शंकर बाबू आटोरिकशा से उतर कर कारखाने की ओर जा ही रहे थे कि 2 सिपाहियों ने उन्हें घेर लिया.

एक बोला, ‘‘थाने चलो, थानेदार ने बुलाया है.’’

दूसरा बोला, ‘‘अब तक कहां थे? 3 दिनों से हम तुम्हें ढूंढ़ रहे हैं.’’

हैरानपरेशान शंकर बाबू आसपास देखने लगे. तब तक कारखाने के कुछ मुलाजिम पास आ गए और वे उन्हें ऐसे देखने लगे, मानो वे शातिर अपराधी हों.

शंकर बाबू उस कारखाने के माने हुए मजदूर नेता थे. इस लिहाज से उन्होंने सिपाहियों पर रोब जमाना चाहा, ‘‘आखिर मेरा कुसूर क्या है?’’

ये भी पढ़ें- वे सूखे पत्ते : सरोज की कहानी

‘‘थाने पहुंच कर जान लेना.’’

‘‘नहीं, बिना कुसूर जाने मैं तुम लोगों के साथ नहीं चल सकता.’’

इस पर एक सिपाही ने खास पुलिसिया अंदाज में कहा, ‘‘चलते हो या लगाऊं एक...’’

यह सुनते ही शंकर बाबू का दिमाग चकरा गया. वे तुरंत सिपाहियों के साथ चलने को तैयार हो गए.

थानेदार के आगे शंकर बाबू को पेश करते हुए एक सिपाही ने कहा, ‘‘‘साहब, यही हैं शंकर बाबू. बड़ी मुश्किल से पकड़ कर लाए हैं. ये आ ही नहीं रहे थे, संभालिए जनाब.’’

इतना कह कर सिपाही ने शंकर बाबू को बेजबान जानवर की तरह थानेदार की ओर धकेल दिया.

शंकर बाबू को बहुत गुस्सा आया, मगर वे गुस्से को दबाते हुए थोड़ी तीखी आवाज में थानेदार से बोले, ‘‘मुझे क्यों पकड़ा गया है? मेरा कुसूर क्या है? मैं शहर का एक इज्जतदार आदमी आदमी हूं. मैं...’’

‘‘अरे छोड़ो इज्जतदार और बेइज्जतदार की बातें. यह बताओ कि 15 अगस्त को झंडा फहरा कर तुम कहां गुम हो गए थे? जानते हो कि कितना बड़ा राष्ट्रीय अपराध किया है तुम ने?’’

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 महीना)
USD2
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...