आशा अपनी दोनों बेटियों गुड्डो और लाडो के साथ खेल में व्यस्त थी. उन की बालसुलभ क्रीड़ाओं को देखदेख कर निहाल हो रही थी. तभी पड़ोस वाली शर्मा आंटी आ गईं. मुस्कान तिरछी करते हुए बोलीं, ‘‘खूब मस्ती हो रही है मांबेटियों के बीच.’’

‘‘आइए आंटीजी, कहते हुए आशा बेटियों को खेलता छोड़ उन के लिए कुर्सी ले आई.’’

‘‘अब फटाफट एक बेटा और कर ले, ताकि परिवार पूरा हो जाए,’’ आंटी ने अपनापन जताते हुए कहा.

‘‘हम दो, हमारे दो, हमें ये 2 बेटियां ही काफी हैं. हमारा परिवार पूरा हो गया, आंटी. हमें तीसरे बच्चे की चाह नहीं है. आप बताइए क्या लेंगी, चाय या कौफी?’’ आशा ने बात का रुख बदलते हुए कहा.

‘‘अरे, कैसी नासमझी वाली बातें करती हो? धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि बेटे के हाथों पिंडदान न हो तो मोक्ष नहीं मिलता. जब तक चिता को बेटा मुखाग्नि नहीं देता, आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती.’’

‘‘आंटी, क्या आप ने चिता के बाद की दुनिया देखी है? क्या आप दावे से कह सकती हो कि मरने के बाद क्या होता है?’’ आशा ने प्रश्न किया.

‘‘नहीं तो.’’

‘‘फिर आप कैसे कह सकती हैं कि बेटा मुखाग्नि नहीं देगा तो आत्मा को मुक्ति नहीं मिलेगी? बहुत से लोग ऐसे भी होते हैं जिन के कोई संतान ही नहीं होती. या फिर संतान इतनी दूर होती है कि समय पर पहुंच ही नहीं पाती. उन की आत्माएं क्या भटकती रहती हैं?’’ आशा के तर्कों ने आंटी को निरुत्तर कर दिया.

उसे अपने बचपन की एक घटना मालूम थी. उस के चाचा के अपना कोई बेटा नहीं था. जब उन की मृत्यु हुई तो मुखाग्नि देने के लिए पंडितजी ने बेटे की अनिवार्यता बताई. बेटी ने मुखाग्नि देने की बात कही. मगर पंडितजी ने मना कर दिया. वही पुरानी बातें कि ऐसा करने से मृतक को मोक्ष नहीं मिलेगा, उस की आत्मा जन्म जन्मांतर तक भटकती रहेगी आदिआदि. आनन फानन उन की बहन के बेटे को उन का दत्तक पुत्र बना कर अंतिम संस्कार करवाया गया. उस के बाद के क्रिया कर्म भी उसी के हाथों संपन्न करवाए गए. चाची पर गाज तो तब गिरी जब कुछ महीने बाद वह दत्तक पुत्र चाचाजी के पुश्तैनी मकान में अपना हिस्सा मांगने लगा. तब पता चला कि पंडित ने बहन से खूब दक्षिणा बटोरी थी.

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