेक्षा तिगुनाचौगुना ज्यादा मुनाफा मिलने लगा.

ऐसे ही किसानों में शुमार बस्ती जिले के बाशिंदे गणेश बाहर रह कर नौकरी करते थे. लेकिन चीनी मिलों के बंद होने पर उन के परिवार में गन्ने की फसल नष्ट किए जाने की नौबत आ गई. ऐसे में वे बाहर से अपने गांव पापस आ गए और उन्होंने मजदूरी से बचाए गए पैसे से गन्ने का रस निकालने वाली एक ठेली और मशीन खरीदी. यह ठेली उन्हें लखनऊ से मिली जो जुगाड़ वाहन पर सैट थी. इसे एक जगह से दूसरी जगह ले जाना भी आसान हो गया.

गणेश ने पहली बार बस्तीगोरखपुर राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे पेड़ों के नीचे अपनी ठेली लगानी शुरू की. देखते ही देखते दुकान चल निकली और उन्हें एक दिन में 1,500 से 2,000 रुपए की आमदनी होने लगी.

गणेश पिछले 3 सालों से?ठेली लगा रहे हैं. अब उन की 4 दुकानें एक ही जगह पर लगती हैं जिस में उन के परिवार के बाकी सदस्यों के साथ ही दूसरे लोगों को भी रोजगार मिला है.

गांव सबदेईया कला के सुक्खू अपने बेटे भीम के साथ मिल कर गन्ना रस का कारोबार कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि वे?ठेली पर गन्ना पेरने की मशीन को छोटे इंजन के साथ फिट करा कर यह काम कर रहे?हैं. इस पर तकरीबन 50,000 रुपए का खर्चा आया था. एक दिन में वे बड़ी आसानी से 1,000 रुपए तक मुनाफा कमा लेते हैं.

बस्ती जिले के महसिन गांव के बृजभूषण मौर्या ने बताया कि वह पिछले 2 सालों से गन्ने के रस की ठेली लगा रहे हैं. मशीनें उन्होंने लखनऊ से खरीदी थीं जो उन्हें जुगाड़ वाहन पर सैट कर के मिली थीं.

सुक्खू ने बताया कि वे खुद खेतों के अलावा किराए पर भी खेत ले कर गन्ने की खेती करते हैं जिस से उन्हें हर समय ताजा गन्ना मिलता?है. साथ ही, लागत में भी कमी आ जाती?है.

कई लोग गन्ने का रस कोल्ड ड्रिंक की अपेक्षा ज्यादा पसंद करने लगे हैं. लेकिन साल के कुछ ही महीने यानी सर्दियों में इस?व्यवसाय को बंद रखना पड़ता है. इस दौरान वे अपने गन्ने के खेत की देखभाल करते हैं, जिस से उत्पादन अच्छा मिले.

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बस्ती जिले के दसैती गांव के राम अधीन पिछले 4 साल से गन्ने के रस का कारोबार कर रहे?हैं. जब चीनी मिलों ने किसानों से मुंह मोड़ लिया, ऐसे में उन्होंने गन्ने की खेती छोड़ने

के बजाय गन्ने के रस की?ठेली लगाना शुरू कर दिया. उन्होंने तब 80,000 रुपए से इस?व्यवसाय को शुरू किया था.

राम अधीन ने बताया कि आप जब भी गन्ने के रस का व्यवसाय शुरू करें, तो इस के लिए सब से पहले ऐसी जगह को चुनें जहां ज्यादा भीड़ होती हो या जिन रास्तों से लोगों का आनाजाना ज्यादा होता हो. आप इस के लिए स्कूल, कालेज, सरकारी दफ्तरों के नजदीक भी अपनी दुकान लगा सकते हैं क्योंकि ऐसी जगहों पर आप को ग्राहक अच्छी तादाद में मिल जाते हैं.

गन्ने के रस के व्यवसाय का ही कमाल था कि किसानों के परिवारों के जो नौजवान खेती से मुंह मोड़ कर रोजगार की तलाश में दूसरे शहरों में जा चुके थे, वही नौजवान वर्तमान में अपने परिवार के साथ गन्ने की खेती के साथसाथ गन्ने के रस के?व्यवसाय में हाथ बंटा रहे?हैं. इन में भीम, बृजभूषण मौर्या, गणेश कोल्हुआ, चंद्रेश जैसे तमाम नाम शामिल हैं.

रोजगार देने में मददगार

अगर आप गन्ने के रस का व्यवसाय करते हैं तो इस से आप को ही नहीं, बल्कि दूसरे लोगों के लिए भी रोजगार का रास्ता खोल सकता है क्योंकि गन्ने की कटाई, सफाई के साथ ही अगर आप ठेली या दुकान लगाते?हैं तो वहां भी आप को किसी मददगार की जरूरत पड़ती है.

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ये लोग आप के परिवार के लोग भी हो सकते हैं या गांव के बेरोजगार या अन्य कोई. अगर आप के पास गन्ने के रस का?व्यवसाय शुरू करने के लिए शुरुआती पूंजी नहीं है तो आप किराए पर भी ठेली ले सकते?हैं. ऐसे तमाम लोग?हैं जो गन्ने का रस निकालने वाली मशीनों को किराए पर उठाते?हैं. इन मशीनों का आप को हर रोज का बंधा किराया देना होता है.

गरमी में पशुओं को खिलाएं हरा चारा

लेखक-  डा. प्रमोद प्रभाकर, डा. मनोज कुमार भारती

भारत कृषि प्रधान देश है. इस में पशुपालन कृषि उत्पादन प्रक्रिया में सहभागी है. हमारा देश दुनियाभर में दूध उत्पादन के मामले में अव्वल है. यह वैज्ञानिकों और किसानों की कड़ी मेहनत का ही नतीजा है.

पशुओं के रखरखाव में अकसर 60-65 फीसदी खर्च पालनेपोसने पर ही आता?है. देश में साल में 2 बार हरे चारे की तंगी या कमी के मौके आते हैं, अप्रैलजून और नवंबरदिसंबर. पशुपालक गरमी में मक्का, लोबिया ज्वार, बाजरा वगैरह वैज्ञानिक विधि से उगा कर कम लागत में ज्यादा पैदावार ले सकते हैं. दलहनी चारे अधिक पौष्टिक होते?हैं, पर उन्हें ज्यादा नहीं खिलाना चाहिए क्योंकि इस से पशुओं में पेट फूलना या अफरा रोग हो जाता है.

पशुपालक एक दलहनी व गैरदलहनी वाली फसलों को मिला कर के अपने खेतों पर लगाएं. इस प्रकार के हरे चारे को पशुओं को खिलाने से पशुओं को कार्बोहाइड्रेट के साथसाथ प्रोटीन की आपूर्ति भी होती है. साथ ही, पशुओं की अच्छी बढ़ोतरी होने के साथसाथ दूध भी बढ़ जाता है.

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जलवायु : ज्यादा हरा चारा हासिल करने के लिए पानी, हवा, सूरज की रोशनी और माकूल जलवायु की जरूरत होती है. सफल उत्पादन मौसम की अनुकूल व प्रतिकूल दोनों ही दशाओं पर निर्भर करता है. आमतौर पर 25-30 डिगरी सैल्सियस तापमान मक्का, ज्वार, बाजरा, लोबिया वगैरह के लिए उपयुक्त रहता है.

जमीन की तैयारी : सही जल निकास वाली दोमट या रेतीली मिट्टी इस की पैदावार के लिए सही रहती है. साथ ही, जमीन समतल होनी चाहिए. एक जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें व 2-3 गहरी जुताइयां देशी हल या कल्टीवेटर से करने के बाद जमीन को समतल कर लें.

बीज बोने का समय : चारे की फसल लाइन में करें. छोटे आकार के बीज जैसे बाजरा वगैरह की बोआई छिटकवां विधि से भी कर सकते हैं. चारा फसलों की बोआई मार्च से जुलाई माह तक कर सकते?हैं.

फसल मिश्रण : चारे की फसल बोने पर साधारण बीज दर प्रति हेक्टेयर आधी कर देनी चाहिए. दलहनी व गैरदलहनी फसलों का ही मिश्रण बना कर पशुपालक उगाएं. इस से ज्यादा पैदावार होने के साथसाथ जमीन की उर्वराशक्ति भी बढ़ जाती है जैसे मक्का लोबिया, ज्वार, ग्वार वगैरह.

सिंचाई : गरमी में 10-15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करते रहने से चारे की बढ़वार अच्छी होती है. बारिश में जरूरत पड़ने पर ही सिंचाई करें.

खाद व उर्वरक डालने की विधि : आमतौर पर मिट्टी जांच के आधार पर ही खाद और उर्वरक डालें. 250-300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद जुताई के समय खेत में?ठीक से मिलाएं. फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा खड़ी फसल में डालें.

कटाई : एक काट वाली फसलों की कटाई 55-60 दिनों के बाद करें यानी फूल बनते समय कटाई करें जिस से अधिकतम पोषक तत्त्वों का फायदा मिल सके.

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कई काट वाली फसलें जैसे ज्वार की पहली कटाई 35-40 दिन के बाद करें और बाद की कटाइयां 20-22 दिन बाद करें. काट वाली फसलों की कटाई जमीन से 5-7 सैंटीमीटर ऊपर से करनी चाहिए, जिस से जल्दी बढ़वार हो सके.

मुख्य चारा फसलों की जानकारी : गैरदलहनी फसलों में मक्का, ज्वार, बाजरा हैं व दलहनी फसलों में लोबिया, ग्वार का हरा चारा मिला कर खिलाने से पशु का दूध उत्पादन गरमी में कम नहीं होगा. साथ ही, पशु की प्रजनन क्षमता में भी सुधार होगा. इस तरह पशुपालक कम खर्च कर के ज्यादा आमदनी हासिल कर सकेंगे.

बंजर भूमि में गेंदा उगाएं

लेखक- ललित वर्मा

वैसे, बंजर जमीन में हैवी मैटल्स जैसे कैल्शियम, जस्ता, क्रोमियम आर्सेनिक, सीसा वगैरह पाए जाते हैं जो मानव शरीर में विभिन्न रोगों को पैदा करने की विशेष कूवत रखते हैं. डाक्टर शिखा सक्सेना ने ऐसी बंजर जमीन में जिस में आर्सेनिक व सीसा जैसे हैवी मैटल्स मौजूद थे, उस में गेंदा उगा कर पीएचडी की डिगरी हासिल की है. इस का दूसरा प्रमुख फायदा यह होता है कि जमीन में सुधार होता है,क्योंकि गेंदे की फसल बंजर जमीन के आर्सेनिक व सीसा को सोख लेती?है. गेंदा उगाने की वैज्ञानिक विधि सीख कर किसान अपनी बंजर जमीन में गेंदा की फसल उगा कर फायदा ले सकते हैं.

खेत की तैयारी : पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें. उस के बाद 2 जूताई हैरो या कल्टीवेटर से आरपार करें. यदि खेत में भूमिगत कीटों की समस्या हो तो 50 किलोग्राम नीम की खली खेत में जरूर डालें. आखिरी जुताई के बाद पाटा जरूर लगाएं. खेत के चारों ओर मेंड़ जरूर बनाएं ताकि बारिश का पानी जमीन द्वारा सोख लिया जाए.

खाद और उर्वरक : पौधों से अधिक पुष्प उत्पादन के लिए मिट्टी जांच के मुताबिक ही खाद व उर्वरकों का इस्तेमाल करना चाहिए. यदि किसी कारणवश मिट्टी जांच न हो सके तो उस स्थिति में गोबर की खाद व उर्वरकों का इस्तेमाल इस तरह करना चाहिए:

गोबर की खाद 10-15 टन, नाइट्रोजन 120 किलोग्राम, फास्फोरस 80 किलोग्राम, पोटाश 80 किलोग्राम.

गोबर की खाद को पहली जुताई से पहले ही खेत में बिखेर देना चाहिए. साथ ही, फास्फोरस, पोटाश की पूरी मात्रा और नाइट्रोजन की आधी मात्रा का मिश्रण बना कर आखिरी जुताई के समय जमीन में डालनी चाहिए. नाइट्रोजन की बाकी बची मात्रा को 2 भागों में विभाजित कर के डालना चाहिए. पहली खुराक रोपाई के 20 दिन बाद और दूसरी खुराक रोपाई के 40 दिन बाद देनी चाहिए.

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पौधों की अधिक बढ़ोतरी

व फूलों की अच्छी उपज के लिए वानस्पतिक बढ़ोतरी के समय 15 दिनों के अंतराल पर 0.2 फीसदी यूरिया के 2 पर्णीय छिड़काव करने चाहिए.

प्रवर्धन : आमतौर पर किसान गेंदे को बीज द्वारा प्रवर्धित करते हैं क्योंकि बीज द्वारा प्रवर्धित पौधे प्रबल, सेहतमंद होते हैं और खेत में अच्छी तरह जम जाते हैं. बढ़ोतरी व पुष्पण में एकरूपता लाने के लिए कुछ किसान इसे कलमों द्वारा भी प्रवर्धित करते हैं.

बीज प्रवर्धन : गेंदे के बीज आमतौर पर 18-30 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान पर अंकुरित होते हैं. नर्सरी की क्यारियों में गोबर की खाद डाल कर भलीभांति मिला देनी चाहिए. नर्सरी की क्यारी सुविधाजनक आकार की बनानी चाहिए. एक हेक्टेयर के लिए रोपाई तैयार करने के लिए 800 ग्राम बीज पर्याप्त हैं.

नर्सरी में बोने से पहले बीज को कैप्टाफ या बाविस्टिन से 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए ताकि फसल की फफूंदीजनित रोगों से सुरक्षा हो सके. बीज बोने के बाद उन्हें गोबर की खाद की पतली परत से ढक देना चाहिए. इस के बाद हर रोज केन के द्वारा हलका पानी दिया जाना चाहिए.

साल में 3 बाद गेंदे की फसल उगाई जा सकती है. ग्रीष्मकालीन फसल के लिए जनवरी के मध्य से फरवरी के मध्य तक नर्सरी में बोआई की जा सकती है. शरदकालीन फसल के लिए सितंबर के मध्य से अक्तूबर के मध्य तक बोआई की जा सकती है, जबकि बारिश की फसल के लिए मध्य जून से मध्य जुलाई तक बोआई की जा सकती है.

नर्सरी में बीज बोने के 25-30 दिन बाद पौध रोपाई के लिए तैयार हो जाती है.

कलमों द्वारा प्रवर्धन : पैतृक समरूप पौधों के उत्पादन के लिए गेंदे की कलमों द्वारा भी प्रवर्धित किया जा सकता है. कलमें 6-10 सैंटीमीटर लंबाई की होनी चाहिए.

पौध रोपण : रोपाई के समय पौध सेहतमंद हो, 6-10 सैंटीमीटर लंबी और 3-4 लाइनों वाली होनी चाहिए. गेंदे की प्रजाति के मुताबिक लाइन व पौध की दूरी 30 से 45 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. यह दूरी व्यावसायिक खेती के लिए बेहतर पाई गई है.

उन्नत किस्में ही उगाएं : गेंदे की अनेक किस्में उपलब्ध हैं, जो पौधों की ऊंचाई, विकास की आदत, पुष्प की आकृति और आकार में भिन्न होती हैं. ज्यादातर किसान गेंदे की लोकल किस्मों की खेती करते?हैं, जिस की वजह से उन्हें निम्न गुणवत्ता वाली कम उपज हासिल होती है, इसलिए उन्हें उन्नत किस्में ही उगानी चाहिए.

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भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली और दूसरे संस्थानों द्वारा गेंदे की व्यावसायिक खेती के लिए निम्नलिखित अच्छी उपज देने वाली किस्में विकसित की गई हैं:

शीर्ष कर्तन: गेंदे के पौधों में शीर्ष कर्तन कक्षवर्ती शाखाओं को प्रोत्साहित करने के लिए किया जाता है, ताकि फूलों की तादाद व उत्पादन को बढ़ाया जा सके. पर ज्यादातर किसान इस काम को नहीं करते हैं. ज्यादा उत्पादन हासिल करने के लिए गेंदे की दोनों प्रजातियों का शीर्ष कर्तन अवश्य करना चाहिए.

अफ्रीकन गेंदे की शिखाग्र वर्चस्व के कारण पौधे बहुत कम शाखाओं के साथ लंबे व दुबले हो जाते हैं. ऐसे पौधे ढह जाने के लिए संवेदनशील होते हैं और पुष्प उत्पादन कम हो जाता है, इसलिए शीर्ष कर्तन जरूर करना चाहिए ताकि उच्च उपज मिल सके.

शीर्ष कर्तन पुष्पण को थोड़ा बिलवित करता है, पर पुष्प उत्पादन में सुधार होता है. रोपाई के 40 दिन बाद शीर्ष कर्तन करना एक समान पुष्पण व उपज के लिए सर्वोत्तम पाया गया है. फ्रैंच गेंदे में शीर्ष कर्तन की जरूरत नहीं होती है.

सिंचाई व जल निकास

अच्छी बढ़वार और पुष्पण के सभी चरणों के दौरान जमीन में सही नमी रखना बहुत जरूरी?है क्योंकि नमी की कमी में पौधे सूख जाते हैं और फलियां भी ठीक से पनप नहीं पाती हैं.

गेंदे की प्रजातियां मिट्टी व मौसम पर निर्भर करती हैं. गरमी में गरम हवाएं पौधे के सूखने की अहम वजह मानी जाती हैं इसलिए पौधों को वायुमंडलीय परिस्थितियों के मुताबिक सिंचित किया जाना चाहिए.

सर्दियों में फसल को 6-10 दिनों के अंतराल पर सिंचाई की जरूरत होती है, जबकि बारिश में फसल में सिंचाई बारिश के ऊपर निर्भर करती है. यदि काफी लंबे समय तक बरसात न हो तो जरूरत के मुताबिक खेत में सिंचाई करनी चाहिए.

यदि किसी कारणवश गेंदे की फसल में फालतू पानी जमा हो जाए तो उसे तुरंत निकालने की व्यवस्था करनी चाहिए अन्यथा फसल के मरने की आशंका रहती है.

पौध संरक्षण उपाय

खरपतवार नियंत्रण : गेंदे की फसल में विभिन्न प्रकार के खरपतवार उग आते हैं, जो फसल के साथ नमी व पोषक तत्त्वों के लिए होड़ करते हैं. इस के चलते फसल की बढ़वार, विकास व उत्पादन पर बुरा असर पड़ता है इसलिए उन की रोकथाम के लिए जरूरत के मुताबिक निराईगुड़ाई करनी चाहिए. पूरी फसल के दौरान 5-6 बार निराईगुड़ाई की जरूरत होती है.

कीट नियंत्रण

लाल मकड़ी घुन : यह कीट पुराने पौधों पर हमला करता है. इस के चलते रोगग्रस्त पौधे धूलमय यानी झिल्लीदार दिखाई देते हैं. इस कीट की रोकथाम के लिए डायकोफोल के 0.1 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.

पत्ता कुदकड : यह कीट पत्तियों और तनों का रस चूसता है, जिस के चलते संक्रमित भाग कुपोषित या लटकते हुए दिखाई देते हैं. इस कीट की रोकथाम के लिए मेटासिस्टाक्स के 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.

बालों वाली सूंड़ी : गेंदे की शुरुआती अवस्था में यह सूंड़ी पत्तों को खाती?है और बाद में पुष्प वृंतों के अर-पुष्पकों को खा कर नुकसान पहुंचाती है. इस कीट की रोकथाम के लिए नुवान के 0.2 फीसदी घोल का पर्णीय छिड़काव करना चाहिए.

रोग नियंत्रण

पौध विगलन : यह एक फफूंदीजनित रोग है. इस के चलते पत्तियों के रोग छिद्रों पर भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं, जिस से अंकुर मुरझा जाते हैं, उदय के बाद अंकुरों के कौलर पर भूरे रंग के विगलित धब्बे एक विकराल रूप ले लेते हैं जो नर्सरी के पतन का कारण बनते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए बाविस्टिन के 0.2 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.

पुष्पकलिका विगलन : यह भी एक फफूंदीजनित रोग है. इस रोग की शुरुआती अवस्था में पुष्प क्रम या युवा कलिकाओं पर प्रकट होता है. गंभीर संक्रमण की अवस्था में कलियां सूखी व सड़ी हुई दिखाई देती हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए डाइथेन एम 45 के 0.3 फीसदी घोल का छिड़काव करना चाहिए.

जड़ तालन : यह रोग कई प्रकार की फफूंदियों (राइजोक्टोनिया सोलानी, स्क्लेरोसियम रोल्फ साई, पिथियम ओल्टिमम, फाइटोप्थोरा क्रिप्टोजिया) द्वारा फैलता?है. जड़ में रोग का पहला लक्षण दिखाई देते ही जड़ सड़ जाती है, पत्तियां झड़ जाती हैं और बाद में पौधा मर जाता है. इस रोग की रोकथाम के लिए कार्बंडाजिम और मेटालाक्सिल से मिट्टी को उपचारित करना चाहिए.

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फूलों की तुड़ाई : गेंदे के फूलों की तुड़ाई सही समय पर करना बेहद जरूरी?है. फूलों की तोड़ाई उस समय करनी चाहिए जब वे पूरी तरह से खिल जाएं.

तुड़ाई के बाद प्रौद्योगिकी

* पूरी तरह विकसित फूलों की सुबहशाम को ही तुड़ाई करें.

* तुड़ाई के बाद फूलों को कुछ समय के लिए पानी में डालें.

* तुड़ाई के बाद फूलों को जरूरत के मुताबिक छोटीबड़ी टोकरियों में रखें या पानी सूखने के बाद फूलों को 200 ग्राम कूवत वाली पौलीथिन की थैलियों में पैक करें.

* 1-2 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान व 80-90 फीसदी नमी होने पर ही भंडारित करें.

उपज

गेंदे की उपज कई बातों पर निर्भर करती?है जिन में जमीन की उर्वराशक्ति, उगाई जाने वाली किस्म और फसल की सही देखभाल प्रमुख?हैं. यदि बताई गई विधि से गेंदे की खेती की जाए तो प्रति हेक्टेयर 8-10 क्विंटल ताजा फूल मिल जाते हैं.

ऐसे करें तिल की खेती

लेखक-बृहस्पति कुमार पांडेय

खरीफ का मौसम तिलहन की खेती के लिए विशेष महत्त्व रखता है. इस में मूंगफली, सोयाबीन व तिल की खेती का खास स्थान है. इस सीजन में बोई जाने वाली तिलहन फसलों का खाने के तेल के अलावा और भी कई तरीकों से प्रयोग किया जाता है. मूंगफली को भून कर खाने के अलावा या उस के दानों का विभिन्न मिठाइयों में प्रयोग किया जाता है. इसी तरह सोयाबीन को सब्जी या आटे के रूप में प्रयोग किया जाता है.

लेकिन इन सभी तिलहन वाली फसलों में तिल की खेती का खास महत्त्व है. तिल से न केवल तेल निकाला जाता है, बल्कि इस से भी कई तरह की मिठाइयां बनाई जाती हैं. तिल की 2 प्रजातियां होती हैं, काला तिल व सफेद तिल. तिल का प्रयोग विभिन्न त्योहारों में भी किया जाता है. यह खासा महंगा भी होता है.

खरीफ सीजन की सब से खास तिलहनी फसल के रूप में तिल की बोआई बलुई, बलुई दोमट व मैदानी इलाकों की मिट्टी में आसानी से की जा सकती है. उत्तर प्रदेश के मैदानी इलाकों में तिल की बोआई अकसर सहफसली खेती के रूप में अरहर, ज्वार या बाजरा के साथ भी की जाती है.

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तिल की बोआई से पहले खेत की 2 बार जुताई कल्टीवेटर या रोटावेटर से कर देनी चाहिए, जिस से खेत के खरपतवार नष्ट हो जाएं. इस के बाद जून के दूसरे सप्ताह में जुताई किए गए खेत में गोबर की खाद मिट्टी में मिला देनी चाहिए. फिर जून के आखिरी हफ्ते से जुलाई के आखिरी हफ्ते के बीच में तिल के 3 से 4 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से 200 ग्राम कार्बंडाजिम या 50 ग्राम थीरम से उपचारित कर के बोआई करनी चाहिए. बोआई के समय यह ध्यान देना चाहिए कि बीज ज्यादा गहराई में न जाने पाए.

उर्वरकों का इस्तेमाल : तिल की खेती में उर्वरकों का इस्तेमाल करने से पहले किसानों को मिट्टी जांच जरूर करा लेनी चाहिए. इस से फसल में खादों की संतुलित मात्रा का इस्तेमाल करने में आसानी होती है.

वैसे, तिल की बोआई के समय 30 किलोग्राम नाइट्रोजन, 15 किलोग्राम फास्फोरस व 12.50 किलोग्राम गंधक का प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए. निराईगुड़ाई के समय 12.50 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिए. अगर तिल की खेती राकड (बंजर) जमीन में की गई हो तो 15 किलोग्राम पोटाश की मात्रा का प्रयोग भी प्रति हेक्टेयर की दर से करना चाहिए.

निराईगुड़ाई व सिंचाई : तिल की फसल में खरपतवार नियंत्रण बेहद जरूरी है, क्योंकि खरपतवार होने से तिल का उत्पादन घट जाता?है. बोआई के 20 दिनों के भीतर पहली निराईगुड़ाई करनी चाहिए. इस के बाद 35 दिनों के भीतर दूसरी बार फसल की निराईगुड़ाई करनी चाहिए. फसल में ज्यादा खरपतवार होने पर एलाक्लोर 50 ईसी का 1.25 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के 3 दिनों के भीतर छिड़काव कर देना चाहिए. चूंकि तिल बारिश की फसल है इसलिए इसे सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है. अगर तिल की फसल में 50 फीसदी तक फली आ गई हों और बारिश न हुई हो तो फसल की 1 सिंचाई कर देनी चाहिए.

फसल सुरक्षा: बरसात में तिल की फसल में लगने वाले प्रमुख कीट के रूप में पत्ती लपेटक व फलीबेधक का प्रकोप ज्यादा होता?है. तिल में सूंडि़यों के रूप में लगने वाले कीट पत्तियों में जाली बना कर पत्तियों व फलियों को खा जाते हैं. ऐसे में क्पिनालफास 25 ईजी का 1.5 लिटर प्रति हेक्टेयर या मिथाइल पैराथियान के 2 फीसदी चूर्ण का 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

तिल में लगने वाले रोगों में फाइलोडी रोग खास है. इस रोग से फूल गुच्छेदार हो कर खराब हो जाते हैं. इस रोग का कारण फुदका कीट होता है. तिल की फसल को फाइलोडी रोग से बचाने के लिए बोआई 10 जुलाई से 20 जुलाई के बीच करना ज्यादा सही होता है. फाइलोडी रोग से बचने के लिए फोरेट 10 जी को 15 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से मिट्टी में बोआई के समय ही मिला देना चाहिए. फसल में इस रोग का प्रकोप हो जाने पर मिथाइल ओ डिमेटान 25 ईसी का 1 लिटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

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तिल की फसल में फाइटोफ्थेरा रोग लगने से पत्तियां तेजी से झुलस जाती हैं, जिस का सीधा असर उत्पादन पर पड़ता है. इस रोग की रोकथाम के लिए 3 किलोग्राम कौपर औक्सीक्लोराइड या 2.5 किलोग्राम मैंकोजेब का प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.

फसल की कटाई व भंडारण : तिल की फसल की कटाई का समय आमतौर पर अक्तूबर से नवंबर माह के बीच होता है. जब पौधों की पत्तियां सूख कर गिर जाएं और फसल की कलियां सूखने लगें, तब फसल की कटाई कर लेनी चाहिए और फलियों को डंडे से पीट कर दानों को साफ कर अलग कर लेना चाहिए. फिर अलग किए गए दानों को 4 घंटे धूप में सुखा कर बोरे में भर कर सूखी जगह पर भंडारण करना चाहिए.

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लाभ : तिल का औसत उत्पादन 8-12 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक पाया गया है, जिस में 1 हेक्टेयर खेत में तकरीबन 6,000 से 8,000 रुपए की लागत आती है. इस आधार पर वर्तमान बाजार भाव को देखते हुए 80 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से औसतन 10 क्विंटल से 80,000 रुपए की आमदनी होती है. अगर लागत को निकाल दिया जाए तो 4 माह की फसल से किसान को 72,000 रुपए का शुद्ध लाभ होता है इसलिए कोई भी किसान तिल की खेती को नकदी फसल के रूप में कर के अच्छा मुनाफा कमा सकता है.

लौकी की खेती और उचित देखभाल

लेखक-डा. ऋषिपाल

आबोहवा

लौकी की अच्छी पैदावार के लिए गरम व आर्द्रता वाले रकबे मुनासिब होते हैं. इस की फसल जायद व खरीफ दोनों मौसमों में आसानी से उगाई जाती है. इस के बीज जमने के लिए 30-35 डिगरी सैंटीग्रेड और पौधों की बढ़वार के लिए 32 से 38 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान मुनासिब होता है.

मिट्टी और खेत की तैयारी

बलुई, दोमट व जीवांश से?भरपूर चिकनी मिट्टी, जिस में पानी के सोखने की कूवत अधिक हो और जिस का पीएच मान 6.0-7.90 हो, लौकी की खेती के लिए मुनासिब होती है. पथरीली या ऐसी भूमि जहां पानी भरता हो और निकासी का अच्छा इतंजाम न हो, इस की खेती के लिए अच्छी नहीं होती है.

खेत की तैयारी के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और बाद में 2-3 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करें. हर जुताई के बाद खेत में पाटा चला कर मिट्टी को भुरभुरी व इकसार कर लेना चाहिए ताकि खेत में सिंचाई करते समय पानी बहुत कम या ज्यादा न लगे.

खाद व उर्वरक अच्छी उपज हासिल करने के लिए 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 35 किलोग्राम फास्फोरस व 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए. नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय देनी चाहिए. बची हुई नाइट्रोजन की आधी मात्रा 4-5 पत्ती की अवस्था में और बची आधी मात्रा पौधों में फूल बनने से पहले देनी चाहिए.

बीज की मात्रा

सीधी बीज बोआई के लिए 2.5-3 किलोग्राम बीज 1 हेक्टेयर के लिए काफी होता है. पौलीथिन के थैलों या नियंत्रित वातावरण युक्त गृहों में नर्सरी उत्पादन करने के लिए प्रति हेक्टेयर 1 किलोग्राम बीज ही काफी होता है.

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बोआई का समय

आमतौर पर लौकी की बोआई गरमी यानी जायद मौसम में 15 फरवरी से 25 फरवरी तक और बरसात यानी खरीफ मौसम में 15 जून से 15 जुलाई तक कर सकते हैं. पहाड़ी इलाकों में बोआई मार्चअप्रैल माह में की जाती है.

बोआई की विधि

लौकी की बोआई के लिए गरमी के मौसम में 2.5-3.5 मीटर व बारिश के मौसम में 4-4.5 मीटर की दूरी पर 50 सैंटीमीटर चौड़ी  व 20 से 25 सैंटीमीटर गहरी नालियां बना लेते हैं. इन नालियों के दोनों किनारे पर गरमी में 60 से 75 सैंटीमीटर व बारिश में 80 से 85 सैंटीमीटर फासले पर बीजों की बोआई करते हैं. एक जगह पर 2 से 3 बीज 4-5 सैंटीमीटर की गहराई पर बोने चाहिए.

सिंचाई

खरीफ मौसम में खेत की सिंचाई करने की जरूरत नहीं होती, पर बारिश न होने पर 10 से 15 दिनों के बाद सिंचाई की जरूरत पड़ती है.

अधिक बारिश की हालत में पानी निकालने के लिए नालियों का गहरा व चौड़ा होना जरूरी है. गरमी में ज्यादा तापमान होने के कारण 4-5 दिनों के फासले पर सिंचाई करनी चाहिए.

निराईगुड़ाई

आमतौर पर खरीफ मौसम में या सिंचाई के बाद खेत में काफी खरपतवार उग आते हैं, लिहाजा उन को खुरपी की मदद से 25 से 30 दिनों में निराई कर के निकाल देना चाहिए. पौधों की अच्छी बढ़वार के लिए 2 से 3 बार निराईगुड़ाई कर के जड़ों के पास मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए. रासायनिक खरपतवारनाशी के रूप में ब्यूटाक्लोरा रसायन की 2 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से बोआई के तुरंत बाद छिड़कनी चाहिए.

कीड़ों की रोकथाम

कद्दू का लाल कीट रैड पंपकिन बीटल : इस कीट का प्रौढ़ चमकीले नारंगी रंग का होता है. इस की सूंड़ी व प्रौढ़ दोनों ही जमीन के अंदर पाए जाते हैं और नुकसान पहुंचाते हैं. ये प्रौढ़ पौधों की छोटी पत्तियों को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं. सूंड़ी पौधों की जड़ काट कर नुकसान पहुंचाती है, वहीं प्रौढ़ कीट खासतौर पर मुलायम पत्तियां अधिक पसंद करते हैं. इस कीट के अधिक आक्रमण से पौधे पत्तीरहित हो जाते हैं.

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रोकथाम

* सुबह ओस पड़ने के समय राख का बुरकाव करने से प्रौढ़ कीट पौधों पर नहीं बैठते हैं, जिस से नुकसान कम होता है.

* जैविक विधि से रोकथाम के लिए अजादीरैक्टिन 300 पीपीएम 5 से 10 मिलीलिटर या अजादीरैक्टिन 5 फीसदी 0.5 मिलीलिटर की दर से 2 या 3 बार छिड़कने से फायदा होता है.

* इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर डाईक्लोरोवास 76 ईसी 1.25 मिलीलिटर या ट्राइक्लोफेरान 50 ईसी 1 मिलीलिटर या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एमएल 0.5 मिलीलिटर की दर से 10 दिनों के अंतराल पर छिड़कें.

फल मक्खी : इस कीट की सूंड़ी फसल को नुकसान पहुंचाती है. प्रौढ़ मक्खी गहरे भूरे रंग की होती है. इस के सिर पर काले व सफेद धब्बे पाए जाते हैं. प्रौढ़ मादा छोटे मुलायम फलों के अंदर अंडे देना पसंद करती है. अंडों से ग्रब्स सूंड़ी निकल कर फलों के अंदर का भाग खा कर खत्म कर देते हैं. ये कीट फल के जिस भाग पर अंडे देते हैं, वह भाग वहां से टेढ़ा हो कर सड़ जाता है और नीचे गिर जाता है.

रोकथाम

* गरमी की गहरी जुताई या पौधे के आसपास खुदाई करें ताकि मिट्टी की निचली परत खुल जाए जिस से फल मक्खी का प्यूपा धूप द्वारा नष्ट हो जाए.

* फल मक्खी द्वारा खराब किए गए फलों को इकट्ठा कर के खत्म कर देना चाहिए.

* नर फल मक्खी को नष्ट करने के लिए प्लास्टिक की बोतलों को इथेनाल कीटनाशक डाईक्लोरोवास या कार्बारिल या मैलाथियान क्यूल्यूर को 6:1:2 के अनुपात के घोल में लकड़ी के टुकड़े को डुबा कर 25 से 30 फंदे खेत में स्थापित कर देने चाहिए. कार्बारिल 50 डब्ल्यूपी, 2 ग्राम प्रति लिटर पानी या मैलाथियान 50 ईसी 2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी को ले कर 10 फीसदी शीरा या गुड़ में मिला कर जहरीले चारे को 1 हेक्टेयर खेत में 250 जगहों पर इस्तेमाल करना चाहिए.

* प्रतिकर्षी 4 फीसदी नीम की खली का इस्तेमाल करें, जिस से जहरीले चारे की ट्रैपिंग की कूवत बढ़ जाए. जरूरत पड़ने पर कीटनाशी जैसे क्लोरेंट्रानीलीप्रोल 18.5 एससी 025 मिलीलिटर या डाईक्लारोवास 76 ईसी 1.25 मिलीलिटर का प्रति लिटर पानी की दर से छिड़काव कर सकते हैं.

खास रोग व रोकथाम

चूर्णिल आसिता : रोग की शुरुआत में पत्तियों और तनों पर सफेद या धूसर रंग पाउडर जैसा दिखाई देता है. कुछ दिनों के बाद ये धब्बे चूर्ण भरे हो जाते हैं. सफेद चूर्णी पदार्थ आखिर में समूचे पौधे की सतह को ढक लेता है. अधिक प्रकोप के कारण पौधे जल्दी बेकार हो जाते हैं. फलों का आकार छोटा रह जाता है.

रोकथाम

* इस की रोकथाम के लिए खेत में फफूंदनाशक दवा जैसे ट्राइडीमोर्फ 0.05 फीसदी 1 लिटर पानी में घोल कर 7 दिनों के फासले पर छिड़काव करें. इस दवा के न होने पर फ्लूसिलाजोल 1 ग्राम प्रति लिटर पानी या हेक्साकोनाजोल 1.5 मिलीलिटर पानी की दर से छिड़काव करें.

मृदुरोमिल आसिता : यह रोग बारिश या गरमी वाली फसलों में बराबर लगता है. उत्तरी भारत में इस रोग का हमला ज्यादा होता?है. इस रोग की खास पहचान पत्तियों पर कोणीय धब्बे पड़ना है. ये कवक पत्ती के ऊपरी भाग पर पीले रंग के होते हैं और नीचे की तरफ रोएंदार बढ़वार करते हैं.

रोकथाम

* इस रोग के लिए बीजों को मैटालिक्सला नामक कवकनाशी की 3 ग्राम दवा से प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर के बोना चाहिए और मैंकोजेब 0.25 फीसदी का छिड़काव रोग की पहचान होने के तुरंत बाद फसल पर करना चाहिए.

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* यदि संक्रमण भयानक हालत में हो तो मैटालैक्सिल व मैंकोजेब का 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से या डाईमेयामर्फ का 1 ग्राम प्रति लिटर पानी व मैटीरैम का 2.5 ग्राम प्रति लिटर पानी की दर से 7 से 10 दिनों के फासले पर 3 से 4 बार छिड़काव करें.

फलों की तोड़ाई व उपज

लौकी के फलों की तोड़ाई मुलायम हालत में करनी चाहिए. फलों का वजन किस्मों पर निर्भर करता है. फलों की तोड़ाई डंठल लगी अवस्था में किसी तेज चाकू से करनी चाहिए. तोड़ाई 4 से 5 दिनों के अंतराल पर करनी चाहिए ताकि पौधों पर ज्यादा फल लगें. औसतन लौकी की उजप 350 से 500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है.    ठ्ठ

राजूराम को मिले जेर खाद से अच्छे नतीजे

लेखक-भानु प्रकाश राणा

इस के इस्तेमाल से खेत में अच्छी पैदावार मिलती है. लेकिन आज का किसान अब अधिक जागरूक हो गया है.

ऐसे ही एक जागरूक किसान हैं

राजूराम सीरवी राठौर, जो तहसील बिलाड़ा, जोधपुर (राजस्थान) में रहते हैं. इन्होंने गायभैंस के जेर से जैविक खाद तैयार की, जो अपनेआप में काफी उम्दा दर्जे की जैविक खाद है.

राजूराम का कहना है कि जब भी आप की गाय या भैंस बच्चा देने वाली हो तो उस समय खास निगरानी रखें. पशु ब्याने की शुरुआत में जब वाटर बैलून या जैव रस की थैली बाहर आने लगे तभी एक टोकरी राख छान कर तैयार रखें.

जैसे ही यह पानी की थैली जमीन पर गिरे, तुरंत टोकरी की राख इस पर डाल दें. इस से जानवर के शरीर से जो जैव रस का पानी वेस्ट न हो कर राख सोख ले. इस के बाद जब पशु बच्चा देने के बाद जेर डाले. इस जेर और जैव रस वाली राख को एक मिट्टी के घड़े में भर कर ढकते हुए यह घड़ा किसी छायादार पेड़ के नीचे 60-70 दिन के लिए दबा दें. 70 दिन बाद इसे निकालने पर इस में नम सीमेंट जैसा पाउडर मिलेगा. इस का एक चम्मच भर मात्र से 10 किलोग्राम बीज का उपचार कर सकते हैं.

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200 ग्राम पाउडर को 10 लिटर पानी में घोल कर छानने के बाद इस का फसल पर छिड़काव करें. इस से फसल की बढ़वार और उपज में चमत्कारिक फायदा मिलेगा. फलदार पेड़ों में 15-25 ग्राम मात्रा को 15 लिटर पानी में घोल कर या इसी मात्रा का पेड़ पर छिड़काव करने से इस के परिणाम आप की सोच से भी ज्यादा बढ़ कर होंगे. इस का इस्तेमाल गेहूं, सौंफ, धान, सरसों,?ज्वार और सब्जियों पर हम ने कर के देखा है. फलों में खजूर, अमरूद, जामुन, आम और चीकू पर भी हम ने कर के देखा है. इस का बहुत ही शानदार नतीजा देखने को मिला है.

इस जेर खाद को किसान मित्र बरसाती फसलों ज्वार, बाजरा, तिल, तिल्ली, ग्वार, मूंग, मोठ वगैरह में भी उपयोग ले सकते हैं.

यह खाद बहुत ही असरदार है. रिजके की फसल में पानी देते समय 2 किलोग्राम पाउडर को 10 किलोग्राम सूखी गोबर की खाद या 5 किलोग्राम राख में मिला कर प्रति बीघे के हिसाब से छिड़काव करें. इस के अच्छे नतीजे मिलेंगे.

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ज्यादा जानकारी के लिए आप राजूराम सीरवी राठौर के मोबाइल नंबर 09461691944 पर संपर्क कर सकते हैं.

खूबियों से भरी शतावरी

लेखक- प्रदीप कुमार सैनी

इन मुलायम शाखाओं द्वारा सूप व सब्जी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. यहां तक कि इन शाखाओं को सब्जी उत्पादक ज्यादातर डब्बाबंदी के लिए इस्तेमाल में लाते हैं. इन मुलायम शाखाओं को 3-4 साल में पूरी तरह फसल के रूप में हासिल किया जाने लगता है. ये शाखाएं

एक तने का रूप लिए होती हैं. इन को उबाल कर भी खाने में इस्तेमाल किया जाता है. यह फसल 10-15 साल तक सही बनी रहती है. इस सब्जी को मैदानी व पहाड़ी इलाकों में उगाया जा सकता है.

यह फसल ज्यादा सर्दी या बर्फीला मौसम पसंद नहीं करती है?क्योंकि सर्दी में शाखाएं सूख जाती हैं. वसंत मौसम इस फसल के लिए ज्यादा मुफीद रहता?है और इसी मौसम में जमीन या मेंड़ों से नई शाखाएं निकल कर नए पौधे तैयार हो जाते हैं और मुलायम तने या शाखाएं निकल आती हैं. मौसम बदलाव के समय नईनई शाखाएं निकलती हैं. इन की सही बढ़ावार होने पर ही काटें, वरना कड़ी होने के बाद ये खाने लायक नहीं रहती हैं. इन्हीं शाखाओं पर पत्तियां निकलती हैं जो देखने में हरे रंग की होती?हैं. इस सब्जी की ज्यादातर मांग बड़े होटलों और बड़ेबड़े शहरों में मौडर्न सब्जी बाजार व सब्जी दुकानों में होती?है.

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जमीन व जलवायु : सब से अच्छी जमीन दोमट या हलकी बलुई दोमट रहती है. लेकिन जमीन में उपजाऊपन होना जरूरी है. इस का पीएच मान 7.0-7.5 के आसपास हो. जलवायु वसंत ऋतु वाली, जिस में तापमान 30-35 डिगरी सैंटीग्रेड हो और हलकी नमी का होना भी जरूरी है क्योंकि इसी मौसम में तने या शाखाएं ज्यादा बनती हैं. बारिश का मौसम भी बढ़वार के लिए सही रहता है.

खेत की तैयारी : खेत की सब से पहले मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करनी चाहिए, जिस से घासफूस व दूसरी फसल के अवशेष मिट्टी में दब कर गलसड़ जाएं. इस तरह से 4-5 गहरी जुताइयों की जरूरत होती है. तैयार खेत की पहचान मिट्टी का भुरभुरा होना माना जाता है. खेत में सूखी घास वगैरह भी नहीं रहनी चाहिए.

उन्नत किस्में

एस्पेरेगस की किस्में स्थानीय रूप से जो भी मिले, उगाया जा सकता?है. एक उन्नत किस्म है परफैक्शन. इस किस्म में ज्यादा शाखाएं निकलती?हैं. किसान इस की लोकल किस्म भी उगा सकते हैं.

प्रवर्धन विधि : एस्पेरेगस का प्रवर्धन बीज वानस्पतिक विधि द्वारा किया जाता है. बीज परिपक्व शाखाओं से तैयार किया जाता है, जिन्हें अप्रैलमई माह में बो कर जूनजुलाई माह में क्यारियों में लगा दिया जाता?है.

वानस्पतिक विधि द्वारा बड़े व पुराने पौधों से फरवरीमार्च महीनों में जड़ विभाजित कर के नए पौधे तैयार किए जाते?हैं, जो आगे चल कर बढ़ोतरी करते हैं.

बीज की बोआई : बीज की बोआई आमतौर पर जूनजुलाई माह में करते हैं और खेत में इन्हें फरवरीमार्च माह में लगाते हैं. बीज 20-25 दिन के बाद ही उगते?हैं. पौधों को सालभर बाद ही लगाना चाहिए.

पौधे रोपने की दूरी : पौधों को रोपते समय पौधे से पौधे की दूरी 45 सैंटीमीटर और लाइन से लाइन की दूरी 120-150 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. पौधों को रोपने से पहले?क्यारियों में मोटी मेंड़ या नाली, जिन की गहराई 40 सैंटीमीटर और चौड़ाई 45 से 60 सैंटीमीटर रख कर मेंड़ के ऊपर पौधों की सही दूरी रखनी चाहिए और पानी नालियों में दें. इस के पौधे पेड़ों पर अधिक बढ़वार करते हैं. इन पेड़ों पर पौधों को 15 सैंटीमीटर गहरा दबाना चाहिए. पानी की सही मात्रा दें, जिस से पौधों को नमी पहुंचती रहे.

खाद और उर्वरक की मात्रा: गोबर की खाद 12-15 टन प्रति हेक्टेयर और नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश की मात्रा क्रमश: 80:60:50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर दें. नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत तैयार करते समय या पौधे लगाने के 15 दिन पहले देनी चाहिए. नाइट्रोजन की बाकी बची आधी मात्रा को 2 बार में दें. पौधे रोपने से 20-25 दिन बाद और जनवरीफरवरी माह में खड़ी फसल में टौप ड्रेसिंग के दौरान देनी चाहिए.

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सिंचाई का इंतजाम : पौधे रोपने के तुरंत बाद सिंचाई करें. लेकिन गरमियों में पानी की विशेष व्यवस्था रहे यानी प्रति हफ्ता सिंचाई करनी चाहिए. इस तरह से सर्दियों में 15-20 दिन के अंतराल पर, गरमियों में 8-10 दिन के अंतराल पर और बारिश में जरूरत के मुताबिक सिंचाई करें.

मिट्टी चढ़ाएं : यह एक बहुवर्षीय फसल है. साल में एक बार मिट्टी जरूर चढ़ानी चाहिए. वैसे, मिट्टी चढ़ाने का सही समय फरवरीमार्च माह का है, क्योंकि मार्च के बाद मौसम बदल जाता है और पौधे ज्यादा बढ़वार करते हैं. इस से तने या शाखाएं ज्यादा मात्रा में निकल सकें.

बीमारियां व कीट नियंत्रण : बीमारी लगने पर फफूंदीनाशक दवा का स्प्रे करें और कीट लगने पर रोगोर, इंडोसल्फान और मोनोक्रोटोफास वगैरह कीटनाशक का 1 फीसदी घोल का स्प्रे करें.

शाखाओं की कटाई: जब पौघों में से जमीन की सतह से नई कोमल शाखाएं निकलने लगें जिन का ऊपरी हिस्सा हरा और नीचे से सफेद होता?है. इन की लंबाई 20-30 सैंटीमीटर हो, तब ही जमीन की सतह से चाकू की मदद से काटें.

ध्यान रहे कि ये नई शाखाएं मुलायम ही काटी जाएं वरना कठोर होने पर स्वाद बदल जाता है और बाजार में इस की कीमत भी घट जाती है. कठोर व रेशे हो जाने पर स्वाद में बदलाव आ जाता है.

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उपज : औसतन प्रति पौधा 15-20 शाखाएं हासिल होती हैं और प्रति हेक्टेयर 80-100 क्विंटल तक उपज मिल जाती है.

बगीचे के चारों ओर करौंदा लगा कर बढ़ाई आमदनी

लेखक- रामचरण धाकड़

इस का सफल प्रयोग राजस्थान के झुंझुनूं जिले की चिड़ावा तहसील के तकरीबन आधा दर्जन गांवों में देखा जा सकता है. चिड़ावा तहसील में ज्यादातर बगीचे किन्नू, मौसमी, लिसोड़ा वगैरह के?हैं. इन बगीचों में आएदिन जंगली पशुओं द्वारा नुकसान होने का डर बना रहता है. इस समस्या से नजात दिलाने के लिए रामकृष्ण जयदयाल डालमिया सेवा संस्थान ने बगीचे के चारों ओर की मेंड़ों पर करौंदे के पौधे लगाने की सलाह दी.

इस पर अमल करते हुए तमाम किसानों ने बारिश में एक से डेढ़ मीटर की दूरी पर करौंदे के पौधे लगाए. तकरीबन 3 साल बाद ये पौधे बढ़ कर बड़ी झाडि़यों का रूप ले लेते हैं.

चूंकि करौंदे के पौधों में कांटे होते?हैं जिस से कोई जंगली जानवर बगीचे में घुस नहीं सकता है. इस से बगीचों की हिफाजत बढ़ गई है.

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बगीचे के चारों ओर करौंदे के पौधे लगाने से एक पौधे से हर साल तकरीबन 40 किलोग्राम फल आसानी से मिल जाते?हैं जो बाजार में 40 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिक जाते हैं यानी तकरीबन 30 पौधों से तकरीबन 8,000 से 10,000 रुपए तक की अतिरिक्त आमदनी मिल जाती?है.

बगीचे के चारों ओर की मेंड़ों पर लगाए गए करौंदे के पौधों में अतिरिक्त सिंचाई की जरूरत नहीं होती. बगीचे की सिंचाई करते समय करौंदे के पौधे जरूरत के मुताबिक पानी ले लेते हैं.

करौंदा के फल कांटेदार होने के अलावा खाने में खट्टेमीठे होते?हैं. इस से इन का अचार, मुरब्बा, जैम, चटनी वगैरह बनाने के लिए काम में लिया जाता है.

करौंदा शुष्क जलवायु का पौधा है और इस में कीट और रोग भी कम लगते?हैं. इस के अलावा करौंदे के पौधों पर फल भी साल में 2 बार लगते?हैं, किंतु बारिश के बाद आने वाले फलों का ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है.

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कांटेदार होने की वजह से करौंदे को तोड़ना भी इतना आसान नहीं है. हाथों में दस्ताने पहन कर इसे तोड़ें. कम लागत में करौंदे से अच्छी आमदनी हासिल की जा सकती है.

किसान ने वैज्ञानिक खेती से मिसाल कायम की

लेखक-  बृहस्पति कुमार पांडेय

जबकि इन उद्योगों और उद्योगपतियों को जिन किसानों से अपना उद्योग चलाने के लिए ज्यादातर कच्चा माल मिलता है, उन के खेती उत्पादों को यही उद्योगपति और इन के बिचौलिए औनेपौने दाम में खरीद कर मोटा पैसा बनाते हैं.

देश के अन्नदाता तमाम मुसीबतों को झेल कर अनाज, फलफूल, सब्जियां, दूध उत्पाद वगैरह पैदा करते हैं और जब कीमत तय करने की बारी आती है तो इस के लिए उन्हें सरकार और बिचौलियों के भरोसे रहना पड़ता है. इसी वजह से अकसर किसानों को खेती में घाटा सहना पड़ता है.

उद्योगों के लिए सरकारी नीतियों में ढील से ले कर मनमाने तरीके से कीमत तय करने तक की छूट दी गई है, वहीं इन उद्योगपतियों के रीढ़ की हड्डी माने जाने वाले किसानों और खेती उत्पादों को ले कर सरकारों का नजरिया सालों से ढीलाढाला ही रहा?है. इस का नतीजा है कि उद्योगपति दिन दूना रात चौगुना माल कमाते हैं, वहीं दूसरी ओर किसान माली तंगी का शिकार हो कर खुदकुशी जैसे सख्त कदम उठाते हैं.

सरकार द्वारा हर साल पेश होने वाले सरकारी बजट में भी किसानों को ले कर बस झुनझुना ही अब तक थमाया जाता रहा है. कभी मुफ्तखोरी, तो कभी जीरो बजट खेती का सपना दिखा कर किसानों की तरक्की के बड़ेबड़े दावे सरकारों द्वारा किए जाते रहे हैं, लेकिन किसानों की माली हालत सुधरने के बजाय दिनोंदिन बदतर होती जा रही है. नतीजतन, किसान और उस के परिवारों के लोग धीरेधीरे खेती से दूर होने लगे हैं और अपनी जरूरतभर की चीजें उगाने में लगे हैं.

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अगर किसानों को ले कर सरकारों का नजरिया ऐसा ही रहा तो एक दिन भारत की एक बड़ी आबादी को खाने के लाले पड़ जाएंगे. उस दौरान सरकार और उद्योगों के पास पछताने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं होगा.

इन उलट हालात में भी जिन किसानों ने खुद को खेती से जोड़ कर वैज्ञानिक तरीका अपनाते हुए खेती की पहल की है, उन्हें खेती के जरीए न केवल बेहतर रोजगार मिला?है, बल्कि कीमत तय करने को ले कर सरकार और बिचौलियों से छुटकारा भी मिला है.

ऐसे किसानों ने लीक से हट कर खेती की शुरुआत की तो इन किसानों ने न केवल इज्जत और शोहरत बटोरी, बल्कि खेती भी दूसरे उद्योगों की तरह बेहतर रोजगार का जरीया बन गई.

ऐसे ही एक किसान?हैं कौशल कुमार सिंह, जो बस्ती जिले के हर्रैया तहसील के ब्लौक विक्रमजोत के रहने वाले हैं. उन्होंने खुद को उलट हालात से उबारते हुए वैज्ञानिक तरीके से नकदी फसलों की खेती कर के न केवल अपनी आमदनी में इजाफा किया है, बल्कि शानोशौकत और शोहरत भी हासिल की.

केले की खेती से शुरुआत :  कौशल कुमार सिंह ने कुछ साल पहले 3 एकड़ खेत में केले की जी 9 प्रजाति की रोपाई करने का फैसला लिया. उन्होंने प्रति एकड़ की दर से 1300 पौधे रोपे. इस पर कुल 90,000 से

1 लाख रुपए तक की लागत आई.

उन्होंने इस फसल में कृषि वैज्ञानिकों द्वारा सुझाई गई मात्रा में खाद और उर्वरक का इस्तेमाल किया. नतीजा यह रहा कि आसपास के दूसरे किसानों की अपेक्षा उन के केले की एक घार का न्यूनतम औसत वजन

30 किलोग्राम से ज्यादा आया. इस तरह से उन्होंने महज 1 एकड़ खेत से तकरीबन

400 क्विंटल उपज हासिल की. इस से उन्हें

4 लाख रुपए की खालिस कमाई हुई. तब से वे लगातार केले की खेती करते आ रहे हैं.

अच्छी बात यह रही कि केले की मार्केटिंग को ले कर उन्हें जोखिम नहीं उठाना पड़ा क्योंकि केले के आढ़तियों ने घर से ही बाजार मूल्य से ज्यादा पैसा दे कर उन की फसल खरीद ली. वर्तमान में उन के यहां से एक थोक कारोबारी तकरीबन 70 क्विंटल केले की खरीदारी आराम से कर लेता है.

उन्होंने बताया कि केले की फसल में ज्यादातर फंगस का प्रकोप होता है. इस बीमारी से बचाव के लिए कार्बंडाजिम और कौपर औक्सीक्लोराइड का इस्तेमाल करते?हैं जिस से वे फसल को होने वाले नुकसान से बचा पाते हैं.

अनार ने दिलाई कामयाबी : जहां कौशल कुमार सिंह के आसपास के गांव के किसान पारंपरिक तौर पर गेहूं, धान व तिलहन की खेती करते हैं, वहीं उन्होंने अनार की उन्नत प्रजाति रोपने का फैसला किया और उन्होंने सवा बीघा खेत में अनार के पौधे रोप दिए. पौधों की रोपाई के दौरान उन्होंने पौधे से पौधे की दूरी

9 फुट और लाइन से लाइन की दूरी 9 फुट रखी.

कौशल कुमार सिंह द्वारा लगाए गए अनार के पौधे से हर साल अच्छी तादाद में फूल मिल जाते?हैं. उन्होंने बताया कि अनार की फसल के साथ सहफसल के रूप में वे सूरन की गजेंद्र प्रजाति की खेती कर रहे हैं जिस से उन्हें अच्छीखासी आमदनी होती है. साथ ही, एक फसल के खराब होने की दशा में उन्हें नुकसान न के बराबर होने की संभावना होती है.

स्ट्राबेरी उपजाने वाले पहले किसान : कौशल कुमार सिंह बस्ती जिले के पहले ऐसे किसान हैं, जिन्होंने बिना पौलीहाउस या ग्रीनहाउस लगाए भरपूर मात्रा में स्ट्राबेरी की फसल उगाने में काबयाबी पाई है.

उन्होंने स्ट्राबेरी के पौधों को हरियाणा से मंगा कर अपने खेतों में रोपा. वे स्ट्राबेरी के खेत में किसी तरह के रासायनिक खादों का इस्तेमाल नहीं करते?हैं. साथ ही, स्ट्राबेरी से ज्यादा उत्पादन हासिल करने के लिए वे मेंड़ों पर मल्चिंग कर उस पर स्ट्राबेरी की रोपाई करते?हैं. इस से खेत में अनावश्यक रूप से खरपतवार की रोकथाम अपनेआप हो जाती है और पौधों की बढ़वार व फलों का विकास भी तेजी से होता?है.

कौशल कुमार सिंह के खेतों में तैयार स्ट्राबेरी के फल बाजार में बिकने वाले स्ट्राबेरी के फलों की अपेक्षा डेढ़ से दोगुना बड़े आकार के होते हैं और स्वाद भी उन से ज्यादा अच्छा होता?है.

रिंगपिट विधि से गन्ने की बोआई : गन्ने की खेती में किसानों को ऊंची लागत और बढ़ती मेहनत के बावजूद भी उत्पादन कम मिलता है. ऐसे किसानों को उम्मीद से कम मुनाफा मिल पाता?है.

इस समस्या से निबटने के लिए किसान कौशल कुमार सिंह ने पारंपरिक तरीके से गन्ने की खेती को छोड़ रिंगपिट विधि से खेती करने का फैसला लिया. इस से उन की खेती की लागत में न केवल कमी आई है, बल्कि उत्पादन में भी अच्छाखासा इजाफा हुआ है.

उन्होंने बताया कि रिंगपिट विधि से गन्ना बोने के लिए खेत की जुताई करने की जरूरत नहीं होती है, क्योंकि इस तरह के गन्ने की बोआई के लिए रिंगपिट डिगर मशीन से खेत में गड्ढे तैयार करते?हैं. इस में एक गड्ढे से दूसरे गड्ढे की दूरी 120 सैंटीमीटर होती है और हरेक गड्ढा 90 सैंटीमीटर व्यास का होता?है.

इस तरह 1 एकड़ में गड्ढे तैयार करने पर तकरीबन 2500-2700 गड्ढे तैयार हो जाते?हैं. इन गड्ढों की गहराई तकरीबन 30 सैंटीमीटर से 45 सैंटीमीटर के आसपास रखी जाती है.

उन्होंने यह भी बताया कि वे गन्ने की बोआई के पहले गड्ढों में 5 किलोग्राम गोबर की सड़ी खाद, 60 ग्राम एनपीके, 40 ग्राम यूरिया और 5 ग्राम फोरेट या फुराडान डाल कर मिट्टी में अच्छी तरह मिला देते हैं. इस तरह प्रति एकड़ तकरीबन 100 क्विंटल गोबर की खाद की जरूरत पड़ती?है.

उर्वरक के रूप में 150 किलोग्राम एनपीके, 104 किलोग्राम यूरिया और

12 किलोग्राम फुराडौन का इस्तेमाल करते?हैं.

इस के बाद वे गन्ने के 2 से 3 आंख वाले काटे गए टुकड़ों को 0.2 फीसदी बाविस्टीन के घोल में 20 मिनट तक डुबो कर उपचारित करते?हैं और बोआई के लिए खोदे गए गन्ने के टुकड़े साइकिल के पहिए की तीलियों की तरह गोलाई में बो देते हैं.

इस तरह उन को प्रति एकड़ खेत के लिए तकरीबन 55 से 60 क्विंटल गन्ना बीज की जरूरत पड़ती है. गड्ढों में गन्ने की बोआई के बाद ऊपर से मिट्टी की परत डाल कर ढक देते?हैं. इस तरह से बोए गए गन्ने का जमाव भी अच्छा होता?है.

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रिंगपिट विधि से गन्ने की बोआई से सिंचाई, उर्वरक देना, पत्तियों की?छंटाई और कटाई आसान हो जाती?है और उपज भी अच्छी मिलती है.

उन्होंने बताया कि सामान्य विधि से गन्ने की बोआई करने पर महज 300-400 क्विंटल उपज मिलती थी. लेकिन रिंगपिंट विधि से गन्ना बोने से उपज दोगुनी मिलने लगी है.

अगर समय से रिंगपिट विधि से बोआई की जाए और संस्तुत मात्रा में खादउर्वरक का इस्तेमाल किया जाए तो यह उत्पादन 1,000 क्विंटल प्रति एकड़ तक मिल सकता है.

खेती में जरूरी संसाधनों का इस्तेमाल?: कौशल कुमार सिंह खेती में काम आने वाले सभी तरह के आधुनिक यंत्रों का इस्तेमाल करते हैं. वे खेती के लिए छोटेबड़े सभी यंत्र खरीद रहे?हैं. वर्तमान में उन के पास ट्रैक्टर, ट्रौली और उस में उपयोग आने वाले यंत्र जैसे रोटावेटर, रिंगपिट डिगर, कल्टीवेटर जैसे तमाम यंत्र हैं.

जंगली पशुओं से फसल बचाने के पुख्ता इंतजाम?: कौशल कुमार सिंह ने अपनी बोई गई फसल को जंगली पशुओं से बचाने के लिए पुख्ता इंतजाम किए हुए हैं.

उन्होंने केला, अनार, सूरन, स्ट्राबेरी वगैरह फसलों की सुरक्षा के लिए कंटीले तारों से पूरे खेत की फेसिंग कराई है. उन के?द्वारा की

गई व्यावसायिक फसल की सुरक्षा के पुख्ता इंतजामों के चलते फसल को कोई नुकसान नहीं

पहुंचता है.

कौशल कुमार सिंह वर्तमान में अनार, केला, स्ट्राबेरी, गन्ना, सूरन के साथ ही साथ आलू, टमाटर, मटर, गेहूं, धान की फसलें वगैरह भी लेते हैं. इन फसलों से उन्हें भरपूर उपज मिलती है. डिजिटल और उन्नत तकनीक के चलते उन्हें किसी तरह की मार्केटिंग की समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है.

कौशल कुमार सिंह को बस्ती जिले में आम आदमी से ले कर नेता, जनप्रतिनिधि व सरकारी महकमों के अधिकारीकर्मचारी भी इज्जत व सम्मान देते हैं.

कौशल कुमार सिंह का कहना है कि किसानों को पारंपरिक तरीकों के साथसाथ आधुनिक तरीकों को अपनाते हुए खेती करनी होगी. उन्नत तकनीक के जरीए ही किसान फसल उत्पादन बढ़ाने के साथ जोखिम और मार्केटिंग की समस्या से छुटकारा पा सकता है.

वे कहते हैं कि किसानों को खेती के आधुनिक तरीके अपनाने होंगे तभी खेती से परिवार के लोगों की सामान्य जरूरतें पूरी की जा सकें.

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उन के मुताबिक, किसान उन्नत तकनीक के जरीए न केवल खुद को दीनहीन स्थिति से उबार सकता?है, बल्कि इज्जत और सम्मान भी पा सकता है.                                   ठ्ठ

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