मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले के एक गांव के सरकारी स्कूल की तसवीर कुछ ऐसी है जिस में न तो स्कूल की घंटी बजती है और न ही बच्चों की चहलपहल सुनाई देती है. स्कूल भवन में ताला लटका रहता है. दरअसल, स्कूलों में बदलती नीतियों, सरकारी प्रयोगों और शिक्षकों से कराई जा रही बेगारी की वजहों से सरकारी स्कूलों में बच्चों का नामांकन शून्य हो गया है.

ग्राम पंचायत धौखेड़ा के तिघरा टोला का प्राथमिक स्कूल 1997 में खोला गया था. तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने प्रत्येक किलोमीटर के दायरे में शिक्षा प्रदान करने के लिए शिक्षा गारंटी कानून बनाया था. उस के तहत, गांव के कजरे टोले, जिन में 40 से अधिक बच्चे स्कूल जाने योग्य हैं, में स्कूल खोल कर बच्चों को शिक्षा की सुविधा मुहैया करवाई गई थी. 60 बच्चों के साथ प्रारंभ हुए इस स्कूल में 2 शिक्षकों की नियुक्ति पढ़ाने के लिए की गई.

20 सालों में प्रदेश के शिक्षा विभाग द्वारा औपरेशन ब्लैकबोर्ड, समाख्या, हमारी शाला कैसी हो, शालासिद्घि जैसी दर्जनों योजनाएं ला कर स्कूलों को प्रयोगशाला बनाया गया और शिक्षकों से जनगणना, चुनाव, सर्वे के साथ मध्याह्न भोजन, स्कौलरशिप, साइकिल, गणवेश वितरण जैसी विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन की बेगारी करवाई गई. नतीजतन, आज यह सरकारी स्कूल बच्चों को चिढ़ाता नजर आता है. प्रदेश में तिघरा टोला का यह स्कूल अकेला नहीं है, बल्कि रिछावर का नागल टोला, बम्हौरी के माटिया टोला और जमधान टोला जैसे कई स्कूल हैं जो नामांकन में कमी की वजह से बंद होने के कगार पर हैं.

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शिक्षकों से बेगारी

शिक्षकों से दूसरे काम कराए जाने का एक ताजा मामला प्रदेश के सिंगरोली जिले में प्रकाश में आया है. सरकार

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