महेश की नौकरी भारतीय वायु सेना में बतौर मैडिकल अटैंडैंट लगी थी. वायु सेना सिलैक्शन सैंटर के कमांडर ने कहा, ‘‘बधाई हो महेश, तुम्हें एक नोबेल ट्रेड मिला है. तुम नौकरी के साथसाथ इनसानियत के लिए भी काम कर सकोगे. किसी लाचार के काम आ सकोगे.’’

जो भी हो, महेश की समझ में तो यही आया कि उसे एक अच्छी नौकरी मिल गई है बस.

अस्पताल में तकरीबन 3 महीने की ट्रेनिंग चल रही थी. सबकुछ करना था. मरीजों का टैंपरेचर, ब्लडप्रैशर, नाड़ी वगैरह के रिकौर्ड रखने से ले कर उन्हें बिस्तर पर सुलाने तक की जिम्मेदारी थी. हर बिस्तर तक जा कर मरीजों को दवा खिलानी पड़ती थी. लाचार मरीजों को स्पंज बाथ देना पड़ता था.

महेश तो एक पिछड़े इलाके से था, जहां के अस्पताल के नर्स से ले कर कंपाउंडर, डाक्टर तक मरीजों को डांटते रहते थे. एकएक इंजैक्शन लगाने के लिए नर्स फीस लेती थी. डाक्टरों से बात करने में डर लगता था कि कहीं डांटने न लगें. स्पंज बाथ का तो नाम भी नहीं सुना था. कभी कोई सगा अस्पताल में भरती हुआ, तो उसे एकएक रिलीफ के लिए दाम देते देखा था.

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पर यहां तो नर्सों का ‘इंटरनैशनल एथिक्स’ हम पर लागू था. हमें पहले ही ताकीद कर दी गई थी कि किसी मरीज से कभी भी चाय मत पीना, वरना कोर्ट मार्शल हो सकता है. पलपल यही खयाल रहता था कि कैसे नौकरी महफूज रखी जाए.

एक दिन जब महेश अपनी शिफ्ट ड्यूटी पर गया, तो उस से पहले काम कर रहे साथी ने बताया, ‘‘एक मरीज भरती हुआ है. उस का आपरेशन होना है और उसे तैयार करना है.’’

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