कर्मों की कार्यशाला में सदियों पक कर संस्कार तैयार होते हैं, जो धीरेधीरे संस्कृति बन जाते हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो आज भी मिथिला की नारियां सीता के बताए मार्ग पर चलने को शायद प्रतिबद्ध न होतीं.

सीता ने रावण के आचरण का कड़ा विरोध किया था पर राम के अत्याचार का प्रतिवाद न कर सकीं. अगर उस वक्त सीता ने खुद पर राम द्वारा किए गए अत्याचार का विरोध किया होता तो शायद अच्छा होता. बगैर किसी अपराध के निर्वासन के दंड को चुपचाप स्वीकार कर सीता ने जानेअनजाने नारियों को जो संदेश दिया उस का परिपालन आज भी अनेक सीताएं कर रही हैं.

मिथिला समेत कई नगरों में आज भी ऐसी सीताओं की कमी नहीं है जो प्रतिदिन उपेक्षा, अपमान और अवमानना का विष पीती हुई निर्वासन की पीड़ा भोग रही हैं. ये सीताएं भी अपनों के अत्याचार का विरोध नहीं कर पातीं. खास बात यह है कि छोटीछोटी बातों पर छोड़ दी जाने वाली ऐसी निर्दोष स्त्रियों के प्रति परिवार और समाज की कोई सहानुभूति नहीं होती. झूठे आक्षेप, मारपीट और प्रताड़नाओं को चुपचाप सहते हुए हर हाल में ससुराल में बनी रहने वाली स्त्रियों को ही समाज में श्रेष्ठ मान्यता दी जाती है. अपनों की उपेक्षा और निर्वासन की पीड़ा झेल रही कुछ सीताओं की व्यथाकथा से आप भी रूबरू हों.

शक में ठुकराया

3 बहनों और 2 भाइयों में सब से बड़ी नीतू कुमारी 15 सालों से अपने मायके में रह कर छोड़े जाने का कष्ट झेल रही है. 16 साल की उम्र में पास के गांव में महेंद्र सिंह से उस की शादी हुई थी. शादी के बाद उस का पति उसे अपने साथ दिल्ली ले कर गया जहां वह काम करता था. 2 बच्चे भी हुए. घर पर नीतू पूरे दिन अकेली रहती थी. अकेलेपन से ऊब कर वह कभीकभार पड़ोस के मुसलिम परिवार के साथ घूमनेफिरने जाने लगी. महेंद्र को यह पसंद नहीं आया.

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