‘जो सोवत है सो खोवत है

जो जागत है सो पावत है.’

भारतीयों को उपरोक्त सीख विरासत में मिली है. लेकिन लगता है अब इस सीख की जरूरत नहीं है. न ही अब रात में जगने के लिए किसी को आह्वान किए जाने की दरकार है. चूंकि भूमंडलीकरण ने पूरी दुनिया को एक गांव में बदल दिया है, इसलिए अब इस गांव का सूरज कभी नहीं डूबता. जब गांव के एक कोने में रात होती है तो जाहिर है दूसरे कोने में दिन होता है. मगर चूंकि गांव एक ही हो गया है तो यह कहना सैद्धांतिक रूप से जरा मुश्किल हो गया है कि कब सोया जाए और कब जगा जाए? इस दुविधा ने वाकई नींद के सामने बड़ी मुश्किलें खड़ी कर दी हैं.

यह अकारण नहीं है कि चाहे आधुनिक विकास हो, जीवनशैली हो या भूमंडलीकरण, सब ने हमारी नींद पर हमला किया है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक अनुमानित अध्ययन के मुताबिक, 70 के दशक से अगर तुलना करें तो आज की दुनिया की नींद औसतन 4.5 घंटा प्रति 24 घंटे कम हो गई है. वहीं  शहरी भारत में भी 4 से 5 घंटे तक प्रति 24 घंटे कम हो गई है. ग्रामीण भारत में भी 2 से 3 घंटे की नींद पर खलल पड़ा है. इस के कई कारण हैं पर सब से बड़ा कारण जीवन जीने का ढंग और कामकाज की बदलती जीवनशैली है.

आधुनिक अर्थव्यवस्था ने ज्यादातर लोगों के कामकाज टाइमटेबल को बदल दिया है. नाइट ड्यूटी करना अब महज उत्पादन बढ़ाने का जरियाभर नहीं है बल्कि भूमंडलीकरण की जरूरत भी बन गया है.

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