रेलवे स्टेशनों व ट्रेनों के बीच मासूम बच्चों की जिंदगी कहीं खो सी गई है. खेतखलिहानों व शहरों से गुजरती हुई ट्रेन जब किसी रेलवे स्टेशन पर रुकती है, तो निगाहें उन बच्चों पर जरूर ठहरेंगी, जो रेलवे ट्रैक पर पानी की बोतलें जमा करते हैं या उन बच्चों की टोलियों पर नजरें जमेंगी, जिन के गंदेमैले कपड़े उन की बदहाली को बयां करते हैं. ये बच्चे हाथ में गुटकाखैनी का पाउच लिए ट्रेन की बोगियों में बेचते हैं. जहां इन्हें स्कूलों में होना चाहिए, लेकिन पेट की भूख के चलते यहां इन की जिंदगी के हिस्से में केवल ट्रेन की सीटी ही सुनाई देती है.

इन बच्चों की जिंदगी सुबह 5 बजे से शुरू होती है, स्कूल की घंटी नहीं, ट्रेन की सीटी सुन कर ये झुंड में निकल पड़ते हैं. ये ट्रेन की बोगियों में गुटकाखैनी बेच कर अपना और अपने घर वालों का जैसेतैसे पेट पालते हैं. रेलवे स्टेशन में मुश्किल हालात में रह रहे बच्चों के लिए काम करने वाली स्वयंसेवी संस्थाएं ‘साथी’ और ‘चाइल्ड लाइन’ ऐसे बच्चों को बसाने के लिए काम कर रही हैं, लेकिन सरकारी अनदेखी के चलते इन बच्चों के लिए कोई ठोस काम नहीं हो पा रहा है.

इलाहाबाद रेलवे स्टेशन में आप दर्जनों ऐसे बच्चों को देख सकते हैं, जो प्लेटफार्म पर भीख मांगते हैं और यहीं पर रहते हैं. इन बच्चों के मातापिता व घर का पता नहीं है. ये बच्चे ट्रेन व प्लेटफार्म पर ही अपनी जिंदगी बिताते हैं. गुजरबसर के लिए ऐसे बच्चे ट्रेनों में घूमघूम कर गुटका बेचते हैं. इलाहाबाद रेलवे स्टेशन के बाहर ये दुकानदारों से गुटका खरीदते हैं. बताया जाता है कि ये बच्चे 125 रुपए का गुटका 4 सौ रुपए तक में आासानी से बेच लेते हैं.

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