‘‘अच्छा चलते हैं, डैड. आशीर्वाद दीजिए.’’

विदा लेने के लिए खड़े बेटे अनुज व उस की पत्नी सूजन की आवाज सुन कर तरुण को लगा मानो सबकुछ उन के हाथों से सरकता जा रहा है. वक्त मुट्ठी से फिसलती रेत की तरह बीता जा रहा था. अमेरिका के लिए बेटे की फ्लाइट जाने में कुछ ही घंटे बचे थे. 2-3 घंटे तो उड़ान से पहले की औपचारिकताएं पूरी करने में ही बीत जाते हैं.

तरुण चाह कर भी अपने बेटे व बहू को एअरपोर्ट तक पहुंचाने का साहस अपने में नहीं जुटा पा रहे थे. इकलौते बेटे को अमेरिका भेज कर फिर जिंदगी के सन्नाटे को अकेले झेलने की कल्पना भर ही तरुण को सिहरा देती थी.

ड्राइवर ने गाड़ी निकाल कर सामान उस में रख दिया था और अनुज व सूजन जाने से पहले उन के पांव छू कर आशीर्वाद लेने आए हुए थे. बेटे के बिछोह ने उन की आवाज अवरुद्ध कर दी थी. चश्मा साफ करने के बहाने अपनी डबडबाई आंखें पोंछ उन्होंने केवल बच्चों के सिर पर हाथ रख दिया. आशीर्वाद व विदा देता हाथ खुद ही नीचे झुक गया.

बाहर खड़ी गाड़ी की तरफ बेटेबहू को जाते देख कुछ कदम वह साथ चले पर फिर ठिठक कर वहीं से देखते रहे. ड्राइवर के गाड़ी स्टार्ट करते ही वह कब आ कर लौन में बैठ गए उन्हें पता ही न चला. सबकुछ यंत्रवत सा होता चला जा रहा था. कार जितनी तेजी से उन से दूर होती जा रही थी, मन उस से दोगुनी रफ्तार से उन्हें अतीत की गहरी वादियों में खींच रहा था.

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