उस शहर का रेलवे स्टेशन जितना छोटा था, शहर भी उसी के मुताबिक छोटा था. अपना बैग संभाले अनुपम रेलवे स्टेशन से बाहर निकला. उस के हाथ में कंप्यूटर से निकला रेलवे टिकट था, मगर उस टिकट को चैक करने के लिए कोई रेलवे मुलाजिम या अफसर गेट पर मौजूद न था.

रेलवे स्टेशन की इमारत काफी पुरानी अंगरेजों के जमाने की थी, मगर मजबूत भी थी. एक खोजी पत्रकार की नजर रखता अनुपम अपनी आंखों से सब नोट कर रहा था.

रेलवे स्टेशन के बाहर इक्कादुक्का रिकशे वाले खड़े थे. एक तांगे वाला तांगे से घोड़ा खोल कर उसे चारा खिला रहा था. अभी सुबह के 11 ही बजे थे.

यह छोटा शहर या बड़ा कसबा एक महानगर से तकरीबन 80 किलोमीटर दूर था. सुबहसवेरे जाने वाली पैसेंजर रेलगाडि़यों से मासिक पास बनवा कर सफर करने वाले मुसाफिर हजारों थे. इन्हीं मुसाफिरों के जरीए चलती थी इन तांगे वालों की रोजीरोटी.

अनुपम एक रिकशे वाले के पास पहुंचा और बोला, ‘‘शहर चलोगे?’’

‘‘कहां बाबूजी?’’ अधेड़ उम्र के उस रिकशा वाले ने पूछा.

अनुपम ने अपनी कमीज की ऊपरी जेब में हाथ डाला और एक मुड़ातुड़ा पुरजा निकाल कर उस पर लिखा पता पढ़ा, ‘‘अग्रवाल धर्मशाला, बड़ा बाजार.’’

रिकशा वाले ने कहा, ‘‘बाबूजी, अग्रवाल धर्मशाला तो कभी की ढह कर बंद हो गई है.’’

‘‘यहां और कोई धर्मशाला या होटल नहीं है?’’

‘‘नहीं साहब, न तो यहां कोई होटल है और न धर्मशाला. हां, एक सरकारी रैस्ट हाउस है. नहर के दूसरी तरफ है. वैसे, आप को यहां क्या काम है?’’

‘‘परसों यहां एक सैमिनार हो रहा है. मैं उस की रिपोर्टिंग के लिए आया हूं. मैं एक बड़े अखबार का संवाददाता हूं,’’ अनुपम ने कहा.

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