मैं अपने घर  के बरामदे में बैठा पढ़ने का मन बना रहा था, पर वहां शांति कहां थी. हमेशा की तरह हमारे पड़ोसी पंडित ओंकारनाथ और मौलाना करीमुद्दीन की जोरजोर से झगड़ने की आवाजें आ रही थीं. वह उन का तकरीबन रोज का नियम था. दोनों छोटी से छोटी बात पर भी लड़तेझगड़ते रहते थे, ‘‘देखो, मियां करीम, मैं तुम्हें आखिरी बार मना करता हूं, खबरदार जो मेरी कुरसी पर बैठे.’’

‘‘अमां पंडित, बैठने भर से क्या तुम्हारी कुरसी गल गई. बड़े आए मुझे धमकी देने, हूं.’’

‘नहाते तो हैं नहीं महीनों से और चले आते हैं कुरसी पर बैठने,’ पंडितजी ने बड़बड़ाते हुए अपनी कुरसी उठाई और अंदर रखने चले गए.

मुझे यह देख कर आश्चर्य होता था कि मौलाना और पंडित में हमेशा खींचातानी होती रहती थी, पर उन की बेगमों की उन में कोई भागीदारी नहीं थी. मानो दोनों अपनेअपने शौहरों को खब्ती या सनकी समझती थीं. अचार, मंगोड़ी से ले कर कसीदा, कढ़ाई तक में दोनों बेगमों का साझा था.

पंडित की बेटी गीता जब ससुराल से आती, तब सामान दहलीज पर रखते ही झट मौलाना की बेटी शाहिदा और बेटे रागिब से मिलने चली जाती. मौलाना भी गीता को देख कर बेहद खुश होते. घंटों पास बैठा कर ससुराल के हालचाल पूछते रहते. उन्हें चिढ़ थी तो सिर्फ  पंडित से.

कटाक्षों का सिलसिला यों ही अनवरत जारी रहता. पिछले दिन ही मौलाना का लड़का रागिब जब सब्जियां लाने बाजार जा रहा था, तब पंडिताइन ने पुकार कर कहा, ‘‘बेटे रागिब, बाजार जा रहा है न. जरा मेरा भी थैला लेता जा. दोचार गोभियां और एक पाव टमाटर लेते आना.’’

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